“ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में देश को आजादी दिलाने की भावना व प्रेरणा विद्यमान है”

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मनमोहन कुमार आर्य

पांच हजार से कुछ अधिक वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद से देश का तेजी से राजनैतिक, शैक्षिक व सामाजिक पतन होना आरम्भ हो गया था। महाभारत के बाद देश छोटे छोटे राज्यों में विभक्त होता गया। आचार्य चाणक्य और सम्राट विक्रमादित्य के काल में देश में छोटे राज्यों को मिलाकर एक वृहद राज्य का निर्माण किया गया था और सिकन्दर के साथ आये सैनिकों को सन्धि करके भारत से बाहर निकाला गया व उन्हें वापिस उनके देश को भेजा गया था। इसके बाद पुनः विघटन हुआ और देश छोटे छोटे राज्यों में विभक्त होता गया। यह एक प्रकार का राजनैतिक पतन ही कहा जा सकता है। शिक्षा जगत में भी भारत ने कोई उन्नति की हो इसका भी प्रमाण नहीं मिलता। शिक्षा व्यवस्था भी पूर्णतः अव्यवस्थित होने के कारण देश के अधिकांश लोग शिक्षा व इससे जुड़े अनेकानेक विषयों के ज्ञान से वंचित रहते थे। प्राचीन भारतीय परम्परा के गुरुकुल भी देश में समाप्त होते गये। यत्र तत्र कुछ विद्वान होते थे जो धर्म शास्त्रों को पढ़ते थे और वह भी परम्परागत अर्थो को जो कि कुछ सीमा तक त्रुटिपूर्ण व भ्रान्त होते थे, उन्हीं का प्रचलन व व्यवहार करते थे जिससे समाज में अनेक हानिकारक व समाज को कमजोर करने वाली प्रथायें जिसमें मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, सामाजिक भेदभाव वा जन्मना जाति मुख्य हैं, देश में प्रचलित होती गयीं। आज तो मूर्तिपूजा का यह हाल है कि पचास या सौ पूर्व हुए तथाकथित धर्मगुरुओं के चित्रों वा मूर्तियों की पूजा हो रही है जो कि घोर अविद्या है। देश व समाज को कमजोर करने वाले ऐसे कार्यों से देश पर मुगलों का राजनैतिक प्रभाव बढ़ता रहा और देश के बड़े भाग पर उनका शासन हो गया। मुगल शासकों में भी महिला और मदिरा आदिक व्यसन व विलासिता आदि उनके पतन के कारण बनें। इसके साथ ही महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी और गुरु गोविन्द सिंह जी जैसे भारतीय धर्म, संस्कृति व प्राचीन परम्पराओं पर विश्वास रखने वाले वीर राजपुरुषों द्वारा मुगल शासकों की नींद हराम करने के कारण सद्धर्म की रक्षा हुई परन्तु इन वीर पुरुषों के वृद्ध व दिवंगत होने के बाद स्थिति पुनः चिन्ताजनक हो गई। इसी बीच सन् 1800 के बाद से अंग्रेजों ने भी शासन की इच्छा से योजनायें बनाईं और वह छोटे छोटे राजाओं व रिसायतों पर कब्जा करने में सफल होते रहे। अब देश मुगलों के स्थान पर अंग्र्रेजों का गुलाम हो गया। उनके समय में अंग्रेंजी शिक्षा का कुछ विस्तार होना आरम्भ हुआ। अंग्रेजों के राज्य में देश की भोली जनता के साथ शोषण, अन्याय व अत्याचार होता था। इससे त्रस्त जनता में धीरे धीरे जागृति आने लगी।

 

