समाज की सोच बदलने लगी है

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26 मई मोदी सरकार के दो वर्ष पूर्ण होने पर विशेष आलेख

 

हिन्दुस्तान का आज जो परिदृश्य है, उसकी कल्पना करना दो वर्ष पहले मुश्किल ही नहीं बेमानी था. भय और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार से आम आदमी निराश हो चुका था. ऐसे में इस कीचड़ रूपी दृश्य में कमल सा मुस्कराता हुआ, पंख फैलाये नरेन्द्र मोदी का उदय होता है. अपनी विशिष्ट भाषा शैली और आम आदमी के सपनों को साकार करने का संकल्प लिए दो वर्ष पहले जब चुनाव मैदान में उतरता है तो लोगों को यकिन नहीं होता कि हिन्दुस्तान का इतिहास बदलने वाला है. मोदी ने चुनाव के दरम्यान बड़े-बड़े वायदे किए और कहा कि अच्छे दिन आएंंगे. लोगों ने उनकी बातों पर भरोसा कर अपना वोट दिया. संभवत: हिन्दुस्तान के इतिहास में इतनी बड़ी जीत हासिल करने वाले इक्का-दुक्का मौके में मोदी शामिल हैं. पराजय और निराशा में डूबे राजनीतिक दलों के पास कोई विकल्प शेष नहीं रह गया था. ऐसे में वे बार बार मोदी सरकार को याद दिलाते रहे कि उनके वायदों का क्या हुआ? अच्छे दिन कब आएंगे? जैसे मोदीजी प्रधानमंत्री नहीं हुए, अलादीन के चिराग हो गए कि पलक झपकते ही हिन्दुस्तान को समस्या मुक्त कर देंगे. मोदी ही नहीं, बहुमत से चुनी सरकार से किए गए वायदों को पूरी किए जाने की उम्मीद रखना गलत नहीं है लेकिन वायदों को पूरा करने के लिए समय देना भी जरूरी है.

सच तो यह है कि मोदी विरोधियों ने उन्हें हिन्दी फिल्म नायक का हीरो मान लिया था जो चौबीस घंटे में ऐसे फैसले लेता है जिससे आम आदमी की जिंंदगी में न केवल बड़ा बदलाव आता है बल्कि भ्रष्टाचारियों को जेल का मुंह देखना होता है. मोदीजी किसी फिल्म के हीरो नहीं हैं और रील और रियल लाइफ में बड़ा अंतर होता है. यह भी कि मोदी जी 24 घंटे के प्रधानमंत्री नहीं हैं बल्कि वे पांच साल के लिए निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं. खैर, यह जो कुछ हो रहा है, वह तो होना ही था. लेकिन बदलाव की जो बयार बही है, उसे भी देखना जरूरी है. दो साल के मोदी सरकार के कार्यकाल की सफलताएं आसमान चूमने वाली नहीं भी हैं तो इतनी छोटी भी नहीं है कि उसकी लहरें लोगों को महसूस ना हों. हिन्दुस्तान के नागरिक आजादी के बाद से ही सबकुछ रियायती दरों में पाने के आदी हो गए थे. यह भी ठीक है कि पराधीन भारत के आजाद होने के बाद लोगों को रियायत देना जरूरी था क्योंकि आर्थिक रूप से देश का बड़ा हिस्सा कमजोर था. आगे चलकर सम्पन्न लोगों को भी हर चीज रियायत दर पर चाहिए थी और वे अपने रसूख से यह हासिल कर रहे थे. इसका नुकसान यह हो रहा था कि जिन जायज लोगों को इसका हक चाहिए, वे मजबूरी में जीवन गुजार रहे थे. ऐसे में मोदी सरकार ने सबसे पहले सबसिडी नाम के राक्षस पर नियंत्रण पाने की पहल की. रसूखदारों से गैस सबसिडी की सुविधा छीन ली. बदले में उन लोगों को गैस दिया जाने लगा जो वास्तविक हकदार थे. नागरिक सुविधाओं को बढ़ाने में मोदी सरकार का जोर बढ़ा लेकिन उनके लिए जो आर्थिक रूप से अक्षम हैं. बीमा के नाम पर जो लूट की दुकानें खुली थी उस पर लगाम लगाते हुए 330 की मामूली राशि में साल भर का बीमा और ऐसे ही छोटी सी राशि में दुर्घटना बीमा कर करोड़ों गरीब भारतीयों को राहत पहुंचायी. मोदी सरकार के इस जननीति कदम से एक बड़े वर्ग को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा जिससे वे मोदी के खिलाफ हो गए. यह अस्वाभाविक भी ना था. पंूजीपतियों पर नकेल डालने, छोटे उद्योगाों को बढ़ावा देने, टैक्स चोरी रोकने जैसे बड़े फैसलों ने मोदी विरोधियों का घेरा बड़ा कर दिया. पूर्ववर्ती सरकारों के फैसलों की समीक्षा करना मोदी सरकार का अधिकार था सो किया तो पता चला कि निजी हित के लिए कई बड़े फैसले जनविरोधी हैं.

