लोकतंत्र की मजबूती में प्रेस की भूमिका

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राष्ट्रीय प्रेस दिवस (16 नवम्बर) पर विशेष

योगेश कुमार गोयल

      न सिर्फ भारत में बल्कि विश्वभर में कलम को तलवार से भी ज्यादा ताकतवर और तलवार की धार से भी ज्यादा प्रभावी माना गया है क्योंकि इसी की सजगता के कारण भारत सहित दुनियाभर के अनेक देशों में पिछले कुछ दशकों में कई बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश हो सका। यह कलम की ताकत का ही परिणाम है कि अनेकों बार गलत कार्यों में संलिप्त बड़े-बड़े उद्योगपति, नेता तथा विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गज एक ही झटके में अर्श से फर्श पर आ जाते हैं। अगर इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो 1970 के दशक में जब अमेरिका के मशहूर ‘वाटरगेट’ कांड का भंडाफोड़ हुआ था तो अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को भी पद छोड़ने पर विवश होना पड़ा था। यही हाल हमारे यहां भी देखा जाता रहा है, जब प्रेस की सजगता के कारण ही केन्द्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री जैसे अति महत्वपूर्ण पदों पर रहे आला दर्जे के नेता भी भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों में जेल की हवा खाते रहे हैं। भारत में प्रेस की भूमिका और उसकी ताकत को रेखांकित करते हुए अकबर इलाहाबादी ने एक बार कहा था, ‘‘न खींचो कमान, न तलवार निकालो, जब तोप हो मुकाबिल, तब अखबार निकालो।’’ उनके इस कथन का आशय यही था कि कलम तोप, तलवार तथा अन्य किसी भी हथियार से ज्यादा ताकतवर है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने भी 3 दिसम्बर 1950 को अपने एक सम्बोधन में कहा था, ‘‘मैं प्रेस पर प्रतिबंध लगाने के बजाय, उसकी स्वतंत्रता के बेजा इस्तेमाल के तमाम खतरों के बावजूद पूरी तरह स्वतंत्र प्रेस रखना चाहूंगा क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता एक नारा भर नहीं है बल्कि लोकतंत्र का एक अभिन्न अंग है।’’

      प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में आज स्थितियां काफी बदल गई हैं और पिछले कुछ वर्षों से कलम रूपी इस हथियार को भोथरा बनाने अथवा तोड़ने के कुचक्र हो रहे हैं। पत्रकारों पर आज राजनीतिक, अपराधिक और आतंकी समूहों का सर्वाधिक खतरा है और भारत भी इस मामले में अछूता नहीं है। यह विड़म्बना ही है कि दुनिया भर के न्यूज रूम्स में सरकारी तथा निजी समूहों के कारण भय और तनाव में वृद्धि हुई है। चूंकि किसी भी देश में लोकतंत्र की मजबूती में प्रेस की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है, इसीलिए एक स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र के लिए प्रेस की स्वतंत्रता को अहम माना जाता रहा है लेकिन विड़म्बना है कि विगत कुछ वर्षों से प्रेस स्वतंत्रता के मामले में लगातार कमी देखी जा रही है। प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में इसी वर्ष अमेरिकी वॉचडॉग फ्रीडम हाउस की एक सनसनीखेज रिपोर्ट सामने आई थी, जिसमें खुलासा किया गया था कि प्रेस स्वतंत्रता में पिछले करीब डेढ़ दशकों से कमी देखी जा रही है।

      भारत में प्रेस की स्वतंत्रता में मामले में स्थिति दिनोंदिन कितनी बदतर होती जा रही है, इसका अंदाजा ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ की वार्षिक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। इसी संस्था द्वारा वर्ष 2009 में जारी रिपोर्ट में भारत प्रेस की आजादी के मामले में जहां 109वें पायदान पर था, वहीं एक दशक में वह 31 पायदान लुढ़ककर 140वें स्थान पर पहुंच गया है। इस रिपोर्ट में भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर जो तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं, उनके अनुसार भारत जहां प्रेस स्वतंत्रता के मामले में 2017 में 136वें तथा 2018 में 138वें पायदान पर था, वहीं अब दो पायदान और नीचे खिसककर 140वें पायदान पर पहुंच गया है। निसंदेह प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में यह गिरावट स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। संस्था के अनुसार विश्वभर में पत्रकारों के खिलाफ घृणा हिंसा में बदल रही है, जिससे दुनियाभर में पत्रकारों में डर बढ़ा है। प्रेस की स्वतंत्रता में कमी आने का सीधा और स्पष्ट संकेत यही है कि लोकतंत्र की मूल भावना में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो अधिकार निहित है, धीरे-धीरे उसमें कमी आ रही है।