वहीं स्वामी दयानन्द (1825-1883) भी सन् 1863 में वैदिक विद्या में निपुण हुए और उन्होंने वेद धर्म के प्रचार सहित देश से अविद्या दूर करने व समाज में विद्यमान अन्धविश्वास व कुप्रथाओं के निवारण का व्रत लिया। उन्होंने सन् 1863 में गुरु विरजानन्द से मथुरा में विद्या प्राप्त कर वेद व वैदिक सिद्धान्तों और मान्यताओं सहित देश के सत्य इतिहास व वैदिक परम्पराओं का प्रचार आरम्भ कर दिया। स्वामी दयानन्द मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, बाल विवाह, जन्मना जातिवाद, शिक्षा में भेदभाव, स्त्री शिक्षा के आग्रही, दलितों के प्रति छुआ-छूत व भेदभाव का वेद प्रमाणों से निषिद्ध करते थे। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था तथा वेद विद्या से वह पूर्णतः अलंकृत व शोभित थे। उनकी भाषा व भाषण शैली सरल व सहज होती थी जिसे श्रोता समझ लेते थे। इतिहास में शायद पहली बाद अथवा स्वामी शंकराचार्य के बाद दूसरी बार ऐसा विद्वान वक्ता जो वैदिक धर्म व संस्कृत का मर्मज्ञ हो, देश व समाज को मिला था। पठित व बुद्धिमान लोग उनकी बातों पर विश्वास करने लगे। वह स्थान-स्थान पर होने वाले उनके सत्संगों व प्रचार सभाओं में आते थे और उनके विचारों से लाभान्वित होते थे। देश के अनेक राज्यों में जाकर ऋषि दयानन्द ने प्रचार किया। अनेक पादरी भी उनकी बैठकों में आते थे और उनसे अनेक विषयों पर वार्तालाप कर उनकी युक्ति व तर्क संगत बातों को पसन्द करते थे। धीरे-धीरे उनका प्रभाव तीव्र गति से बढ़ता गया। नवम्बर, सन् 1869 में वह काशी के 30 से अधिक पण्डितों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ कर चुके थे जिससे उनकी देश भर और विश्व के कुछ देशों में भी ख्याति पहुंच चुकी थी। प्रो. मैक्समूलर, मोनियर विलियम्स, संत रोमा रोलां आदि उनके विचारों से परिचित व कुछ प्रभावित भी हुए। इस कारण देश को जाग्रत करने में स्वामी दयानन्द जी का महत्वपूर्ण योगदान है।

 

