आंकड़ों की जुबानी आंकड़ों का सच

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राजेश कश्यप

poverty lineभारत सरकार ने एक बार फिर गरीबी के नये अप्रत्याशित आंकड़े पेश किए हैं और

दावा किया है कि गरीबी 15 फीसदी कम हो गई है और अब गरीब घटकर मात्र 22

प्रतिशत रह गये हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1973-74 में कुल 54.4

प्रतिशत, वर्ष 1977-78 में 51.3 प्रतिशत, वर्ष 1983 में 44.5 प्रतिशत और

वर्ष 1987-88 में घटकर 38.9 प्रतिशत हो गया। आंकड़ों की जादूई बाजीगीरी की

बदौलत यह प्रतिशत वर्ष 2004-05 में घटते-घटते 37.2, वर्ष 2009-10 मंे

29.8 और अब यह 2011-12 में 21.9 प्रतिशत तक आ पहुंचा। इसमें किसी तरह का

कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यदि सरकार द्वारा कागजी आंकड़ों का यही

शर्मनाक सिलसिला जारी रहा तो कुछ समय बाद गरीबी दो अंकों की बजाय सिर्फ

एक अंक में सिमटकर रह जाएगी। योजना आयोग ने तेन्दुलकर कमेटी के आधार पर

गरीबी का नवीनतम पैमाना तय किया है। इस नये पैमाने के अनुसार अब गाँवों

में प्रतिदिन 26 की जगह 27.20 रूपये और शहरों में 32 की बजाय 33.30 रूपये

कमाने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। कमाल की बात देखिए कि मात्र एक रूपये

का हेरफेर करके यूपीए-दो सरकार ने एक झटके में 17 करोड़ गरीब घटाने का

ऐतिहासिक कारनामा कर दिखाया और इस कारनामे पर इतराने में जरा भी

शर्म-संकोच महसूस नहीं की। एक तरफ जहां देश में मंहगाई, बेकारी,

बेरोजगारी और भूखमरी आसमान को छू रही है और दूसरी तरफ सरकार अपने कागजी

आंकड़ो के जरिए गरीबी बड़े स्तर पर कम होने का दावा कर रही है। क्या

निर्लज्जता की इससे भी बढ़कर कोई हद होती है?

 

कमाल की बात यह है कि जब सरकार के इन कागजी आंकड़ों पर बवाल मचा तो कई

राजनीतिकों ने अपना आपा खो दिया और एक बेबस, भूखे, अहसहाय, शोषित और

हालातों के हाथों मजबूर गरीब इंसान की भावनाओं से क्रूरतम मजाक करते हुए

अपने मानसिक दिवालियेपन के न्यूनतम स्तर को भी पार कर दिया। कांग्रेस

पवक्ता राज बब्बर ने तो सरेआम दावा कर डाला कि मुम्बई में 12 रूपये में

आज भी भरपेट खाना खाया जा सकता है। उनके इस मानसिक दिवालियेपन से लोग

उभरे भी नहीं थे कि कांग्रेस के ही दूसरे सांसद रसीद मसूद ने अपने निराले

अन्दाज में प्रतिदावा कर डाला कि मुम्बई का तो पता नहीं, लेकिन दिल्ली

में 5 रूपये में भरपेट खाना जरूर मिल जाता है। बात यहीं नहीं रूकी। एक और

झन्नाटेदार दावा केन्द्रीय मंत्री फारूक अब्दूला ने कर डाला कि पेट तो एक

रूपये में भी भरा जा सकता है। जब मीडिया ने इन सबके 12, 5 व एक रूपये के

आंकड़ों की हवा निकाली तो राज बब्बर व फारूक अब्दूला को तो मीडिया के

सामने दिए अपने आंकड़ों से बेहद शर्मिन्दगी महसूस हुई और उन्होंने खेद

प्रकट करते हुए मामले से पल्ला छुड़ा लिया। लेकिन, रसीद मसूद अपने मानसिक

दिवालियेपन से उभरने की बजाय और भी नीचे गिर गये हैं। अब उन्होंने अपने 5

रूपये के आंकड़े को घटाकर एक रूपये पर ला टिकाया है और फारूक अब्दूला की

तर्ज पर एक बार फिर दावा ठोंक दिया है कि पेट एक रूपये में भी भरा जा

सकता है। इन लोगों के हवाई आंकड़ों की हवा तो हकीकत के आंकड़ों से निकल

चुकी है। इसी तर्ज पर आंकड़ों की जुबानी ही सरकारी आंकड़ों का असली सच

उजागर किया जाना बेहद अनिवार्य है।

 

