द्वारिकापुरी की कहानी

 डा. राधेश्याम द्विवेदी

माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्वरम में विश्राम करते हैं।भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों के लिए केवल मथुरा-वृंदावन ही नहीं, बल्कि पश्चिम दिशा में स्थित द्वारिकापुरी भी एक पवित्र तीर्थ स्थल है। मथुरा ने निकलकर भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका क्षेत्र में पहले से स्थापित खंडहर बने नगर में एक नया नगर बसाया। भगवान कृष्ण ने अपने पूर्वजों की भूमि को फिर से रहने लायक बनाया। सनातन धर्मग्रंथों के अनुसार इस नगरी को 5000 साल पहले भगवान श्रीकृष्ण ने बसाया था, यह उनकी कर्मभूमि है। कृष्ण मथुरा में पैदा हुए पर वहां के लोगों को कंस के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने द्वारिकापुरी नामक सुंदर, सुव्यवस्थित और शांतिपूर्ण नगर का निर्माण किया। फिर उन्होंने पांडवों को सहारा दिया और महाभारत के युद्ध में धर्म को विजय दिलाई। उस काल में द्वारिकापुरी भगवान श्रीकृष्ण की राजधानी थी। जिस स्थान पर उनका निजी महल और हरिगृह था, वहां आज द्वारकाधीश मंदिर है। इसलिए कृष्ण भक्तों की दृष्टि में यह एक महान तीर्थ है। वैसे भी द्वारका नगरी आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित देश के चारों धाम में से एक है। यही नहीं, द्वारका नगरी पवित्र सप्तपुरियों में से भी एक है। मंदिर का वर्तमान स्वरूप 16 सदी में प्राप्त हुआ। द्वारकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चांदी के सिंहासन पर भगवान कृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुज प्रतिमा विराजमान है। यहां उन्हें ‘रणछोड़जी’ भी कहा जाता है। भगवान हाथ में शंख, चक्र, गदा और कमल लिए हुए हैं। बहुमूल्य आभूषणों और सुंदर वेशभूषा से श्रृंगार की गई प्रतिमा सभी को आकर्षित करती है। मंदिर से जुड़ी कथा :- द्वारिकापुरी स्थित मंदिर के बारे में ऐसी मान्यता प्रचलित है कि मूल मंदिर का निर्माण भगवान कृष्ण के प्रपौत्र वज्रभान ने करवाया था। मंदिर को वर्तमान स्वरूप 16वीं शताब्दी में दिया गया था। इस मंदिर से 2 किमी. की दूरी पर रुक्मिणी देवी का मंदिर है, जिसकी स्थापत्य कला अतुलनीय है। यह मंदिर एक परकोटे से घिरा है, जिसमें चारों ओर कई द्वार हैं। इसकी उत्तर दिशा में मोक्ष-द्वार तथा दक्षिण में प्रमुख स्वर्ग-द्वार स्थित है। इस सातमंजि़ला मंदिर का शिखर 235 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जिस पर करीब 84 फुट ऊंची बहुरंगी धर्म-ध्वजा फहराती रहती है। द्वारकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चांदी के सिंहासन पर भगवान श्रीकृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है, जिसमें वह अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किए हुए हैं। ऐसी मान्यता है कि मथुरा में कंस के हिंसक व्यवहार से लोगों को बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण समस्त ग्रामवासियों और गउओं को अपने साथ लेकर द्वारिकापुरी की ओर प्रस्थान कर गए थे। इसी वजह से उनके भक्तजन उन्हें प्यार से ‘रणछोड़ जी’ कह कर बुलाते हैं।

भेंट द्वारिका :- भेंट द्वारिका ही वह पवित्र स्थल है, जहां भगवान ने अपने प्रिय भक्त नरसी को धन-धान्य से पूर्ण कर दिया था। वर्षों बाद भगवान श्रीकृष्ण अपने बाल-सखा सुदामा से दोबारा यहीं मिले थे। इसी वजह से इस स्थल का नाम ‘भेंट द्वारिका पड़ा। इस मंदिर का अपना अन्न क्षेत्र है। यहां आने वाले भक्त जन ब्राह्मणों को दान स्वरूप चावल देते हैं। रेल या वायुमार्ग से यहां तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां यात्रियों के ठहरने के लिए आरामदेह धर्मशालाएं और होटल मौज़ूद हैं। आने वाले पर्यटक अपने साथ शंख और सीपियों से बने आभूषण ज़रूर ले जाते हैं। समुद्र तट से निकट होने के कारण जून में यहां का मौसम सुहावना हो जाता है ।