सन् 1874 में स्वामी दयानन्द जी को काशी में राजा जयकृष्णदास, डिप्टी कलेक्टर ने अपने वेद विषयक धार्मिक व सामाजिक विचारों का एक ग्रन्थ तैयार करने की प्रेरणा की थी। इस अनुरोध का परिणाम ही सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का लेखन व प्रकाशन हुआ। भारत का भाग्य बदलने सहित विश्व के सभी धर्म-ग्रन्थों पर प्रभाव डालने में इस ग्रन्थ का महत्वपूर्ण योगदान है। 10 अप्रैल सन् 1875 को आर्यसमाज की स्थापना होने पर यही ग्रन्थ आर्यसमाज का धर्मग्रन्थ व देश व विश्व के सुधार का मुख्य ग्रन्थ बना और आज भी यही ग्रन्थ पूरे विश्व को अनेक प्रकार से प्रभावित कर रहा है। इस ग्रन्थ से लोगों को आध्यात्म वा ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप का बोघ हुआ। वेद व ऋषियों के ग्रन्थों पर आधारित सत्य व ज्ञानपूर्ण सामाजिक परम्पराओं का ज्ञान भी इसी से हुआ। ईश्वर की उपासना क्यों व कैसे की जाती है, इस विषय को भी यह ग्रन्थ अपने अध्येता को बताता है। सभी सामाहिक कुप्रथाओं व मत-मतान्तरों की मिथ्या बातों का खण्डन व सत्य परम्पराओं का प्रकाश भी इस ग्रन्थ से होता है। अनेक विशेषताओं से युक्त इस ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश ने देश की आजादी का मूल मन्त्र भी दिया है। इसका कारण ऋषि दयानन्द का वेद व वैदिक साहित्य का तलस्पर्शी ज्ञान तो है ही, इसके साथ ही सन् 1946 से सन् 1874 व उसके बाद के वर्षों में अंग्रेजों के भेदभाव व अन्यायपूर्ण शासन को उन्होंने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देखा था। देश के युवक, किसान, श्रमिक व कर्मचारी सभी लोग अन्याय, शोषण व अत्याचार का शिकार होते थे। स्वामी दयानन्द जी सन् 1857 की देश को आजाद कराने वाली क्रान्ति के समय 32 वर्ष के युवक थे। उन्होंने अपनी आयु के 22 वर्ष में गृहत्याग करके देश के अनेक स्थानों पर घूमकर लोगों पर अंग्रेज शासकों के अत्याचारों को देखा था। सन् 1857 की क्रान्ति की विफलता व आजादी में सक्रिय लोगों पर अंग्रेजों के जघन्य निकृष्ट अमानवीय अत्याचारों को भी उन्होंने जाना व देखा था। सन् 1857 में उनकी क्या भूमिका थी इसका प्रामाणिक विवरण नहीं मिलता। इतना अवश्य है कि वह इन घटनाओं में उदासीन बने रहे हों, यह सम्भव नहीं है। उन्होंने जो किया होगा वह अविदित इतिहास है। यदि वह सन् 1857 की क्रान्ति की घटनाओं से अछूते रहते तो फिर उन्होंने अपने ग्रन्थों में देश हित मुख्यतः स्वदेशीय राज्य विषयक जिन बातों का उल्लेख किया है, वह न लिखते जैसा कि उनके समकालीन व बाद के अन्य संन्यासियों ने किया।

 

सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में ऋषि दयानन्द ने लिखा है अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों (अंग्रेजों अन्यों) के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्नभिन्न भाषा, पृथक्पृथक् शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। विना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय (देश की आजदी, धार्मिक, शारीरिक, सामाजिक एवं भौतिक उन्नति का) सिद्ध होना कठिन है। इसलिये जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था वा इतिहास लिखे हैं उसी का मान्य करना भद्रपुरुषों का काम है।

स्वामी जी ने इन पंक्तियों में स्पष्टतः स्वदेशी राज्य को सर्वोपरि उत्तम कहा है और सभी प्रकार की अच्छाईयों से युक्त विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं है, इसकी भी निर्णायक घोषणा की है। यह पंक्तियां सत्यार्थप्रकाश के दूसरे संस्करण में कही गईं हैं जिसका प्रकाशन उनकी मृत्यु के कुछ काल बाद हुआ। ऋषि के जीवनकाल में ही सत्यार्थप्रकाश का ग्यारहवां समुल्लास व उसके पूर्व के भी सभी समुल्लास छप चुके थे और उसकी कुछ प्रतियां कुछ लोगों तक पहुंच गई थीं। ऋषि दयानन्द जी के यह शब्द अवश्य अंग्रेजों को चुभने वाले थे। इसके बाद एक प्रसंग और है जहां ऋषि दयानन्द ने मूर्तिपूजा के प्रसंग में देशवासियों को देश को आजाद कराने की प्रेरणा की है। एकादश समुल्लास में स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है जब संवत् 1914 (सन् 1857) के वर्ष में तोपों के मारे (द्वारिका के श्रीकृष्ण जी के) मन्दिर की मूर्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थीं तब मूर्ति (वा उसकी शक्ति) कहां गई थीं? प्रत्युत बाघेर लोगों (द्वारिका के स्थानीय लोग) ने जितनी वीरता की और लड़े शत्रुओं को मारा परन्तु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी तोड़ सकी। जो श्रीकृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके (अंगरेजों के) धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिस का रक्षक मार खाये उस के शरणागत क्यों पीटे जायें?’ यह घटना भी अंग्रेजों को अवश्य चुभी होगी। आर्यसमाज के विद्वान आदित्य मुनि का अनुमान है कि यही पंक्तियां स्वामी जी की मृत्यु का कारण हुईं वा हो सकती हैं।