सरकार का कहना है कि अब मात्र 22 फीसदी लोग ही गरीब रह गये हैं। यदि ऐसा

है तो फिर देश की 70 फीसदी आबादी को खाद्य सुरक्षा योजना के तहत 3 रूपये

किलो चावल, 2 रूपये किलो गेहूँ और एक रूपये किलो मोटा अनाज देने की नौबत

क्यों आ गई? यदि सरकार को तेन्दुलकर कमेटी की सिफारिश के आधार पर तैयार

22 फीसदी गरीबी के आंकड़े सही लगते हैं तो वह इन पर अडिग क्यों नहीं रह

पाती है? आखिर, एक बार फिर इन आंकड़ों को दुरूस्त करने के लिए सी. रंगराजन

कमेटी क्यों गठित की है? आखिर सरकार योजना आयोग के आंकड़ों को ही

प्राथमिकता क्यों देती है? आखिर सरकार क्यों अन्य एजेन्सियों और संगठनों

के आंकड़ों को तवज्जो नहीं देती है? क्या सरकार का यह रवैया हकीकत को बदल

सकता है? क्या वास्तविक आंकड़ों को नजरअन्दाज करके गरीबी की समस्या को और

भी विकट और देश के लिए नासूर नहीं बनाया जा रहा है?

 

सरकार द्वारा एन.सी.सक्सेना की अध्यक्षता में गठित एक विशेषज्ञ समूह ने

2400 कैलोरी के पुराने मापदण्ड के आधार पर बताया था कि देश में बीपीएल की

आबादी 80 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। विश्व बैंक के अनुसार भारत में वर्ष

2005 में 41.6 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे। एशियाई विकास बैंक

के अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। वैश्विक सर्वेक्षण रिपोर्ट के

अनुसार भारत में अतिरिक्त अनाज होने के बावजूद 25 प्रतिशत लोग अब भी भूखे

हैं। अंतर्राष्ट्रीय अन्न नीति अनुसंधान संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार

भारत 79 देशों में भूख और कुपोषण के मामले में 65वें स्थान पर है। इसके

साथ ही भारत में 43 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जिसे देखते हुए

भारत का रैंक नाईजर, नेपाल, इथोपिया और बांग्लादेश से भी नीचे है। विश्व

स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 70 प्रतिशत भारतीय महिलाएं खून की

कमी का शिकार हैं और देशभर के पिछड़े इलाकों व झुग्गी-झांेपड़ियों में रहने

वाली लगभग 60 प्रतिशत महिलाएं तथा लड़कियां गंभीर रूप से खून की कमी का

शिकार हैं। युनीसेफ द्वारा तैयार रिपोर्ट के अनुसार कुपोषण की वजह

से वैश्विक स्तर पर 5 वर्ष तक के 48 प्रतिशत भारतीय बच्चे बड़े पैमाने पर

ठिगनेपन का शिकार हुए हैं। इसका मतलब दुनिया में कुपोषण की वजह से ठिगना

रहने वाला हर दूसरा बच्चा भारतीय है। वैश्विक खाद्य सुरक्षा सूचकांक

(जीएफएसटी) के मुताबिक भारत में 22 करोड़ 46 लाख लोग कुपोषण का शिकार हैं।

भारत की 68.5 प्रतिशत आबादी वैश्विक गरीबी रेखा के नीचे रहती है। भारत

में करीब 20 प्रतिशत लोगों को अपने भोजन से रोजाना औसत न्यूनतम आवश्यकता

से कम कैलोरी मिलती है। इस रिपोर्ट में भारतको 105 देशों की सूची में

66वें पायदान पर रखा गया है। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं

सामाजिक आयोग की रिपोर्ट कहती है कि खाद्यान्न की मंहगाई की वजह से भारत

में वर्ष 2010-11 के दौरान 80 लाख लोग गरीबी की रेखा से बाहर नहीं निकल

पाये।

 

गरीबी के दंश की मार को महसूस करने के लिए बेरोजगारी और बेकारी के आंकड़ों

को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। कहना न होगा कि बढ़ती महंगाई और

भ्रष्टाचार के कारण देश में बेरोजगारी व बेकारी का ग्राफ बड़ी तेजी से बढ़ा

है। आवश्यकतानुसार न तो रोजगारों का सृजन हुआ और न ही रोजगार के स्तर को

स्थिर बनाये रखने में कामयाब रह सके। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय

के ताजा आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2009-10 में सामान्य स्थिति आधार पर

बेरोजगार एवं अर्द्धबेरोजगार लोगों की संख्या क्रमशः 95 लाख और लगभग 6

करोड़ थी। इस कार्यालय के अनुसार जून, 2010 से जून, 2012 के बीच बेरोजगारी

में बेहद वृद्धि हुई है। इन दो सालों में देश में पूर्ण बेरोजगारों की

संख्या 1.08 करोड़ थी, जबकि दो साल पहले यह आंकड़ा 98 लाख था। दूसरी तरफ,

योजना आयोग के आंकड़े बताते हैं कि देश में कुल 3.60 करोड़ पूर्ण बेरोजगार

हैं। इसके अलावा, यदि अन्य संस्थाओं और संगठनों के आंकड़ों पर नजर डालें

तो यह पूर्ण बेरोजगारों की संख्या 5 करोड़ के पार पहुंच जाती है। एसोचैम

सर्वेक्षण कहता है कि देशभर में पिछले साल की तुलना में 14.1 प्रतिशत

नौकरियां कम हो गई हैं।

 

गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी और बेकारी के कारण स्वतंत्रता के साढ़े छह दशक

बाद भी बड़ी संख्या में लोग रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों से

वंचित हैं। आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय का अनुमान है कि वर्ष

2011 की जनगणना के अनुसार वर्ष 2012 में करीब 1.87 करोड़ घरों की कमी है।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी एक संबोधन के दौरान गरीबों की दयनीय हालत

को आंकड़ों की जुबानी बता चुके हैं कि देश की करीब 25 प्रतिशत शहरी आबादी

मलिन और अवैध बस्तियों में रहती है। पेयजल एवं स्वच्छता राज्यमंत्री संसद

में लिखित रूप मंे यह स्वीकार कर चुके हैं कि वर्ष 2011 की जनगणना के

अनुसार देश में 16.78 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से 5.15 करोड़ परिवारों

के पास ही शौचालय की सुविधा है और शेष 11.29 प्रतिशत परिवार आज भी शौचालय

न होने की वजह से खुले में शौच जाने को विवश हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन

के अनुसार प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन कम से कम 120 लीटर पानी मिलना चाहिए।

लेकिन, देश की राजधानी दिल्ली में ही 80 प्रतिशत लोगों को औसतन सिर्फ 20

लीटर पानी ही बड़ी मुश्किल से नसीब हो पाता है। नैशनल क्राइम रेकार्ड की

एक रिपोर्ट के मुताबिक गरीबी और कर्ज के चलते देश में प्रतिदिन 46 किसान

आत्महत्या करते हैं।

 

क्या ये सब आंकड़े हकीकत का आईना नहीं दिखा रहे हैं? क्या ये आंकड़े सरकार

के कागजी आंकड़ों का असली सच उजागर करने के लिए काफी नहीं हैं? सरकार

बार-बार गरीबी के जो कागजी आंकड़े पेश करती है, क्या वह गरीब आदमी के साथ

सबसे क्रूरतम मजाक और अपमान का विषय नहीं है? क्या लाखों करोड़

घपलों-घोटालों को अंजाम देने वाले नेताओं को गरीब आदमी की भावनाओं के साथ

खिलवाड़ करने से पहले सौ बार नहीं सोचना चाहिए? क्या जन प्रतिनिधियों ने

कभी सोचा है कि वे अपनी लापरवाहियों और कुनीतियों द्वारा देश को भयंकर

अंधकार की तरफ नहीं धकेल रहे हैं? इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय समिति के

अध्यक्ष एवं हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के ताजा उद्गार ही मामले

की गंभीरता को समझने के लिए काफी हैं। उन्होंने कहा है कि देश में भूखमरी

और बेरोजगारी की वजह से नक्सलवाद अपने पैर पसार रहा है। यूपीए सरकार की

गलत नीतियों की वजह से अमीर और भी अमीर और गरीब और भी गरीब होता चला जा

रहा है। 95 प्रतिशत से अधिक नक्सल भूख, भय और गरीबी से तंग आकर हिंसा का

रास्ता अख्तियार करते हैं। उन्हें पता है कि उन्हें दोनों तरफ मरना है।

अगर वे नक्सली नहीं बनते तो भूखे मर जाएंगे और बने तो सरकारी गोली से

मारे जाएंगे। इसलिए वे भूखे मरने की बजाय यह रास्ता चुनने लगे हैं।

 

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