महिलाओं की हिस्सेदारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अल्पमत में कब तक

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महिलाओं के  लिए अधिकारों और कत्र्तव्यों को लेकर हमारे देश में गर्मागर्म बहस होती है, महिलाओं को यह अधिकार प्राप्त होने चाहिए, उनकों अपना सामाजिक विकास करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए, लेकिन वास्ताविकता में सारी बातें समय से साथ कौरी कागज साबित होती है। देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सभी स्तर की बिडबंना देखते बनती है, कि महिलाओं के हक का मुद्वा उठता बड़े तरीके से है, लेकिन ठंडे बस्ते में जाते देर नहीं लगती है। इस दफा के पांच राज्यों के चुनावों में उत्तरप्रदेश की सियासी महाभारत की चर्चा जोरों पर है, हो भी क्यों न दिल्ली का रास्ता जो उत्तरप्रदेश से निकलता है। इस बार के संग्राम में बहू, बेटी, का मुद्वा भी शुरूआती रणभेरी में गूंजता दिखा, फिर लगा इस राजनीतिक बहार में महिलाओं के लिए कुछ अलग तिकड़म बैठेगा, और उत्तरप्रदेश की राजनीतिक गलियारे के साथ पांचों राज्यों के चुनावों में महिलाओं को अहम स्थान और ओहदा प्राप्त होगा, लेकिन उम्मीदवारों की सूची जारी होने के पश्चात वहीं ढाक के तीन पात साबित हो रहा है, महिला कल्याण और उत्थान का सपना, जो आजादी के वक्त से इन राजनीतिक दलों से केवल सपने में बात की है, वह भी दीवास्वप्न में।

आधी आबादी को पूरा हक, अधिकार दिलाने की थोथी राजनीतिक परपंच देश की महिला और व्यवस्था आजादी के वक्त से नजर गड़ाकर देख रही है, लेकिन मौसम ऐसा राजनीति में शायद कभी ऐसा आएंगा, कि महिलाओं को लेकर राजनीतिक दलों की मंशा में बदलाव हो, और वे जो एक तिहाई आरक्षण देने की बात महिलाओं के लिए करते है, उस पर अमल करते हुए सच में पथ-प्रदर्शक की भूमिका अदा करें। आज हमारे देश की महिलाएं किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से पीछे नहीं है, और कंधे से कंधा मिलाकर डटकर हर परिस्थितियों का सामना कर रही है, फिर राजनीति को पता नहीं ऐसा कौन सा रंग लग गया है, कि राजनीतिक दलों को अपनी जीत की गारंटी केवल कदावर, और बाहुबली नेताओं की छवि में नजर आती है। महिलाओं को सामाजिक परिस्थिति में बराबर का दर्जा प्रदान करने की थोथी जुमलें को दशकों व्यतीत हो गएं, लेकिन रंग बदलने का वक्त लंबा खिंचता जा रहा है। आज महिलाओं को लेकर समाज की दृष्टि में बदलाव उत्पन्न करने की बात बड़े-बड़े मंचों पर की जाती है, कि राजनीतिक विरासत में जो दो-चार महिलाओं के नाम चल पडे़, वही महिलाओं के नाम पर राजीतिक के बड़े व्यवस्था तंत्र में सक्रिय है, वरना नया युवा चेहरा राजनीति में महिलाओं का देखने को नहीं मिल सकता। सत्ता और राजनीति अपने वही पुरातन प्रथा के ढर्रें को खेती हुई दिख रही है, लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के हक और राजनीतिक व्यवस्था में रह-रहकर एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था का मुद्वा गूंजता है, पर जमीन सतह पर हकीकत में परिवेश बदलने को तत्पर दिखाई नहीं पड़ता। 2014 लोकसभा चुनाव में मात्र 61 महिला उम्मीदवार चुनकर संसद तक पहुंचती है, फिर कहां गया महिलाओं का हक, सामाजिक समरता का मुद्वा और एक तिहाई आरक्षण देने का प्रावधान। राजनीतिक बासुरी बाजाने भर से महिलाओं को हक नहीं प्राप्त होने वाले है, उसके लिए सशक्त और सही दिशा में मार्गदर्शन के साथ माहौल उत्पन्न करना होगा। मोदी के आने के पश्चात् जिस प्रकार बेटी पढाओं और बेटी बचाओं का मुद्वा सामाजिक परिवेश में बढ-चढ़कर अपनाया जा रहा है, उसको देखकर ऐसा एहसास किया जा सकता था, कि महिलाओं को चुनावों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने का आने वाले समय में अवसर प्राप्त होगा, लेकिन वर्तमान पांच राज्यों की स्थितियों को देखकर ऐसा अंदाजा लगाया जा सकता है, कि स्थिति जस की तस है, राजनीतिक दल महिलाओं के नाम पर अपनी पार्टी की हार को बर्दाश्त नहीं कर सकते, शायद इन्हीं कारणवश वे सत्ता के लिए महिलाओं पर ज्यादा दांव खेलते नहीं दिख रहे है।

