आदिवासियों ने लड़ी थी, आजादी की पहली लड़ाई

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प्रमोद भार्गव

आदिवासी असंतोश के प्रतीक रहे ओडिषा के ‘पाइक
विद्रोह‘ को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का दर्जा दिए जाने की पहल
हो चुकी है। 1857 के सैनिक विद्रोह से ठीक 40 साल पहले
1817 में अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय नागरिकों ने जबरदस्त
सषस्त्र विद्रोह किया था। इसके नायक बख्षी जगबंधु थे। इस
संघर्श को आजादी की पहली लड़ाई की श्रेणी में रखने की
मांग ओडिषा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने उठाई थी।
जिसे स्वीकार किया गया। 2018 से एनसीआरटी की इतिहास संबंधी
पाठ्य पुस्तक में पाइक विद्रोह का पाठ जोड़ दिया गया है। इस
सिलसिले में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाष जावड़ेकर
ने कहा था कि ‘1817 का पाइक विद्रोह ही प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम है। हालांकि 1857 का सिपाही विद्रोह किताबों में
यथावत रहेगा। लेकिन देष के लोगों को आजादी का असली
इतिहास भी बताना जरूरी है।‘ 1831-ंउचय32 को -हजयारखंड के छोटा
नागपुर क्षेत्र में चला आदिवासियों का ‘कोल आंदोलन‘ भी
अंग्रेजों के विरुद्ध था। 1789 से ही फिरंगियों के विरुद्ध
मुंडा आदिवासियों ने विद्रोह की चिंगारी सुलगा दी थी,
जो 1820 तक सुलगती रही थी। वैसे भी यदि घाटनाएं और तथ्य
प्रामाणिक हैं तो ऐसे पृश्ठों को इतिहास का हिस्सा बनाना
चाहिए, जो बेहद अहम् होते हुए भी हाषिए पर हैं।
आदिवासियों की जब भी चर्चा होती है तो अकसर हम ऐसे
कल्पना लोक में पहुंच जाते हैं, जो हमारे लिए अपरिचित व
विस्मयकारी होता है। इस संयोग के चलते ही उनके प्रति यह धारणा
बना ली गई है कि वे एक तो केवल प्रकृति प्रेमी हैं, दूसरे वे

आधुनिक सभ्यता और संस्कृति से अछूते हैं। इसी वजह से उनके
उस पक्ष को तो ज्यादा उभारा गया, जो ‘घोटुल‘ और
‘रोरुंग‘ जैसे उन्मुक्त रीति-ंउचयरिवाजों और दैहिक खुलेपन से
जुड़े थे, लेकिन उन पक्षों को कमोबेष नजरअंदाज ही किया,
जो अपनी अस्मिता के लिए आजादी के विकट संघर्श से जुड़े थे ?
भारतीय समाजषस्त्रियों और अंग्रेज साम्राज्यवादियों की लगभग
यही दोहरी दृश्टि रही है। देष के इतिहासकारों ने भी उनकी
स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी लड़ाई को गंभीरता से नहीं
लिया। नतीजतन उनके जीवन, संस्कृति और सामाजिक संसार को षेश
समाज से जुदा रखने के उपाय अंग्रेजों ने किए और उन्हें
मानवषस्त्रियों के अध्ययन की वस्तु बना दिया। दूसरी तरफ
अंग्रेजों ने सुनियोजित -सजयंग से आदिवासी क्षेत्रों में
मिष्नरियों को न केवल उनमें जागरूकता लाने का अवसर दिया, बल्कि
इसी बहाने उनके पारंपरिक धर्म में हस्तक्षेप करने की छूट भी
दी। एक तरह से आदिवासी इलाकों को ‘वर्जित क्षेत्र‘ बना देने
की भूमिका रच दी गई। इस हेतु बहाना यह बनाया गया कि ऐसा
करने से उनकी लोक-ंउचयसंस्कृति और परंपराएं सुरक्षित रहेंगी।
ये उपाय तब किए गए, जब अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने
के लिए पहला आंदोलन 1817 में ओडिषा के कंध
आदिवासियों ने किया। दरअसल 1803 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने
मराठाओं को पराजित कर ओडिषा को अपने आधिपत्य में ले
लिया था। सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेजों ने खुर्दा के
तत्कालीन राजा मुकुंद देव द्वितीय से पुरी के विष्व विख्यात जगन्नाथ
मंदिर की प्रबंधन व्यवस्था छीन ली। मुकुंद देव इस समय अवस्यक
थे, इसलिए राज्य संचालन की बागडोर उनके प्रमुख सलाहकार व
मंत्री जयी राजगुरू संभाल रहे थे। राजगुरू जहां एकाएक सत्ता

