ये परदा हंसता है…

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-केशव आचार्य

सिनमाई परदा बहुत कुछ कहता है…मसलन ये ना सिर्फ मंनोरंजन एक माध्यम है बल्कि अभिव्यक्ति का एक हस्ताक्षर भी है। इस माध्यम से अभिव्यक्ति का एक सशक्त हस्ताक्षर है..हास्य। सिनमाई परदें पर एक्शन से भी ज्यादा लोगों हास्य को स्वीकार किया है। यही कारण साल भर में रिलीज होनेवाली फिल्मों में ज्यादातर फिल्म हास्य प्रधान होती हैं। ये फिल्में लोगों के बीच ज्यादा यादगार तो होती ही हैं ज्यादा से ज्यादा याद भी की जाती हैं यही कारण है कि हर कलाकार पर्दे पर एक हास्य और यादगार भूमिका निभाने के लिए लालायित रहता हैं। भारतीय परिवेश में उन फिल्मों को सफल माना जाता है जो दर्शकों को हंसने पर मजबूर कर दें। दसअसल आज का दर्शक मल्टीप्लेक्स कल्चर में एक मोटी रकम खर्च कर विशुद्ध मंनोरंजन की उम्मीद करता है। और उसका ये मनोरंजन पूरा होता है हास्य फिल्मो सें। वैसे हास्य प्रधान फिल्मों हमेशा ही सराहा गया है…फिर बातचाहे चलती का नाम गाड़ी से हो या फिर मुन्ना भाई हो। कॉमेडी फिल्मों की कामयाबी यही है कि उसे हम अपनी जिंदगी की उलझनों के करीब पाते हैं।जो फिल्में हमारी जिंदगी के बीच जितनी करीब होती हैं वो उतनी सफल हो पाती हैं। किशोर कुमार की हाफ टिकट, कमल हसन की पुष्पक और चाची चार सौ बीस..से लेकर पंकज अडवाणी की अनरिलीज्ड उर्फ प्रोफेसर एक मिसाल हैं लोगों के दिलों में घर कर जाने और फिल्म इतिहास में मील का पत्थर साबित होने में…। गोलमाल में जिस तरह से जहीन हास्य को जिदंगी से जुडे किसी प्रगतिशील मूल्य से जोड़ा गया है वह अपने आप में अमूल्य हैं…। ऋषि दा की रिपीट फिल्मों में गोलमाल एक मील का पत्थर है। इस फिल्म के लिए अमोल पालेकर को बेस्ट एक्टर का फिल्म फेयर का अवार्ड दिया गया था। १९७९ में आई गोलमाल के बाद १९८२ की अंगूर..को फिल्मों में शेक्सपीयर का आगमन माना जाता है…इस फिल्म में गुलजार साहब ने शेक्सपीयर के नाटक कामेडी ऑफ एरर्स को क्याखूब तरीके से हिंदुस्तानी लिबास पहनाया है। वहीं चलती का नाम गाडी(१९८५) में हिंदी सिनेमा के आलराउंडर किशोर कुमार और दोनो भाईयों दादा मुनि और अनुप की बेमिशाल जोड़ी की धरोधऱ हैं। गोल्डन फिफ्टी की यह एक मशहूर कामेडी फिल्म है। वहीं १९८१ में आई चश्मे बदूर अपने समय की बेहतरीन फिल्म है जिसकी खाम बात इस फिल्म में अपने समय और परिवेश में रचा बसा हास्य हैं। इसके कई संवादों में उस समय की कालेज लाइफ का कोई ना कोई संदर्भ जरूर है…। तो १९८३ में हिंदी सिनेमा में व्यंग्य के क्षेत्र में आई सबसे बडीकेल्ट क्लासिक है जाने भीदो यारो। मात्र कामेडी ना होकर एक स्याह रंग लिए यह फिल्म विकास की अंधी दौड में शामिल लिबरल हिंदुस्तान की जीती जागती मिशाल हैं। २००६ में आई खोसला का घोंसला दिल्ली के मिडिल क्लास तबका पेशा लोगों की ऐसी कहानी है जो कहीं कहीं हमारी जिंदगी के कुछ कतरन उधार लेकर बनाई गई है। निर्देशक दिबाकर मुखर्जी की पहली फिल्म और हिंदी सिनेमा की मार्डन कल्ट कही जाने वाली यह हिंदी सिनेमा में ऋषिकेश दा, बासु चर्टजी,और संई पराजंपे की परंपरा को आगे बढाती हैं। तो वहीं२००६ की ही केमिकल लोटा वाली फिल्म लगे रहो मुन्ना भाई…एक ऐसा हिंदुस्तानी पब्लिक मेल है जिसने लोगों के दिलों में ही नहीं बाद में मुस्कुराने को मजबूर कर दिया। एक मौलिक कहानी के साथ साथ इस फिल्म में कई प्रांसगिक संदेश भी हैं..जो हमें कदम कदम पर सोचने को मजबूर करते हैं।

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