समीक्षा का अतिवाद है ‘प्रशंसा’ और ‘खारिज करना’

हिन्दी साहित्यालोचना में मीडिया में व्यक्त नए मूल्यों और मान्यताओं के प्रति संदेह,हिकारत और अस्वीकार का भाव बार-बार व्यक्त हुआ है। इसका आदर्श नमूना है परिवार के विखंडन खासकर संयुक्त परिवार के टूटने पर असंतोष का इजहार। एकल परिवार को अधिकांश आलोचकों के द्वारा सकारात्मक नजरिए से न देख पाना। सार्वजनिक और निजी जीवन में ‘तर्क’ की बजाय ‘अतर्क’ के प्रति समर्पण और महिमामंडन। आजादी के बाद की आलोचना की केन्द्रीय कमजोरी है कल्याणकारी राज्य की सही समझ का अभाव। सार्वजनिक और निजी के रूपान्तरण की प्रक्रियाओं का अज्ञान। सच यह है कि कल्याणकारी पूंजीवादी राज्य की सांस्कृतिक भूमिका के बारे में हमने कभी विचार नहीं किया गया। उलटे कल्याणकारी राज्य का महिमामंडन किया। अथवा उसे एकसिरे से खारिज किया।

प्रशंसा और खारिज करना ये दोनों ही अतिवादी नजरिए की देन हैं। इनका सही समझ के साथ कोई संबंध नहीं है। कल्याणकारी पूंजीवादी राज्य का अर्थ सब्सीडी, राहत उपायों अथवा सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों का निर्माण करना ही नहीं है। अपितु कल्याणकारी राज्य आंतरिक गुलामी भी पैदा करता है। कल्याणकारी राज्य ने दो बड़े क्षेत्रों के चित्रण पर जोर दिया पहला-परिवार, इसमें भी मध्यवर्गीय परिवार पर जोर रहा है, चित्रण का दूसरा क्षेत्र है राजसत्ता और बाजार। स्वातंत्र्योत्तर अधिकांश साहित्य इन दो क्षेत्रों का ही चित्रण करता है।

सवाल उठता है कल्याणकारी राज्य हो और आंतरिक गुलामी न हो? कल्याणकारी राज्य के परिप्रेक्ष्य में साहित्य के प्रति क्या नजरिया होना चाहिए? साहित्य को प्रदर्शन की चीज बनाया जाए, अथवा आलोचनात्मक वातावरण बनाने का औजार बनाया जाए? कल्याणकारी राज्य में ‘सार्वजनिक’ और ‘निजी’ स्पेयर या वातावरण का क्या रूप होता है? इसके दौरान किस तरह का साहित्य लिखा जाता है? किस तरह के मुद्दे बहस के केन्द्र में आते हैं? साहित्य की धारणा,भूमिका और प्रभाव की प्रक्रिया में किस तरह के परिवर्तन आते हैं?

कल्याणकारी राज्य साहित्य को ‘सेलीबरेटी’, प्रदर्शन, नजारे, तमाशे, बहस आदि की केटेगरी में पहुँचा देता है, कृति और साहित्यकार को सैलीबरेटी बना देता है। अब साहित्य और साहित्यकार के प्रदर्शन और सार्वजनिक वक्तव्य का महत्व होता है किंतु उसका कोई असर नहीं होता।

लेखक का बयान अथवा कृति को साहित्येतिहास का हिस्सा माना जाता है। उसका सामाजिक -राजनीतिक तौर पर गंभीर असर नहीं होता, लेखक की जनप्रियता बढ़ जाती है। किंतु सामाजिक संरचनाओं पर उसका प्रभाव नहीं होता। साहित्य और लेखक अप्रभावी घटक बनकर रह जाता है। लिखे का सामाजिक रूपान्तरण नहीं हो पाता।

आप लिखे पर बहस कर सकते हैं किंतु भौतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक शक्ति के रूप में उसे रूपान्तरित नहीं कर सकते। अब साहित्य और साहित्यकार दिखाऊ माल बनकर रह जाते हैं। आलोचना का उपयोगितावाद के साथ चोली-दामन का संबंध बन जाता है। अब साहित्यालोचना उपयोगिता के नजरिए से लिखी जाती है,आलोचकगण सामयिक मंचीय जरूरतों के लिहाज से बयान देते हैं। यह एक तरह का साहित्यिक प्रमोशन है।