      रिपोर्ट के अनुसार प्रेस की आजादी के मामले में सबसे बेहतर स्थिति नार्वे की है। नार्वे के अलावा फिनलैंड, स्वीडन, नीदरलैंड, डेनमार्क, स्विट्जरलैंड, न्यूजीलैंड, जमैका, बेल्जियम तथा कोस्टा रिका भी प्रेस स्वतंत्रता वाले देशों में शीर्ष स्थान पर विराजमान हैं जबकि तुर्कमेनिस्तान, उत्तर कोरिया, इरीट्रिया, चीन, वियतनाम, सूडान, सीरिया, जिबूती, सऊदी अरब, लाओस इत्यादि देशों में प्रेस स्वतंत्रता की स्थिति सबसे बदतर है। पाकिस्तान 139वें से 142 वें स्थान पर पहुंच गया है जबकि बांग्लादेश भी 146वें से 150वें पायदान पर लुढ़क गया है लेकिन तस्वीर के दूसरे पहले को देखें तो प्रेस की आजादी के मामले में अगर अफगनिस्तान जैसा देश भी हमसे आगे है तो हमें गंभीरता से यह विचार मंथन करने की जरूरत है कि हम इस मामले में वर्ष दर वर्ष क्यों फिसलते जा रहे हैं और हमारे कर्णधार लोकतंत्र को किस दिशा की ओर ले जा रहे हैं? एक ओर भारत के लोकतंत्र को दुनिया का सबसे सफल और बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, वहीं अगर नार्वे जैसा छोटा सा देश प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में शीर्ष स्थान पर विराजमान है तो क्या यह स्थिति भारत जैसे इतने बड़े लोकतांत्रिक देश को मुंह चिढ़ाने जैसी नहीं है।

      विभिन्न अवसरों पर न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में सच की कीमत पत्रकारों को अपनी जान देकर भी चुकानी पड़ रही है। ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल भारत में कम से कम छह पत्रकारों की हत्या कर दी गई। इसके अलावा कई पत्रकारों पर जानलेवा हमले भी हुए तो कई पत्रकारों को सोशल मीडिया पर ‘हेट कैंपेन’ का भी सामना करना पड़ा। हालांकि शायद दुनियाभर में सालभर में 15-20 पत्रकारों की हत्या का आंकड़ा लोगों को इतना नहीं झकझोरता होगा किन्तु अगर मामले की गहराई तक जाकर देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि स्थिति कितनी बदतर है। कुछ समय पहले इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया था कि 1990 से लेकर अब तक पिछले करीब ढ़ाई दशकों में 2300 से भी अधिक पत्रकारों की हत्या हुई हैं, जिनमें से सिर्फ वर्ष 2015 में ही 112 पत्रकारों को मौत की नींद सुला दिया गया। भारत के संबंध में ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ की रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि भारत में प्रेस स्वतंत्रता की वर्तमान स्थिति में से एक पत्रकारों के खिलाफ हिंसा है, जिसमें पुलिस की हिंसा, माओवादियों के हमले, अपराधी समूहों या भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का प्रतिशोध शामिल है। इसका सीधा और स्पष्ट अर्थ यही है कि अगर कहीं भी कुछ गलत या अनैतिक हो रहा है, जिसे दबाने या छिपाने की कोशिश की जा रही हो और कोई पत्रकार उसे उजागर करने का प्रयास करता है तो वह अपनी जान जोखिम में डाल रहा होता है क्योंकि ऐसे पत्रकार पर अंकुश लगाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद हर प्रकार के अनैतिक तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है और न मानने पर कई बार ऐसे पत्रकार की सांसें बंद करने के भी पुख्ता इंतजाम कर दिए जाते हैं।

      पत्रकारों की हत्या करना मीडिया पर दबाव बनाने का सबसे आखिरी और क्रूरतम तरीका माना गया है। हालांकि भारतीय संविधान में प्रेस को अलग से स्वतंत्रता प्रदान नहीं की गई है बल्कि उसकी स्वतंत्रता भी नागरिकों की अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता में ही निहित है और देश की एकता तथा अखण्डता खतरे में पड़ने की स्थिति में इस स्वतंत्रता को बाधित भी किया जा सकता है किन्तु ऐसी कोई स्थिति निर्मित नहीं होने पर भी देश में पत्रकारों की हत्याएं तथा पत्रकारिता का चुनौतीपूर्ण बनते जाना लोकतंत्र के हित में कदापि नहीं है बल्कि यह स्पष्ट रूप से कुछ शक्तियों द्वारा लोकतांत्रिक व्यवस्था के चौथे स्तंभ को ध्वस्त करने का ही प्रयास माना जा सकता है। अगर प्रेस की स्वतंत्रता पर इसी प्रकार प्रश्नचिन्ह लगते रहे तो पत्रकारों से सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उठाने की कल्पना कैसे की जा सकेगी?

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