इस प्रकार स्वामी दयानन्द जी ने अंग्रेजों के राज्य में स्वदेशी राज्य को उत्तम बताया और विदेशी राज्य को हेय बताकर आजादी के आन्दोलन का श्रीगणेश कर दिया था। यह बात और है कि यह आन्दोलन आर्यसमाज ने नहीं क्रान्तिकारियों और कांग्रेस के लोगों ने देश, काल व परिस्थितियों के अनुसार चलाया। यह भी तथ्य है कि आजादी के आन्दोन में सबसे अधिक लोग आर्यसमाज के अनुयायी थे जो सत्यार्थप्रकाश और ऋषि दयानन्द के विचारों से प्रभावित थे। स्वामी दयानन्द भारतीयों को यह भी अहसास कराते हैं कि मुगल बादशाहों ने भी अकारण हमारे पूर्वजों व हमारे धर्म का अपमान किया। सन् 1875 में प्रकाशित सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्करण में वह लिखते हैं ‘फिर दिल्ली में औरंगजेब एक बादशाह हुआ था। उसने मथुरा, काशी, अयोध्या और अन्य स्थान में भी जा-जा कर मन्दिर और मूर्तियों को तोड़ डाला और जहां-जहां बड़े-बड़े मन्दिर थे, उस-उस स्थान पर अपनी मस्जिद बना दी।’ सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्करण में ही एक ही स्थान पर ऋषि दयानन्द अंग्रेजों की प्रशंसा और आलोचना भी एक साथ करते हुए कहते हैं जैनियों और मुसलमानों ने इस देश को बहुत बिगाड़ा है सो आज तक बिगड़ता ही जाता है। आजकल अंगरेजों का राज्य होने से उन राजाओं के राज्य से कुछ सुख हुआ है क्योंकि अंगरेज लोग मतमतान्तर की बात में हाथ नहीं डालते और जिस पुस्तक के सौ रुपये लगते थे, उस पुस्तक के मुद्रित होने से पांच रुपयों में मिलता है। परन्तु अंग्रेजों से भी एक काम अच्छा नहीं हुआ जो कि चित्रकूट पर्वत पर महाराज अमृतराय जी के पुस्तकालय को जला दिया। उस पुस्तकालय में करोड़ो रुपये की लाखों अच्छी अच्छी पुस्तकें नष्ट कर दीं।’ (सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास)

 

अंग्रेजों ने नमक और जंगली घांस व जलाने की लकड़ी पर नोन और पौन रोटी कर लगाया था। सन् 1874 में ऋषि दयानन्द ने इस कर का विरोध किया। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में लिखा कि नोन और पौंन रोटी में जो कर लिया जाता है वह मुझको अच्छा नहीं मालूम देता क्योंकि नोन के विना दरिद्र का भी निर्वाह नहीं होता किन्तु सबको नोन का आवश्यक होता है। और वे मजदूरी मेहनत से जैसे तैसे निर्वाह करते हैं, उनके ऊपर भी यह नोन का कर दण्ड तुल्य रहता है। इससे दरिद्रों को क्लेश पहुंचता है। यदि मद्य, अफीम, गांजा, भांग इनके ऊपर चौगुना कर स्थापन हो तो अच्छी बात है क्योंकि नशादिकों का घटना ही अच्छा है और जो मद्यादिक बिलकुछ छूट जायं तो मनुष्यों का बड़ा भाग्य है क्योंकि नशा करने से किसी को कुछ उपकार नहीं होता। परन्तु रोगनिवृत्ति के वास्ते औषधार्थ तो मद्यादिकों की प्रवृत्ति रहना चाहिये, क्योंकि बहुत से ऐसे रोग हैं कि जिनके मद्यादिक ही निवृत्तिकारक औषध हैं। …. जितने नशा करनेवाले पदार्थ हैं वे सब बुद्धि आदि के नाशक हैं। इससे इनके ऊपर कर लगाना चाहिये और लवणादि के ऊपर चाहिये।वह आगे लिखते हैंपौन रोटी से भी गरीब लोगों को बहुत क्लेश होता है, क्योंकि गरीब लोग कहीं से घास छेदन करके ले आयें वा लकड़ी का भार, उनके ऊपर कौड़ियों के लगने से उनको अवश्य क्लेश होता होगा। इससे पौन रोटी का जो कर स्थापन करना सो भी हमारी समझ से अच्छा नहीं। अंग्रेजों ने भूमि व भवन आदि की रजिस्ट्री आदि पर लगने वाले स्टैम्प पेपर व मुकदमों में लगने वाली कोर्ट फी पर भी कर वा व्यय बढ़ा दिया था। इसका भी ऋषि दयानन्द ने इसी समुल्लास में विरोध किया है। उन्होंने इस प्रसंग में यह भी लिखा है कि थाने से लेके आगेआगे धन का ही खर्च देख पड़ता है, न्याय होना तो पीछे। ऐसे अनेक स्थल हैं जहां वह अंग्रेजों की आलोचना करते हैं।