अन्य दर्शनीय स्थल :- द्वारका के आसपास स्थित अन्य दर्शनीय स्थलों में गोमती के नौ घाट, सांवलियां जी का मंदिर, गोवर्धन नाथ जी का मंदिर और संगम घाट है। इसके उत्तर में समुद्र के ऊपर एक और घाट है, जिसे चक्रतीर्थ कहा जाता है। यहां आने वाले भक्तजन भेंट द्वारिका के दर्शन करने अवश्य जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस स्थल के दर्शन किए बिना यह तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं मानी जाती। यहां जल या सड़क मार्ग के ज़रिये आसानी से पहुंचा जा सकता है। इसी तीर्थ के रास्ते में गोपी तालाब भी पड़ता है, जिसकी पीली मिट्टी को गोपी चंदन कहा जाता है।

गांधारी के श्राप से द्वारिकापुरी समुद्र में विलीन हो गई :- धार्मिक महत्ता के साथ इस नगर के साथ कई रहस्य भी जुड़े हुए हैं। समस्त यदुवंशियों के मारे जाने और द्वारिका के समुद्र में विलीन होने के पीछे मुख्य रूप से दो घटनाएं जिम्मेदार है। एक माता गांधारी द्वारा श्री कृष्ण को दिया गया श्राप और दूसरा ऋषियों द्वारा श्री कृष्ण पुत्र सांब को दिया गया श्राप। भगवान विष्णु के श्रीकृष्ण अवतार की समाप्ति के साथ ही पृथ्वी पर उनकी बसाई हुई यह नगरी समुद्र में डूब गई। ऐसी मान्यता है कि कौरवों के पिता महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने भगवान श्रीकृष्ण को यह शाप दिया था कि जैसे मेरे कौरव कुल का नाश हो गया है, वैसे ही समस्त यदुवंश भी नष्ट हो जाएगा। इसी वजह से महाभारत युद्ध के बाद द्वारिकापुरी समुद्र में विलीन हो गई। समुद्र में हजारों फीट नीचे द्वारका नगरी के अवशेष मिले हैं। श्री कृष्ण की नगरी द्वारिका महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात समुद्र में डूब जाती है। द्वारिका के समुद्र में डूबने से पूर्व श्री कृष्ण सहित सारे यदुवंशी भी मारे जाते है।

ऋषियों ने दिया था सांब को श्राप :– महाभारत युद्ध के बाद जब छत्तीसवां वर्ष आरंभ हुआ तो तरह-तरह के अपशकुन होने लगे। एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व, देवर्षि नारद आदि द्वारका गए। वहां यादव कुल के कुछ नवयुवकों ने उनके साथ परिहास (मजाक) करने का सोचा। वे श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री वेष में ऋषियों के पास ले गए और कहा कि ये स्त्री गर्भवती है। इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा? ऋषियों ने जब देखा कि ये युवक हमारा अपमान कर रहे हैं तो क्रोधित होकर उन्होंने श्राप दिया कि- श्रीकृष्ण का यह पुत्र वृष्णि और अंधकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए एक लोहे का मूसल उत्पन्न करेगा, जिसके द्वारा तुम जैसे क्रूर और क्रोधी लोग अपने समस्त कुल का संहार करोगे। उस मूसल के प्रभाव से केवल श्रीकृष्ण व बलराम ही बच पाएंगे। श्रीकृष्ण को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कहा कि ये बात अवश्य सत्य होगी। मुनियों के श्राप के प्रभाव से दूसरे दिन ही सांब ने मूसल उत्पन्न किया। जब यह बात राजा उग्रसेन को पता चली तो उन्होंने उस मूसल को चुरा कर समुद्र में डलवा दिया। इसके बाद राजा उग्रसेन व श्रीकृष्ण ने नगर में घोषणा करवा दी कि आज से कोई भी वृष्णि व अंधकवंशी अपने घर में मदिरा तैयार नहीं करेगा। जो भी व्यक्ति छिपकर मदिरा तैयार करेगा, उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। घोषणा सुनकर द्वारकावासियों ने मदिरा नहीं बनाने का निश्चय किया। इसके बाद द्वारका में भयंकर अपशकुन होने लगे। प्रतिदिन आंधी चलने लगी। चूहे इतने बढ़ गए कि मार्गों पर मनुष्यों से ज्यादा दिखाई देने लगे। वे रात में सोए हुए मनुष्यों के बाल और नाखून कुतरकर खा जाया करते थे। सारस उल्लुओं की और बकरे गीदड़ों की आवाज निकालने लगे। गायों के पेट से गधे, कुत्तियों से बिलाव और नेवलियों के गर्भ से चूहे पैदा होने लगे। उस समय यदुवंशियों को पाप करते शर्म नहीं आती थी।