साहित्य प्रमोशन और तद्जनित आलोचना का मासकल्चर के प्रसार के साथ गहरा संबंध है। मासकल्चर का प्रसार जितना होगा साहित्य में प्रायोजित आलोचना का उतना ही प्रचार होगा। प्रायोजित आलोचना मासकल्चर की संतान है।

भारत में कल्याणकारी राज्य का उदय साम्राज्यवाद के साथ आंतरिक अन्तर्विरोधों के गर्भ से हुआ। राज्य और जनता के संबंधों के बीच में गहरी गुत्थमगुत्था चल रही थी और सार्वजनिक और निजी में तनाव था, राज्य और जनता के बीच पैदा हुए संकट के ‘प्रबंधन’ तंत्र के रूप में कल्याणकारी राज्य का उदय हुआ। इस संकट के समाधानों को उपभोग और बाजार के तर्कों के बहाने हल करने की कोशिश की। उपभोग और बाजार की प्रबंधन में केन्द्रीय भूमिका रही है। संकट के प्रबंधन की इस पध्दति का लक्ष्य था राज्य निर्देशित सार्वजनिक वातावरण तैयार करना,सार्वजनिक क्षेत्र खड़ा करना, आमजनता को संकट से बचाने के लिए राहत देना, कल्याणकारी राहतों के तौर पर मजदूर संगठनों और सामाजिक आन्दोलनों को राहत देना।

कल्याणकारी राज्य के आने के साथ सार्वजनिक और निजी के बीच का भेद कम होने लगता है। कल्याणकारी राज्य वस्तुओं की खपत,मांग,आकांक्षा आदि को बढ़ावा देता है ,उपभोक्ता के असंतोष में इजाफा करता है। वस्तुओं के उपभोग में इजाफा और उपभोक्ता असंतोष को विस्तार देता है। वस्तुओं के उपभोग में वृद्धि और नागरिक अधिकारों का क्षय, पत्रकारिता का मासमीडिया में रूपान्तरण, सार्वजनिक वातावरण के प्रति सम्मानभाव, निजता की उपेक्षा, राजनीतिक दलों में नौकरशाहाना रवैयये का विकास, साहित्य में सैलेबरेटी भाव, पूजाभाव, समाज और साहित्य से आलोचना का अलगाव,साहित्य और पाठक के बीच महा-अंतराल कल्याणकारी राज्य की सौगात है। कल्याणकारी राज्य में नौकरशाही सबसे ज्यादा ताकतवर और आम जनता शक्तिहीन होती है। कल्याणकारी राज्य आम जनता को निरस्त्र बनाता है। प्रतिरोधहीन बनाता है। जो लोग सोचते हैं कि आज की तुलना में कल्याणकारी राज्य ठीक था, वे गलत सोचते हैं, कल्याणकारी रास्ते से ही परवर्ती पूंजीवाद का विकास होता है। कल्याणकारी राज्य स्वभावत: बर्बर होता है। आपात्काल को कल्याणकारी राज्य ने ही लागू किया था। आपात्काल में ही हमारे संविधान में बदनाम 44वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान के आमुख में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जोड़े गए थे।

कल्याणकारी नीतियों के कारण जीवन के बुनियादी क्षेत्रों शिक्षा,स्वास्थ्य, परिवार कल्याण,पानी,बिजली आदि क्षेत्रों की समस्त संरचनाएं खोखली हो जाती हैं। इसका असर साहित्य और अन्य कलारूपों पर भी पड़ता है ऐसा साहित्य और आलोचना बड़ी मात्रा में सामने आता है जो कृत्रिम है अथवा निर्मित है अथवा खोखली अवधारणाओं को व्यक्त करता है। अब हम निर्मित आलोचना को ही वास्तव आलोचना समझने लगते हैं। सारी मुश्किलें आलोचना के इसी रूप के गर्भ से पैदा हो रही हैं। उल्लेखनीय है निर्मित साहित्य,निर्मित आलोचना मूलत: स्टीरियोटाइप आलोचना है। इसका समाज की वास्तविकता,साहित्य की वास्तविकता और आम जनता के जीवन की वास्तविकताओं के साथ कोई संबंध नहीं है। मजेदार बात यह है जो आलोचना के पुरस्कत्तर्ाा हैं वे ही निर्मित आलोचना के भी सर्जक हैं।