हथियाने को लेकर विचलित थे, वहीं मंदिर का प्रबंधन छीन
लेने से उनकी धार्मिक भावना भी आहत हुई। नतीजतन
उन्होंने आत्मनिर्णय लेते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध जंग
छेड़ दी। किंतु कंपनी की कुटिल फौज ने राजगुरु को हिरासत
में ले लिया और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के आरोप में
बीच चैराहे पर फांसी पर च-सजय़ा दिया। इस निर्लज्ज प्रदर्षन को
अंग्रेज यह मानकर चल रहे थे कि जिस बेरहमी से राजगुरु को फांसी
के फंदे पर लटकाया गया है, उससे भयभीत होकर ओडिषा की
जनता घरों में दुबक जाएगी और भविश्य में बगावत नहीं
करेगी। लेकिन हुआ इसके उलट। निर्दोश राजभक्त राजगुरु की
फांसी के बाद जनता का लहू उबल पड़ा। लोग आक्रोषित हो
उठे। परिणामस्वरूप जगह-ंउचयजगह अंग्रेजों पर हमले षुरू हो गए। ये
विद्रोही खुर्दा के पाइक आदिवासी थे।
पाइक मूल रूप से खुर्दा के राजा के ऐसे खेतिहर सैनिक थे,
जो युद्ध के समय षत्रुओं से लड़ते थे और षांति के समय राज्य
में कानून व्यवस्था बनाए रखने का काम करते थे। इस कार्य के
बदले में उन्हें निषुल्क जगीरें मिली हुई थीं। इन
जागीरों से राज्य कर वसूली नहीं करता था। षक्ति-ंउचयबल से सत्ता
हथियाने के बाद अंग्रेजों ने इन जागीरों को समाप्त कर दिया।
यही नहीं कंपनी ने किसानों पर लगान कई गुना ब-सजय़ा दी। जो
लगान पहले फसल उत्पादन के अनुपात में एक हिस्से के रूप में ली
जाती थी, उसे भूमि के रक्बे के हिसाब से वसूला जाने लगा। जिस
कौड़ी का मुद्रा के रूप में प्रचलन था, उसकी जगह रौप्य
सिक्कों को प्रचलन में ला दिया। जो लोग खेती से इतर नमक
बनाने का काम करते थे, उसके निर्माण पर रोक लगा दी। इतनी
बेरहमी बरतने के बावजूद भी न तो अंग्रेजों की दुश्टता

थमी और न ही पाइकों का विद्रोह थमा। लिहाला 1814 में
अंग्रेजों ने पाइकों के सरदार बख्षी जगबंधु विद्याधर महापात्र,
जो मुकुंद देव द्वितीय के सेनापति थे, उनकी जगीर छीन ली और
उन्हें पाई-ंउचयपाई के लिए मोहताज कर दिया।
अंग्रेजों के ये ऐसे जुर्म थे, जिनके विरुद्ध जनता का गुस्सा
भड़कना स्वाभाविक था। फलस्वरूप बख्षी जगबंधु के नेतृत्व
में पाइकों ने युद्ध का षंखनाद कर दिया। देखते-ंउचयदेखते इस
संग्राम में खुर्दा के आलावा पुरी, बाणपुर, पीपली, कटक,
कनिका, कुजंग और केउ-हजयर के विद्रोही षामिल हो गए। यह
संग्राम कालांतर में और व्यापक हो गया। 1817 में
अंग्रेजों के निरंतर अत्याचारों के चलते घुमुसर (कंधमाल)
और बाणपुर के कंध संप्रदाय के आदिवासी समूह बख्षी जगबंधु
द्वारा छेड़े गए संग्राम का हिस्सा बन गए। इन समूहों ने संयुक्त
रणनीति बनाकर एकाएक अंग्रेजों पर आक्रामण कर दिया।
तीर-ंउचयकमानों, तलवारों और लाठी-ंउचयभालों से किया यह हमला
इतना तेज और व्यापक था कि करीब एक सौ अंग्रेज मारे गए। जो
षेश बचे वे षिविरों से दुम दबाकर भग निकले। एक तरह से
समूचा खुर्दा कंपनी के सैनिकों से खाली हो गया। जनता ने
अंग्रेजी खजाने को लूट लिया। खुर्दा स्थित कंपनी के
प्रषासनिक कार्यालय पर कब्जा कर लिया। इसके बाद इन स्वतंत्रता
सेनानियों को जहां-ंउचयजहां भी अंग्रेजों के छिपे होने की
मुखाबिरों से सूचना मिली, इन्होंने वहां-ंउचयवहां पहुंचकर
अंग्रेजों को पकड़ा और मौत के घाट उतार दिया।
किंतु अंग्रेज आसानी से हार मानने वाले नहीं थे।
उन्होंने अंग्रेज सैनिकों के नेतृत्व में देषी सामंतों
की सेना को एकत्रित किया और पाइक स्वतंत्रता सेनानियों पर तोप व