अंधकवंशियों के हाथों मारे गए थे प्रद्युम्न :– जब श्रीकृष्ण ने नगर में होते इन अपशकुनों को देखा तो उन्होंने सोचा कि कौरवों की माता गांधारी का श्राप सत्य होने का समय आ गया है। इन अपशकुनों को देखकर तथा पक्ष के तेरहवें दिन अमावस्या का संयोग जानकर श्रीकृष्ण काल की अवस्था पर विचार करने लगे। उन्होंने देखा कि इस समय वैसा ही योग बन रहा है जैसा महाभारत के युद्ध के समय बना था। गांधारी के श्राप को सत्य करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण ने यदुवंशियों को तीर्थयात्रा करने की आज्ञा दी। श्रीकृष्ण की आज्ञा से सभी राजवंशी समुद्र के तट पर प्रभास तीर्थ आकर निवास करने लगे। प्रभास तीर्थ में रहते हुए एक दिन जब अंधक व वृष्णि वंशी आपस में बात कर रहे थे। तभी सात्यकि ने आवेश में आकर कृतवर्मा का उपहास और अनादर कर दिया। कृतवर्मा ने भी कुछ ऐसे शब्द कहे कि सात्यकि को क्रोध आ गया और उसने कृतवर्मा का वध कर दिया। यह देख अंधकवंशियों ने सात्यकि को घेर लिया और हमला कर दिया। सात्यकि को अकेला देख श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न उसे बचाने दौड़े। सात्यकि और प्रद्युम्न अकेले ही अंधकवंशियों से भिड़ गए। परंतु संख्या में अधिक होने के कारण वे अंधकवंशियों को पराजित नहीं कर पाए और अंत में उनके हाथों मारे गए।

श्रीकृष्ण ने यदुवंशियों के नाश के बाद अर्जुन को बुलवाया था : – अपने पुत्र और सात्यकि की मृत्यु से क्रोधित होकर श्रीकृष्ण ने एक मुट्ठी एरका घास उखाड़ ली। हाथ में आते ही वह घास वज्र के समान भयंकर लोहे का मूसल बन गई। उस मूसल से श्रीकृष्ण सभी का वध करने लगे। जो कोई भी वह घास उखाड़ता वह भयंकर मूसल में बदल जाती (ऐसा ऋषियों के श्राप के कारण हुआ था)। उन मूसलों के एक ही प्रहार से प्राण निकल जाते थे। उस समय काल के प्रभाव से अंधक, भोज, शिनि और वृष्णि वंश के वीर मूसलों से एक-दूसरे का वध करने लगे। यदुवंशी भी आपस में लड़ते हुए मरने लगे। श्रीकृष्ण के देखते ही देखते सांब, चारुदेष्ण, अनिरुद्ध और गद की मृत्यु हो गई। फिर तो श्रीकृष्ण और भी क्रोधित हो गए और उन्होंने शेष बचे सभी वीरों का संहार कर डाला। अंत में केवल दारुक (श्रीकृष्ण के सारथी) ही शेष बचे थे। श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा कि तुम तुरंत हस्तिनापुर जाओ और अर्जुन को पूरी घटना बता कर द्वारका ले आओ। दारुक ने ऐसा ही किया। इसके बाद श्रीकृष्ण बलराम को उसी स्थान पर रहने का कहकर द्वारका लौट आए।