यह देश की घोर बिडाबंना है, कि आज भी महिलाओं को अपना सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य पर पूर्ण हक प्राप्त हुआ है, और न होता दिख रहा है। महिलाओं को न घर में, न समाज में और न भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में उनका सकल अधिकार और हक मिल पा रहा है, इसका जीता-जागता उदाहरण राजनीतिक भाषा-शैली में महिलाओं के ऊपर राजनीतिक तंत्र में होने वाले वर्तमान परिदृश्य के छींटाकशी से लगाया जा सकता है। राजनीति में आज महिलाओं के प्रति अभद्र टिप्पणी करना थोथी, और नीची मानसिकता की झलक प्रस्तुत करता है, कि समाज में राजनीतिक स्तर पर महिलाओं की स्थिति को लेकर चाहे जितनी बड़ी बड़ी बाते कर ली जाएं, लेकिन सामाजिक परिदृश्य में व्यापक स्तर पर महिलाओं के प्रति बदलाव न के बराबर प्रतीत होता है। चार राज्यों में लंबे जदोजहद के उपरान्त जिस तरीके से अपने उम्मीदवारों के नाम का एलान किया है, उस सूची में महिलाओं को उस तरह से तरजीह नहीं प्रदान की गई, जिस प्रकार उनके आरक्षण और योगदान के लिए आगे लाने की बात होती है। उत्तरप्रदेश में जारी अभी तक 1137 प्रत्याषियों की सूची में मात्र 93 महिला प्रत्याशी है, फिर यह प्रतिशत में मात्र नौ फीसद का आकांडा रखता है, फिर महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत के आरक्षण की पैरवी कहां चली जाती है। भाजपा ने मात्र 11 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया है, जो बेटियों और महिलाओं के लिए केंद्र की सत्ता में बैठकर योजनाएं लागू कर उनकी स्थिति में बदलाव की आवाज बुलंद करती है, फिर अपनी उम्मीदवारों की सूची में महिलाओं को इतना कम प्रतिशत स्थान देना संशय पैदा करता है, कि सत्ता प्राप्त करना ही एक मात्र लक्ष्य होता है?

इस उत्तरप्रदेश  के चुनावी मेले में बसपा और कांग्रेस ने मात्र पांच फीसद महिलाओं को मैदान में उतारा है, जिसकी राष्ट्रीय अध्यक्ष जैसे पद महिलाओं के पास है, फिर भी ये दल महिलाओं की स्थिति में सुधार को अनदेखा कर जातिवादी और सोशल इंजीनिरिंग की राजनीतिक बिसात को तैयार कर रही है। जब महिलाओं के नेतृत्व वाले दलों में महिलाओं को न के बराबर टिकट दिया गया है, फिर अन्य दलों से क्या उम्मीद की जा सकती है? गोवा में भाजपा ने मात्र एक उम्मीदवार महिला के रूप में खड़ा किया है। इन सभी स्थितियों पर नजर दौडाने के पश्चात् एक ही तथ्य जेहन में आता है, फिर इस आधार पर महिलाओं की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति में सुधार कैसे और कब हो पाएंगा, इसके साथ इन दलों के बडबोलेपन पर भी शक होता है, कि क्या कभी ये राजनीतिक दल महिला आरक्षण बिल को पास कराकर महिलाओं के दशा और दिशा में सुधार की पहल करते दिखेंगें।

 

 

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