कल्याणकारी राज्य प्रतीकात्मक सामाजिकीकरण करता है। व्यवस्था से जोड़े रखता है। कल्याणकारी राज्य के संस्थान प्रतीकात्मक भूमिका निभाते हैं। प्रतीकात्मक भूमिका की ओट में बर्बरता, मूल्यहीनताऔर आंतरिक उपनिवेशवाद का निर्माण किया जाता है। कल्याणकारी राज्य के लक्ष्यों से नाभिनालबध्द आलोचना का लक्ष्य है आलोचनात्मक विवेक से मनुष्य को मुक्त करना ,आलोचना के वातावरण को नष्ट करना और मनुष्य को आंतरिक तौर पर गुलाम बनाना। अब जीवन और व्यवस्था के बीच ‘पैसा’ और ‘पावर’ के नियम निर्णायक भूमिका अदा करने लगते हैं। वे जीवन के आंतरिक आयामों में गहरे पैठ बना लेते हैं।

अर्थव्यवस्था और प्रशासनिक संरचनाओं के द्वारा सार्वजनिक और निजी को मातहत बनाकर रखने का भाव खत्म हो जाता है। अब प्रशासन के द्वारा तय मूल्य, नियम, मान्यताएं व्याख्याओं आदि का दैनन्दिन जीवन में महत्व खत्म हो जाता है। मजदूरवर्ग और नागरिकों की जीवनमूल्यों, आंतरिक जिंदगी और व्यवस्था को प्रभावित करने की क्षमता खत्म हो जाती है। अब नए किस्म का विरेचन शुरू हो जाता है। अब नागरिक की बजाय उपभोक्ता और ग्राहक महान बन जाता है। अब मूल्याधारित परिवर्तनों की बजाय भेदपूर्ण संचार का संदर्भ भूमिका अदा करने लगता है। सांस्कृतिक संसाधनों में नए सिरे से प्राणसंचार संभव नहीं रहता। अब सांस्कृतिक संसाधन व्यक्तिगत और सामुदायिक की प्रतीकात्मक पहचान का हिस्साभर बनकर रह जाते हैं। प्रतीकात्मक पुनर्रूत्पादन अस्थिर हो जाता है। अस्मिता के लिए खतरा पैदा हो जाता है और सामाजिक संकट की आम फिनोमिना के तौर पर फूट पड़ता प्रवृत्ति है।

उल्लेखनीय है कल्याणकारी राज्य शीतयुध्द के परिप्रेक्ष्य में विकसित होता है जिसका हमारे समूचे चिन्तन पर असर पड़ता है। आलोचना से लेकर राजनीति तक सभी क्षेत्रों में शीतयुध्दीय केटेगरी और अवधारणाओं का उत्पादन और पुनर्रूत्पादन बढ़ जाता है। हिन्दी के सन् 1972-73 के बाद के प्रगतिशील साहित्य, नयी कविता, जनवादी साहित्य, आधुनिकतावादी साहित्य पर शीतयुद्ध की अवधारणाओं का गहरा असर साफ तौर पर देखा जा सकता है।

कल्याणकारी राज्य में आंतरिक उपनिवेशवाद के कारण नए किस्म के अन्तर्विरोध और संकट पैदा होते हैं। नयी उन्नत तकनीक के आने के कारण पेशेवर पहचान बदलती है, निजी जीवन में पैसे की भूमिका निर्णायक हो जाती है। उपभोक्ता की भूमिका बढ जाती है। वर्गसंघर्ष और बुर्जुआ क्रांति के कार्यभारों को कल्याणकारी राज्य स्थगित कर देता है। अब मजदूर संघर्ष नहीं करते बल्कि ज्यादा से ज्यादा

अन्य गैर बाजिव समस्याओं में मशगूल रहते हैं। संकट को प्रतीकात्मक तौर पर भौतिक पुनर्रूत्पादन का विरोध करते हुए सम्बोधित किया जाता है। फलत: नए किस्म के मुक्तिसंग्राम शुरू हो जाते हैं। ऐसे संग्राम सामने आ जाते हैं जिनके बारे में पहले कभी सोचा नहीं था । इन तमाम संग्रामों का बुनियादी आधार है आंतरिक गुलामी से मुक्ति। स्त्री मुक्ति, दलित मुक्ति, स्त्री साहित्य, दलित साहित्य, पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण आदि ऐसे ही नए प्रसंग हैं।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

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