 

आर्याभिविनय ऋषि दयानन्द जी की प्रमुख कृतियों में से एक है। यह ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना का पुस्तक है। इस पुस्तक में प्रथम मंत्र की व्याख्या में ईश्वर को साम्राज्यप्रसारक कह कर स्तुतिकर्ता को साम्राज्य प्रदान करने व उसका प्रसार करने की उनकी भावना निहित है। ईश्वर को राज्यविधायक व शत्रुविनाशक शब्दों से भी सम्बोधित किया गया है। इन विशेषणों में भी ईश्वर से स्तुतिकर्ता वेदभक्तों को राज्य देने व शत्रुओं का विनाश करने की भावना निहित है। अपने ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में ऋषि दयानन्द ने एक स्थान पर लिखा है हम सब लोग परम प्रीति से मिलकर सब से उत्तम ऐश्वर्य अर्थात् चक्रवर्ती राज्य आदि सामग्री से आनन्द को आपके अनुग्रह से सदा भोंगे। यहां भी वह देशवासियों वा अपने अनुयायियों को उत्तम ऐश्वर्य से युक्त चक्रवर्ती राज्य की स्थापना की प्रेरणा करते हुए प्रतीत हो रहे हैं। आर्याभिविनय के प्रथम मंत्र में ही उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा है ‘अन्य अन्य से प्रीति से परम वीर्य पराक्रम से निष्कण्टक चक्रवर्ती राज्य भोगें।’ यदि वह अंग्रेजों के राज्य से सन्तुष्ट होते और उन्हें अपने लिये व अपने अनुयायियों के लिए अच्छा मानते तो उनके लेखों में चक्रवर्ती राज्य की कामना न होती। वह देश को आर्यों का चक्रवर्ती राज्य बनाने की बातें न करते। इसका तात्पर्य यही है कि वह देश को स्वतन्त्र कर विश्व का चक्रवर्ती राज्य बनाना चाहते थे जैसा कि यह देश सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध पर्यन्त रहा है। आर्याभिविनय के अन्तिम मन्त्र की व्याख्या में भी ऋषि दयानन्द लिखते हैं हे महाविद्य महाराज सर्वेश्वर! मेरा विद्वान और राजा महाचतुर न्यायकारी शूरवीर राजा आदि ये दोनों आपकी अनन्त कृपा से यथावत् अनुकूल हों। सर्वोत्तम विद्यादिलक्षणयुक्त महाराज्यश्री को हम प्राप्त हों। यहां भी ऋषि दयानन्द ईश्वर से महाराज्य रूपी ऐश्वर्य को प्रदान करने की प्रार्थना कर रहे हैं।