बलरामजी के स्वधाम गमन के बाद की घटनायें :- द्वारका आकर श्रीकृष्ण ने पूरी घटना अपने पिता वसुदेवजी को बता दी। यदुवंशियों के संहार की बात जान कर उन्हें भी बहुत दुख हुआ। श्रीकृष्ण ने वसुदेवजी से कहा कि आप अर्जुन के आने तक स्त्रियों की रक्षा करें। इस समय बलरामजी वन में मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, मैं उनसे मिलने जा रहा हूं। जब श्रीकृष्ण ने नगर में स्त्रियों का विलाप सुना तो उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि शीघ्र ही अर्जुन द्वारका आने वाले हैं। वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। ये कहकर श्रीकृष्ण बलराम से मिलने चल पड़े। वन में जाकर श्रीकृष्ण ने देखा कि बलरामजी समाधि में लीन हैं। देखते ही देखते उनके मुख से सफेद रंग का बहुत बड़ा सांप निकला और समुद्र की ओर चला गया। उस सांप के हजारों मस्तक थे। समुद्र ने स्वयं प्रकट होकर भगवान शेषनाग का स्वागत किया। बलरामजी द्वारा देह त्यागने के बाद श्रीकृष्ण उस सूने वन में विचार करते हुए घूमने लगे। घूमते-घूमते वे एक स्थान पर बैठ गए और गांधारी द्वारा दिए गए श्राप के बारे में विचार करने लगे। देह त्यागने की इच्छा से श्रीकृष्ण ने अपनी इंद्रियों का संयमित किया और महायोग (समाधि) की अवस्था में पृथ्वी पर लेट गए।

श्रीकृष्ण परमधाम गमन :- जिस समय भगवान श्रीकृष्ण समाधि में लीन थे, उसी समय जरा नाम का एक शिकारी हिरणों का शिकार करने के उद्देश्य से वहां आ गया। उसने हिरण समझ कर दूर से ही श्रीकृष्ण पर बाण चला दिया। बाण चलाने के बाद जब वह अपना शिकार पकडऩे के लिए आगे बढ़ा तो योग में स्थित भगवान श्रीकृष्ण को देख कर उसे अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। तब श्रीकृष्ण को उसे आश्वासन दिया और अपने परमधाम चले गए। अंतरिक्ष में पहुंचने पर इंद्र, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, वसु, मुनि आदि सभी ने भगवान का स्वागत किया। इधर दारुक ने हस्तिनापुर जाकर यदुवंशियों के संहार की पूरी घटना पांडवों को बता दी। यह सुनकर पांडवों को बहुत शोक हुआ। अर्जुन तुरंत ही अपने मामा वसुदेव से मिलने के लिए द्वारका चल दिए। अर्जुन जब द्वारका पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर उन्हें बहुत शोक हुआ। श्रीकृष्ण की रानियां उन्हें देखकर रोने लगी। उन्हें रोता देखकर अर्जुन भी रोने लगे और श्रीकृष्ण को याद करने लगे। इसके बाद अर्जुन वसुदेवजी से मिले। अर्जुन को देखकर वसुदेवजी बिलख-बिलख रोने लगे। वसुदेवजी ने अर्जुन को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाते हुए कहा कि द्वारका शीघ्र ही समुद्र में डूबने वाली है अत: तुम सभी नगरवासियों को अपने साथ ले जाओ।

श्रीकृष्ण के परिजनों को अर्जुन अपने साथ ले गए :– वसुदेवजी की बात सुनकर अर्जुन ने दारुक से सभी मंत्रियों को बुलाने के लिए कहा। मंत्रियों के आते ही अर्जुन ने कहा कि मैं सभी नगरवासियों को यहां से इंद्रप्रस्थ ले जाऊंगा, क्योंकि शीघ्र ही इस नगर को समुद्र डूबा देगा। अर्जुन ने मंत्रियों से कहा कि आज से सातवे दिन सभी लोग इंद्रप्रस्थ के लिए प्रस्थान करेंगे इसलिए आप शीघ्र ही इसके लिए तैयारियां शुरू कर दें। सभी मंत्री तुरंत अर्जुन की आज्ञा के पालन में जुट गए। अर्जुन ने वह रात श्रीकृष्ण के महल में ही बिताई। अगली सुबह श्रीकृष्ण के पिता वसुदेवजी ने प्राण त्याग दिए। अर्जुन ने विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार किया। वसुदेवजी की पत्नी देवकी, भद्रा, रोहिणी व मदिरा भी चिता पर बैठकर सती हो गईं। इसके बाद अर्जुन ने प्रभास तीर्थ में मारे गए समस्त यदुवंशियों का भी अंतिम संस्कार किया। सातवे दिन अर्जुन श्रीकृष्ण के परिजनों तथा सभी नगरवासियों को साथ लेकर इंद्रप्रस्थ की ओर चल दिए। उन सभी के जाते ही द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई। ये दृश्य देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ।

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