भारत की जनसंख्या अरबों में हैं लेकिन जागरूकता शायद लाखों में नहीं हैं. अपना देश का राग अलापने वालों की कमी नहीं लेकिन देश की छवि कैसे बने, इस पर कोई अमल नहीं किया गया. महात्मा गांधी जीवन भर लोगों को स्वच्छता का पाठ पढ़ाते रहे लेकिन गांधीजी को मानने वालों ने गांधीजी के कहे को कभी नहीं माना. परिणामस्वरूप अस्वच्छता भारतीय समाज में कोढ़ की तरह पनपती रही. दो साल के प्रयासों के बाद मोदी सरकार ने स्वच्छता अभियान का जो अलख जगाया, वह लोगों की सोच बदलने में कामयाब रही. मोदी सरकार के समर्थकों में युवा वर्ग की तादात सबसे अधिक है, सो उन्होंने मोदी सरकार की स्वच्छता अभियान को सराहा और अपनी सोच बदली. सोच बदलने में युवा वर्ग ही नहीं, वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें अक्षर ज्ञान भी नहीं है. राजनांदगांव जिले के एक छोटे से गांव की वृद्धा जिसके जीवनयापन का जरिया ही बकरी थी. उसने बकरियों को बेचकर शौचालय बनाया. पूरी दुनिया गवाह थी जब देश का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भरी सभा में सम्मान के साथ वृद्धा का चरण स्पर्श करते हैं. सवाल यह है कि दो साल में इतनी बड़ी बदली सोच को आप वैसे ही गुम हो जाने देंगे?

यह बात भी सच है कि दो वर्षों में मोदी सरकार ने मूल्यों पर पूर्ण नियंत्रण पाने में वैसी कामयाब नहीं रही, जैसा कि लोगों ने उम्मीद की थी. मुनाफाखोरों ने सोचा था कि यह सरकार उनकी है और चाहे जैसा करेंगे, सब माफ होगा. यह उनकी भूल साबित हुई. दालों की कीमतों में अनावश्यक बढ़ोत्तरी के बाद केन्द्र सरकार ने जो शिकंजा कसा तो सबसे होश उड़ गए. जो दाम आसमान छू रहे थे, वह काबू में आ गए हैं लेकिन अभी जरूरत के मुुताबिक आना बाकि है. यह भी नहीं है कि मोदी सरकार का हर कदम कामयाबी का कदम है लेकिन निराश होने की जरूरत नहीं है. मोदी सरकार की कामयाबी देखने के लिए आपको वक्त देना होगा, वैसा ही जैसा आपने वोट देकर उन पर भरोसा किया. वक्त से पहले उम्मीद करना शायद अनुचित होगा. दो साल में लोगों की सोच में बदलाव देख रहे हैं. आने वाला तीन साल अच्छे दिनों के साथ लौटेगा, यह उम्मीद बनाकर रखनी होगी क्योंकि इन दो सालों में सरकार जनता के दरवाजे पर पहुंच रही है.

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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