एक ही मांद में आखिर कितने ‘स्वयंभु-शेर’ ?

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ये ज्ञातव्य है कि बिना किसी स्पष्ट विजन के दो बार संसदीय राजनीति में कथित तीसरे मोर्चे की सरकार तो बनी लेकिन स्वहित व जोड़ तोड़ की राजनीति के परिणामस्वरूप आपस में हुई राजनीतिक वर्चस्व की टकराहट के कारण कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी सवाल ये है कि वर्तमान परिदृश्य में जिस तरह मोदी बनाम दूसरे सब‘ का समीकरण उभर कर आ रहा है उसमें किसी वैकल्पिक फ्रंट की कितनी गुंजाईश बैठ पाएगी ?

 

तीसरे मोर्चे की राजनीति के इतिहास के पन्ने अवसरवाद की राजनीति से भरे हैं ऐसे संभावित किसी भी मोर्चे में शामिल सभी राजनीतिक सूरमा अपने आप को प्रधानमंत्री के ही रूप में देखने की ख़्वाहिश पाले बैठे हैं संभावित मोर्चे के घटकों में आपसी अंतर्विरोध इतने हैं कि उनमें तालमेल बिठाना आसान नहीं है। मोर्चे में कोई किसी से अपने आप को कम काबिल मानने वाला नहीं है । एक ही मांद में आखिर कितने स्वयंभु-शेर‘ रहेंगे इस कथित फ्रंट/मोर्चे के इन नेताओं में से एक भी ऐसा नहीं हैजो आज की जनभावना को स्वर दे सके। आज असली मुद्दा विकाससुशासन व लोकहित है सांप्रदायिकता नहीं आज राष्ट्र एक ऐसे विपक्ष की तलाश में हैजो लोकनीति का सशक्त प्रतीक बन सके। क्या इनमें से कोई नेता ऐसा हैजो इस राष्ट्रीय शून्य को भर सके ?

 

ऐसे किसी भी मोर्चे का गठन सदैव घटक दलों की मजबूरी ही रहा है। अपने-अपने राज्य की भौगोलिक सीमाओं के दायरे में बंधे ये सभी दलदेश भर के चुनावी समर में भागीदार नहीं होते। लेकिन लक्ष्य तो एक ही हैकेंद्र की सत्ता । केंद्र में सरकार बनाने का सपना पूरा हो या नहींअपना वजूद बचाए रखने की कवायद जारी है । तीसरा मोर्चा हमेशा राष्ट्रीय दलों से खिन्नाये दलों का दिशाहीन झुँड ही रहा है । ना सबकी जरूरतें एक जैसी हैं और ना ही प्रतिबद्धता। अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से सभी ऐसे मोर्चे का इस्तेमाल करते हैं ।

 

अब तक दो बार तीसरे मोर्चे की सरकार का गठन तो हुआ लेकिन किसी ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यदि तीसरे मोर्चा फिर से उभर का आता है  तो सबसे बड़ा सवाल होगा कि इस मोर्चे की पटकथा कौन लिखेगा ? मोर्चे की कमान किसके हाथों में होगी और वो क्या सबों को स्वीकार्य होगा ?

 

कहीं गठबंधन की प्रेम कहानी एक बार फिर अधूरी तो नहीं रह जाएगी भारतीय राजनीति में तीसरे मोर्चे की उपादेयता प्रश्नचिन्हों से घिरी ही रही है | हमारे देश का राजनीतिक इतिहास साक्षी है कि तीसरा मोर्चा सदैव ध्रुवीय राजनीति का शिकार हुआ है |

 

इस तथाकथित मोर्चे में जो क्षेत्रीय पार्टियां शामिल हो रही हैंउनकी अखिल भारतीय हैसियत क्या है आज की लोकसभा में सपा के ५जनता दल(यू) के २ , राष्ट्रीय जनता दल के ४मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ९कम्युनिस्ट पार्टी का १ ,बीजू जनता दल के २०इंडियन नेशनल लोकदल के २ जनता दल सेक्यूलर (देवेगौड़ा) जनता दल के २ ,अन्य छोटी-मोटी पार्टियों के दहाई से भी कम सदस्य और अगर तृणमूल के ३३ सदस्यों को भी मिला दिया जाए तो भी संख्या १०० के पार नहीं पहुँच पाती है । वर्तमान में भारत की राजनीति में एवं जनता के बीच जैसा मोदी-इफेक्ट देखने को मिल रहा है और जैसे धूर मोदी विरोध की राजनीति करने वालों की जमीन सिमटती जा रही है उसे देखकर प्रथम द्रष्ट्या तो यही लगता है कि कहीं मोर्चे का मोर्चा ही न लग जाए !! ढेरों चौबेजी छब्बेजी बनने जा रहे हैं, कहीं एक बार फिर सारे के सारे  दुबेजी ही न बनकर रह जाएं !! पुराने जनता दल वाले और कथित समाजवादी  किस बिमारी से ग्रसित हैं  इसका अंदाजा खुद उन को भी नहीं है , लिहाजा तीसरे मोर्चे की संभवानाओं पर सवाल उठना लाजमी है lइसकी ही उम्मीद ज्यादा है कि पुनः तीसरा मोर्चा सिर्फ गैर-कांग्रेसगैर-भाजपा दलों का सिध्दांतहीन जमावड़ा ही साबित होगा l

 

आज के राजनीतिक परिपेक्ष्य में चाहे लोकसभा चुनावों की बात हो या हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनावों की “जब जनता एक ही पार्टी को स्थायी सरकार के आंकड़े दिला रही है तो ऐसे में किसी  तीसरे या चौथे मोर्चे का कोई भविष्यदिखाई तो नहीं ही देता है l” २०१४ के संसदीय चुनावों के बाद भारतीय राजनीति में ऐसी कोई सूरत भी उभरती दिखाई नहीं देती (यह बात पूरी निश्चितता के साथ कही जा सकती है)जो मोदी , मोदी सरकार या भाजपा को सही मायनों में चुनौती देती नजर आती हो । सिमटती हुई राजनीतिक जमीन पर खड़े हो कर , जनमत व जनता के मूड को नजरंदाज कर मोदी विरोध और छदयम धर्मनिरपेक्षता का कार्ड साथ-साथ खेलना मुमकिन नहीं है और ऐसा ड्रामा शायद जनता को मंजूर भी नहीं । इसलिए मौजूदा परिदृश्य में किसी नए राजनीतिक समीकरण के सूत्र तलाशना मेरी राय में एक निरर्थक प्रयास ही है ।

 

आलोक कुमार

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