 

ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों से हमने जो उपरोक्त उद्धरण दिये हैं उनमें वह देश के स्वतन्त्र होने सहित उसके चक्रवर्ती राज्य होने वा बनने के प्रति जागरुक दीखते हैं और अपने ग्रन्थों के पाठकों को भी वैसा ही बनाना चाहते हैं। ऋषि दयानन्द के समय में उपलब्ध अन्य समस्त साहित्य में इस प्रकार का वर्णन कहीं उपलब्ध नहीं होता है। वह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने स्पष्टतः अंग्र्रेजी राज्य का विरोध किया जिससे देशवासियों को देश को आजाद कराने की प्रेरणा मिली। उनके प्रायः सभी अनुयायी देश की आजादी के स्वप्नद्रष्टा थे और अधिकांश ने देश की आजादी में सक्रिय भूमिका निभाई। स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, पं. राम प्रसाद बिस्मिल, शहीद भगत सिंह का परिवार आदि सभी ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के अनुयायी थे। यह भी बता दें कि नरम व गरम दोनों दलों के आद्य नेता ऋषि दयानन्द की शष्य परम्परा में थे। गोपाल कृष्ण गोखले कांग्रेस के प्रमुख नेता थे जो महादेव गोविन्द रानाडे के शिष्य थे। गांधी जी गोपाल कृष्ण गोखले जी के शिष्य थे। महादेव रानाडे ऋषि दयानन्द के साक्षात् शिष्य थे। क्रान्तिकारियों के आद्य गुरु पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा भी स्वामी दयानन्द जी के साक्षात शिष्य थे। इस प्रकार नरम व गरम दोनों दलों के नेताओं पर स्वामी दयानन्द का प्रभाव परिलक्षित होता है। सन् 1947 में देश आजाद हुआ और इसका विभाजन भी हुआ। यदि देश के लोगों ने ऋषि दयानन्द के विचारों को समग्रता से अपना लिया होता तो देश का विभाजन न होता और देश विश्व की एक महाशक्ति होता। हमने ऋषि दयानन्द के जो विचार प्रस्तुत किये हैं उनसे वह स्वतन्त्रता व स्वदेशीय राज्य के प्रथम व प्रबल पक्षधर सिद्ध होते हैं। उन्होंने अपने प्राणों की चिन्ता न करके अंग्र्रेजों के दमनकारी शासन काल में उनकी आलोचना की। अनुमान है कि उनके इन कार्यों के कारण ही उनकी हत्या का षडयन्त्र हुआ और वह 58-59 वर्ष की आयु में ही संसार से विदा हो गये।

 

वेद एवं वैदिक साहित्य जिसमें मनुस्मृति जैसे राजनीति विषयक ग्रन्थ भी सम्मलित हैं, अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि इन ग्रन्थों में किसी देश को अकारण गुलाम बनाने की भावना व प्रेरणा नहीं है। मनुस्मृति ग्रन्थ किसी देश को गुलाम बनाने का विधान नहीं करता। हां, हमारे देश का महाभारत युद्ध पर्यन्त विश्व में चक्रवर्ती राज्य था। संसार के अन्य देशों के राजा माण्डलिक राजा होते थे। वह भारत को कर देते थे और भारत उनकी उन्नति व उनके कल्याण का कार्य करता था। रामायण काल में भी जब रावण आर्यावर्त्त व कौशल राज्य के विरुद्ध हो गया तो रामचन्द्र जी ने उसे दण्डित कर वहां स्वयं राज न करे रावण के अनुज विभीषण को राजा बनाया था। इस दृष्टि से भी वेद व वैदिक मान्यतायें ही संसार में सुख, कल्याण व शान्ति की स्थापना कर सकती हैं। वेद के अतिरिक्त संसार का कोई ग्रन्थ व देश ऐसा नहीं कर सकता।

 

 

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