बंदूकों से हमला बोल दिया। इस तरह के घातक हथियार
पाइकों के पास नहीं थे। गोया, दूर से विरोधियों को
हताहत करने का जो तरीका अंग्रेजों ने अपनाया, उसके सामने
विद्रोहियों के पराजित होने का सिलसिला षुरू हो गया।
अंग्रेजों ने जिस सेनानी को भी जीवित पकड़ा उसे या तो
फांसी दे दी अथवा तोप के मुहाने पर बांधकर उड़ा दिया। इस
संग्राम के नायक बख्षी जगबंधु को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें
कटक के बरावटी किले में बंदी बनाकर रखा गया। जहां 1821
में उनकी संदिग्ध पर्रििस्थ्ति में मृत्यु हो गई। तत्पष्चात भी
1817 में षुरू हुआ यह स्वतंत्रता संग्राम 1827 तक रुक-ंउचयरुक कर
छापामार हमलों के रूप में सामने आता रहा। निसंदेह पूर्वी
भारत में उपजा यह विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया पहला
बड़ा संग्राम था। यह 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के ठीक
40 साल पहले हुआ था। इस लिहाज से इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम
की श्रेणी में रखना इस आंदोलन के सेनानियों का सम्मान है।
लेकिन यह स्थिति तब और बेहतर होगी, जब 1857 के पहले अन्य
स्वतंत्रता आंदोलनों को भी इसमें षामिल कर लिया जाए।
पाइक विद्रोह के समतुल्य ही अंग्रेजों से 1817 में भील
आदिवासियों का संघर्श छिड़ा था। फिरंगी हुकूमत के
अस्तित्व में आने से पहले ही भीलों का राजपूत षासकों से
-हजयगड़ा बना रहता था। ज्यादातर भील पहाड़ी और मैदानी
क्षेत्रों के रहवासी थे। खेती-ंउचयकिसानी करके अपनी आजीविका
चलाते थे। राजपूतों की राज्य व भूमि विस्तार की लिप्सा ने
इन्हें उपजाऊ कृशि भू-ंउचयखंडों से खदेड़ना षुरू कर दिया।
भीलों को पहाड़ों और बियावान जंगलों में विस्थापित
होना पड़ा। हालांकि वे चरित्र से स्वाभिमानी और लड़ाके

थे, इसलिए राजपूतों पर रह-ंउचयरहकर हमला बोल कर अपने असंतोश के
ताप को ठंडा करते रहे।
भारत में जब अंग्रेज आए तो ज्यादातर सामंत उनके आगे
नतमस्तक हो गए। नतीजतन अंग्रेज राजपूत सामंतों के सरंक्षक हो
गए। गोया, भीलों ने जब संगठित रूप में खानदेष के
सामंतों पर आक्रमण किया तो अंग्रेजों ने राजपूतों की सेना
के साथ भीलों से युद्ध कर उन्हें खदेड़ दिया। बाद में यही
संघर्श ‘भील बनाम अंग्रेज‘ संघर्श में बदल गया। इसलिए इसे
‘खानदेष विद्रोह‘ का नाम दिया गया। इस विद्रोह से प्रेरित
होकर भीलों का विद्रोह व्यापक होता चला गया। 1825 में
इसने सतारा की सीमाएं लांघ लीं और 1831 तक मध्यप्रदेष के
वनांचल -हजयाबुआ क्षेत्र में फैलता हुआ मालवा तक आ गया। इसी
समय -हजयारखंड के छोटा नागपुर और संस्थाल परगना क्षेत्र में
पहली बार कई आदिवासी समुदाय एक साथ अपने हक की लड़ाई
में अंग्रेजों के सामने आ गए है। इसमें जंगल और कृशि
भूमि के स्वामित्व के अधिकार की लड़ाई षामिल थी। दरअसल
अंग्रेजों ने जबरदस्ती नील की खेती षुरू कर दी थी, जिसका
उपयोग आदिवासियों के लिए नहीं था। इस लड़ाई में
10,000 से ज्यादा आदिवासी तीर-ंउचयकमान हंसिया, कुल्हाड़ी और
लाठियों से लड़े। अंततः वह अंग्रजों के आगे टिक नहीं पाए
और 80 प्रतिषत से ज्यादा लोग मातृभूमि के लिए षाहीद हो गए।
अंततः 1846 में अंगेज इस भील आंदोलन को नियंत्रित करने
में सफल हुए, तत्पषचात 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ।
लिहाजा 1817 में पाइक विद्रोह के समानांतर जितने भी 1857
के पहले तक अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्श हुए हैं, वे आजादी की

लड़ाई के अनछुए पहलू हैं, उन्हें समग्रता से प्रस्तुत करने की
जरूरत है।

प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
-रु39याब्दार्थ 49,श्रीराम काॅलोनी
-िरु39यावपुरी (म.प्र.)

मो. 09425488224, 9981061100
लेखक,वरि-ुनवजयठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

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