चुनावी खुशबू ‘आप’ को समझा गई चुप्पी हानिकारक है ?

पारसमणि अग्रवाल
चुनावी दस्तक होते ही राजनैतिक दलों में हलचल मच जाती है। गोटें बिछने का दौर शुरू हो जाता है और सियाशी रोटियां सिकने लगती है। राजनैतिक पण्डितों की दुकानें खुल जाती हैं। छुटभैया नेता भी बरसाती मेंढ़क की तरह बाहर निकल आते है। हर सियाशी दलों के नेताओं का दिलों-दिमाग सिर्फ और सिर्फ वोट बैंक के लिये काम करने लगता है और बगुला नजर से वोटर रूपी मछली पर ध्यान लगा दिया जाता है। लोकतांत्रिक देश होने की वजह से चार साल की मौज के बाद हर पॉचवी साल सत्ता की चासनी चाटने वाले और सत्ता की चासनी चाटने की चाहत रखने वाले सफेदपोशकधारी जिम्मेदार ‘जनता शंरणम् गच्छामि।’ को साकार रूप देते हुये खुद को सबसे बड़ा हितैषी बताकर जनता की चौखट पर माथा टेकने लगते है क्योंकि राजनीति में एक वोट भी अपनी बड़ी अहमियत रखता है। एक वोट चाहे तो उसे सत्ता का ताज पहना सकता है और एक वोट चाहे तो उससे सत्ता की कुर्सी छीन सकता है। और फिर वास्तविकता यही है कि बूॅद-बूॅद पानी से ही धड़ा भरता है।
देश की सत्ता का केन्द्र दिल्ली की राजकीय राजनीति में भी कुछ यूंही नजारा दिखाई दे रहा और राजनैतिक गलियारों में चल रही हवा इस बात का अहसास करा रही और सम्भवतः चुनावी खूशबू आप को समझा गई कि चुप्पी हानिकारक है।
केन्द्र शासित राज्य दिल्ली की सत्ता पर विराजमान आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल को चुनाव की सुगन्धित खुशबू जगा गई। विश्वसनीय सूत्रों की मानें तो आम आदमी पार्टी को लगता है कि एक साल से पार्टी की चुप्पी से जनता के बीच उसकी पकड़ कमजोर हुई है चुनाव की आहट सुन आम आदमी पार्टी ने अपना रूख फिर आंदोलन की तरफ कर लिया है।
सन् 2015 के विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक जीत के साथ सत्ता पर विराजमान आप ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जमकर अपनी भड़ास निकाली और फिर चुप्पी साध ली लेकिन अब फिर वक्त की नजाकत को भांपते हुये आप के मुखिया अरविन्द केजरीवाल पार्टी के बड़े नेताओं के साथ राज्यपाल भवन में धरना प्रदर्शन पर बैठ गये। आन्दोलन से उपजी आमआदमी पार्टी की विचारधारा और रणनीति का केन्द्र बिन्दु आन्दोलन ही है। केन्द्र ने भी अरविन्द केजरीवाल की नेतृत्व वाली इस सरकार को प्रड़तारित करने का कोई भी मौका नहीं गवाया। दिल्ली केन्द्र शासित राज्य होने के कारण दोनों सरकारों के बीच टकराव की स्थिति बेहद ही सरलतापूर्वक देखने को मिल जाती है।
फिलहाल देखना यह है कि चुनावी सुगबुगाहाट की मनमोहक गंध से टूटी आप की नींद आगामी चुनावों में कितनी फायदेमंद रहेगी ?

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