“ईश्वरीय ज्ञान वेदों का पुनरुद्धार, देश को आजादी का मूलमन्त्र तथा सामाजिक न्याय का सिद्धान्त ऋषि दयानन्द की देन है”

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मनमोहन कुमार आर्य

हम और सारा संसार ऋषि दयानन्द का ऋणी है। उनका ऋण ऐसा है कि जो कोई उतार नहीं सकता। उन्होंने संसार को सत्य ज्ञान दिया जो महाभारत युद्ध के बाद लुप्त होने के साथ अनेक विकृतियों से ग्रस्त हो गया था। वेदों के शुद्ध ज्ञान को प्राप्त करना सहज व सरल नहीं था। किसी का ध्यान भी उस ओर नहीं जाता था। सब अपने-अपने अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के प्रचार एवं मतान्तरण वा धर्मान्तरण जैसे कार्य करते थे। सबसे अधिक पतन यदि किसी का हुआ था तो वह तथाकथित सनातन मत का हुआ था। इस मत में अनेक कुरीतियां व मिथ्या परम्परायें विद्यमान थीं। ईश्वर के निराकार सत्यस्वरूप को भुलाकर जैन मत से प्रभावित होकर पाषाण व मिट्टी की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा की जाती थी। जन्मना जातिवाद ने अपने ही बन्धुओं के शिक्षा वा वेदाध्ययन के अधिकार को छीन लिया था। हमारा जन्मना ब्राह्मण वर्ग भी वेदज्ञान से शून्य था और आज भी उसकी दशा प्रायः वैसी ही है। नारियों के प्रति अत्याचारों की बात करें तो उसे बताना व अनुभूति कराना असम्भव है। नारियों को शिक्षा वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं था। यदि कोई नारी व जन्मना शूद्र वेद का कोई मन्त्र बोल व सुन लेता था तो उसकी जिह्वा व कानों को दण्डित करते हुए उसके छेदन का विद्वान अज्ञानी पण्डितों ने किया था। नारी विषयक स्वामी शंकराचार्य जी की मान्यतायें भी प्रशंसनीय नहीं थी। उन्होंने नारी को नरक का द्वार तक लिखा है। गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरितमानस में भी नारी व शूद्रों के प्रति वेद व महाराज मनु के विधान के विरुद्ध गर्हित मान्यतायें प्रचलित थी। ऐसी सामाजिक व्यवस्था का एक अवश्यम्भावी परिणाम देशवासियों का विधर्मियों का गुलाम होना निश्चित ही था और वह हुआ भी। महाभारत में भी आपस का संगठन न होने के कारण ही महाविनाशकारी युद्ध हुआ था। देश की आजादी के लिये देश के सभी नागरिकों का ज्ञानी संगठित होना आवश्यक है जो महाभारत काल से लेकर महर्षि दयानन्द के आगमन तक देश में नहीं था। ईश्वर का सत्यस्वरूप वेदों में तो विद्यमान था परन्तु संसार में प्रचलन में कहीं नहीं था। जितने भी देशी व विदेशी मत-मतान्तर प्रचलित थे, ईश्वर के सत्यस्वरूप के विषय में सभी भ्रमित व अविद्या से ग्रस्त थे। ऐसे आपद काल में ऋषि दयानन्द ने वेदों का ज्ञान व ईश्वर विषयक सत्य रहस्यों किंवा मनुष्य समाज को संगठित करने का मूल मंत्र ‘‘वेद वा विद्या का प्रचार हस्तगत किया और देश व समाज को अज्ञान की पराधीनता से मुक्त कराने के लिये संघर्ष आरम्भ कर दिया जिसका परिणाम देश की आजादी, शिक्षा का प्रचार, अज्ञान का निवारण, अन्धविश्वास तथा कुरीतियों में सुधार आदि के रूप में हुआ।

 

महर्षि दयानन्द जी ने अपने जीवन में जो प्रमुख कार्य किये उनकी चर्चा हम इस संक्षिप्त लेख में कर रहे हैं। उनके समय में सबसे अधिक अन्धकार ईश्वर के सत्यस्वरूप व उसके यथार्थ गुण, कर्म, स्वभाव को लेकर था। संसार में कोई ऐसा मत नहीं था जो ईश्वर जीवात्मा का यथार्थस्वरूप जानता हो उसका प्रचार करता था। यह दायित्व महर्षि दयानन्द जी ने अपने ऊपर लिया। उन्हें अपनी 14 वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा करते हुए यह बोध हुआ था कि मूर्ति ईश्वर के सत्यस्वरूप, ज्ञान शक्तियों से युक्त नहीं है। इसकी पूजा, अर्चना, स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना निरर्थक व हानिकारक है। देश की गुलामी में मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, सामाजिक कुरीतियां, अन्धविश्वासों व परम्पराओं का सर्वाधिक योगदान होता है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सच्चे स्वरूप जन्ममृत्यु के रहस्य को जानने को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया। उन्होंने देश के अनेक स्थानों जिसमें हिमालय पर्वत व आर्य हिन्दुओं के सभी तीर्थ स्थान थे, वहां जा-जाकर सभी विद्वानों व संन्यासियों से अपनी शंकाओं का निवारण करना चाहा परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। उन्हें कुछ योगी मिले जिनकी संगति व शिक्षा से वह सच्चे सफल योगी बने परन्तु विद्या की कमी उन्हें अनुभव होती थी और वह एक सच्चे विद्या गुरु की तलाश में थे। उनकी यह कमी भी दूर हुई और उन्हें आर्ष ज्ञान के पुरोधा, सत्य के प्रति निष्ठावान, अनार्ष ज्ञान से घृणा करने व उसका खण्डन करने में तत्पर, सच्चे ईश्वर व देशभक्त प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी का शिष्यत्व प्राप्त हुआ जिनके चरणों में बैठकर लगभग साढ़े तीन वर्षों में उन्होंने अपना अध्ययन पूरा किया। गुरु की प्रेरणा, अपनी आत्मानुभूतियों व अन्तः प्ररेणा से ऋषि दयानन्द ने संसार से असत्य व अज्ञान को मिटाने का दृण संकल्प लेकर अपना वेद प्रचार संघर्ष का मिशन आरम्भ किया। सन् 1863 से कार्य आरम्भ करके सन् 1883 तक के 20 वर्षों में मृत्युपर्यन्त उन्होंने सत्य ज्ञान वेदों के प्रचार के लिये अहर्निश कार्य किया और अनेक सफलताओं को प्राप्त किया। अविद्या के मुख्य आधार मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, विवाह विषयक समाजिक कुरीतियां, सभी प्रकार के धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों सहित मिथ्या परम्पराओं पर उन्होंने तीव्र प्रहार किये। इसका उद्देश्य मनुष्यों को अविद्या से छुड़ाकर दृण सामाजिक संगठन स्थापित कर मनुष्य को सभी प्रकार की अविद्या व दुःखों से मुक्त कराना था। आज विश्व में वेदों की जो प्रतिष्ठा है, ईश्वर के सत्य स्वरूप का प्रचार है, सामाजिक बुराईयों के प्रति देश विदेश में जागृति है उस सबका श्रेय महर्षि दयानन्द जी को दिया जा सकता है।

 

महर्षि दयानन्द जी ने ईश्वरीय ज्ञान वेदों में विद्यमान ईश्वर के सत्यस्वरूप को देश की प्रजा के सम्मुख रखा। उनके सभी ग्रन्थों व वेदभाष्य में ईश्वर के सत्य स्वरूप की विविध प्रकार से चर्चा उपलब्ध होती है। आर्यसमाज के दूसरे नियम सहित स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला, सत्यार्थप्रकाश का प्रथम व सप्तम् समुल्लास, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के स्तुति-प्रार्थना-उपासना अध्याय सहित आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों से ईश्वर का सत्य व यथार्थ स्वरूप जो पूर्णतया सत्य ज्ञान, युक्ति, तर्क पर आधारित व पुष्ट है, देश व समाज के सामने रखा। ऋषि दयानन्द ने तर्कपूर्वक बताया कि ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना, उसकी प्राणायाम, जप, ध्यान विधि से उपासना करना सभी मनुष्यों का प्रमुख कर्तव्य है। अग्निहोत्र यज्ञ द्वारा ईश्वर की उपासना सहित वायु व जल प्रदुषण को दूर कर अपने जीवन को स्वस्थ व सुखी बनाया जाता है। शिल्प विद्या के विस्तार व उन्नति में यज्ञ सहायक होता है। यज्ञ को उन्होंने देवपूजा, संगतिकरण व दान का प्रतिरूप बताया। इस विधि द्वारा ही ज्ञान-विज्ञान सहित शिल्प विद्या की उन्नति व विस्तार होता है। सन्ध्या की विधि भी ऋषि दयानन्द जी ने पंचमहायज्ञ-विधि नामक अपने लघु ग्रन्थ में प्रस्तुत की है। उन्होंने बताया है कि वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय भी सन्ध्या का अंग है। संक्षेप में ऋषि दयानन्द ने हमें वेदों के मन्त्रों के अर्थ व भाष्य देकर वेदों के सत्य रहस्य से परिचित कराने के साथ ईश्वर का सत्यस्वरूप, उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना का महत्व व विधि से परिचित कराया है जो उनके समय में पूरे विश्व में कहीं उपलब्ध नही थी। इस कारण ऋषि दयानन्द का कोटि-कोटि धन्यवाद है। यह सन्ध्या व वेदाचरण ही मनुष्यों को इस जीवन में सुखी बनाने के साथ परजन्म में भी श्रेष्ठ योनि में जन्म देकर सुख प्रदान कराता है जिस कारण सभी मनुष्यों को अपनी लौकिक व पारलौकिक उन्नति के लिये वैदिक मान्यताओं के अनुरूप जीवन व्यतीत करना आवश्यक है।

 

ऋषि दयानन्द ने देश और समाज सुधार के क्षेत्र में भी सर्वोत्तम कार्य किया है। उन्होंने त्रैतवाद का सिद्धान्त दिया और बताया कि मनुष्य व अन्य सभी प्राणियों में एक जैसा जीवात्मा विद्यमान है। जीवात्मा कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार एक योनि से दूसरी व अन्य योनियों में आता जाता रहता है। यदि हमारे कर्म श्रेष्ठ होंगे तो हमारी उन्नति होगी अन्यथा अवनति होकर हम पशु-पक्षियों आदि योनियों में जाकर दुःख भोगेंगे। परमात्मा की सृष्टि में कोई मनुष्य छोटा व बड़ा नहीं है। सभी परमात्मा के पुत्र व पुत्रियां हैं अतः सभी को एक परिवार की भांति रहना वसुधैव कुटुम्बकम् और एक दूसरे को सुख पहंचाने के लिये कार्य करना है। ऋषि दयानन्द ने जन्मना जातिवाद को वेदविरुद्ध बताया ओर इसकी निन्दा की। वह गुण, कर्म व स्वभाव के आधार वैदिक वर्ण व्यवस्था को पक्षपातरहित, सबका हित करने वाली सामाजिक व्यवस्था मानते थे। उनके अनुसार ज्ञान व विद्या पर सभी मनुष्यों का समान अधिकार है। इसके लिये उन्होंने वेद के प्रमाण भी प्रस्तुत किये। वह राज्यव्यवस्था से सबके लिये समान, निःशुल्क व वैदिक सिद्धान्तों के अनुरूप सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन करने-कराने के समर्थक थे। उन्होंने बाल विवाह तथा बेमेल विवाह का निषेद्ध किया। वेद के अनुसार वह पूर्ण युवावस्था में मनुस्मृति के अनुसार वर व वधू की परस्पर सहमति से गुण, कर्म व स्वभाव के अनुरूप विवाह के समर्थक थे। आर्य विद्वानों ने वेद के प्रमाणों को प्रस्तुत कर पौराणिक मतानुयायियों से शास्त्रार्थ में विधवा विवाह को भी शास्त्रीय सिद्ध किया है। वेदों की विचारधारा के अनुसार देवदासी प्रथा आदि कुप्रथाओं का तत्काल निषेद्ध होकर इसे प्रतिबन्धित किया जाना चाहिये। इससे पं. उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ आदि हमारे अनेक विद्वान व्यथित व दुःखी हैं। इसके बुरे परिणामों से देश व समाज परिचित है। आर्य हिन्दुओं को इससे भारी हानि हो रही है। कोई बुद्धिमान व ज्ञानी इस प्रथा को उचित नहीं सिद्ध कर सकता।

 

देश की उन्नति का कोई कार्य ऐसा नहीं था जिसकी प्रेरणा स्वामी दयानन्द जी ने न की हो। स्वदेशी राज्य व आजादी का मूल मन्त्र भी ऋषि दयानन्द जी ने ही सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में दिया है। विदेशी राज्य स्वदेशी राज्य से किसी भी स्थिति में अच्छा नहीं हो सकता, इसका उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में प्रमुखता व विस्तार से उल्लेख किया है। अपनी ईश्वर प्रार्थना की पुस्तक आर्याभिविनय में भी उन्होंने स्वदेश में विदेशी राज्य समाप्त होने की प्रार्थना की है। ऋषि दयानन्द जी के इन विचारों से आर्यसमाज के अनुयायियों व देश के प्रमुख लोगों को प्रेरणायें मिली और उन्होंने क्रान्तिकारी तथा अहिंसात्मक दोनों प्रकार के स्वदेशी राज्य के आन्दोलन में अपनी अग्रणीय भूमिका निभाई। यह दुःख की बात है कि देश की आजादी में आर्यसमाज के योगदान को हमारे कुछ पक्षपाती राजनीतिज्ञों व वामपंथी विचारधारा के इतिहासकारों ने उचित स्थान नही ंदिया। आर्यसमाज ने देश में गुरुकुलीय व आधुनिक शिक्षा के द्वारा भी जन जागृति उत्पन्न की। आर्यसमाज की नकल करके अन्य धार्मिक व सामाजिक सस्थाओं ने भी विद्यालय व स्कूल स्थापित किये। आज तो शिक्षा एक रोजगार बन गया है जिसमें शिक्षा केवल धनवानों की बन्धक बन कर रह गई है। प्रतिभावान निर्धन छात्रों की पहुंच उच्च शिक्षा तक नहीं है। आर्यसमाज के अतीत व वर्तमान के जो कार्य हैं उन्हे ंएक संक्षिप्त लेख में प्रस्तुत करना कठिन है। इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि आर्यसमाज का देश की आध्यात्मिक एवं सामाजिक सभी प्रकार की उन्नति जिसे सर्वांगीण उन्नति कह सकते हैं, सर्वाधिक योगदान है।

 

ऋषि दयानन्द जी के बलिदान दिवस, जिसे महाप्रस्थान दिवस का नाम भी दिया जाता है, हम उनकी पावन स्मृति को कोटि-कोटि नमन करते हैं। आर्यसमाज का उद्देश्य व लक्ष्य ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम् है। इसके लिये आर्यसमाज को कार्य करना है और देश की जनता को धर्मान्तरण व मतान्तरण से बचाना है। आर्य हिन्दुओं की जनसंख्या का वर्तमान अनुपात किसी प्रकार भी विधर्मियों से कम न हो, इस चुनौती को स्वीकार कर आर्यसमाज को कार्य क्षेत्र में उतरना चाहिये।

 

 

 

 

 

 

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  1. एक बार आर्यसमाज धामावाला में स्वर्गीय पृश्वीर शास्त्रीजी का व्याख्यान था!उन्होंने बताया थकी १८५७ की क्रांति के समय महृषि जी एक छावनी से दूसरी छावनी में जाकर क्रांति के लिए सैनिकों को तैयार कर रहे थे ! तथा क्रांतिके दौरान रोटी और कमल को प्रतीक चिन्ह बनाने का सुझाव महृषि जी का ही था! क्रांति की असफलता के बाद वो नर्मदा की घाटी में बैचेनी की दशा में घूमते रहते थे! और बाद में जब १८७५ में आर्य समाज की स्थापना कर दी तो सैनिक छावनी वाले छेत्रों में और जिन छेत्रों में ‘मार्शल’ जातियां रहती थींवहां महृषि जी ने स्वयं आर्य समाज की स्थापना की थी! पंजाब ने १८५७ की लड़ाई मेभाग नहीं लिया था सो महृषि जी ने पंजाब पर विशेष ध्यान दिया और बाद केदशकों में वहां से देश्बक्तों की पूरी श्रंखला निकली!

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