भाजपा-शि‍वसेना के संबंधों का सच : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

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महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के परिणामों आने के बाद दिन पर दिन गुजरते जा रहे हैं, लेकिन स्पष्ट जनादेश नहीं मिलने से सरकार कैसे और किसकी बने, इसे लेकर लगातार राजनैतिक पार्टियों में माथापच्ची चल रही है। यहां उम्मीद से इतर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह सबसे पहले प्रदेश की सबसे ज्यादा सीटें पाने वाली भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन पहल की पेशकश की और उसके बाद जो राजनैतिक परिदृष्य बदला, उसे देखकर अब लगने लगा है कि राजनीति में कुछ भी संभव है।

भाजपा को आज यह समझना होगा कि महाराष्ट्र में बिना शर्त अपना समर्थन देने के लिए जिस तरह एनसीपी सामने आई है, उसके आगे के आशय क्या हो सकते हैं ? बीजेपी नेताओं ने एनसीपी के करप्ट नेताओं को जेल भेजने का वादा महाराष्ट्र के मतदाताओं से किया है। अब अगर उसी पार्टी के नेताओं के समर्थन से बीजेपी सरकार बनाएगी तो जेल किसे भेजेगीराष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का अभी तक का इतिहास तो यही बताता है कि उसने आजतक अपने निर्माण के बाद से किसी को भी बिना शर्त समर्थन नहीं दिया है। बल्कि, वह जिस पार्टी के साथ गई है उससे पूरी कीमत वसूली है। फिर अचानक भाजपा पर मेहरबान क्यों हो रही है। सच्चाई यही है कि एनसीपी महराष्ट्र में बीजेपी को समर्थन देकर अपने दिग्गज नेताओं अजीत पवार, प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल को बचाना चाहती है।

पूर्व उप-मुख्यमंत्री अजीत पवार और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष व पूर्व सिंचाई मंत्री सुनील तटकरे 70 हजार करोड़ रुपये के सिंचाई घोटाले में फसें हैं, पूर्व पीडब्ल्यूडी मंत्री छगन भुजबल पर नई दिल्ली में महराष्ट्र सदन के जीर्णोद्धार की लागत में इजाफा कर भ्रष्टाचार करने का आरोप है। दरअसल, ऐंटि करप्शन ब्यूरो (एसीबी) ने राज्य सरकार से इन दोनों पूर्व मंत्रियों के खिलाफ जांच का आदेश मांगा है। ब्यूरो की फाइल मंत्रालय में है। पार्टी को डर है कि प्रफुल्ल पटेल के उड्डयन मंत्री रहते एयर इंडिया की दुर्दशा के लिए उनकी गर्दन दबोची जा सकती है। पूर्व महालेखाकार (सीएजी) विनोद राय ने अपनी किताब नॉट जस्ट एन अकाउंटेंटः द डायरी ऑफ नेशंस कॉन्शन्स कीपरमें भी एयर इंडिया के लिए खरीदे जानेवाले नए हवाई जहाजों की संख्या 28 से बढ़ाकर 68 किए जाने के पटेल के फैसले पर सवाल उठाया है।

जानकारी तो यहां तक आ रही है कि एनसीपी ने न केवल बाहर से समर्थन देने की बात कही है बल्कि अपने प्रस्ताव में यह तक कह दिया है कि भाजपा जब सदन में अपना बहुमत सिद्ध करेगी वह सदन में उपसि्थत ही नहीं होगी ताकि भाजपा अपना बहुमत सरलता से सिद्ध कर सके। शि‍वसेना का समर्थन लिए बगैर कैसे अल्पमत में भारतीय जनता पार्टी अपनी सरकार महाराष्ट्र में चला सकती है इसका फार्मुला भी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की और से भाजपा के नेताओं को सुझाया गया है। लेकिन यहां प्रश्न यही है कि क्या यह प्रदेश के हित में होगा ?  महाराष्ट्र की जनता ने जो भी जैसा भी जनादेश दिया है, क्या यह उसका सम्मान है ?

वस्तुत: भाजपा यहां भले ही आज अपने लिए स्वतंत्र माहौल का विकल्प तलाश रही हो लेकिन सच यही है कि शि‍वसेना और भाजपा गठबंधन ही महाराष्ट्र के लिए स्वभाविक सत्ता एवं राजनीतिक विकल्प हैं। ऐसा मानने और कहने के पीछे कई सार्थक तर्क आज दिए जा सकते हैं अव्वल तो देश तथा राज्य दोनों स्तरों पर ये दोनों पार्टियां ऐसी हैं जो आर्थि‍क, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट, देश में समान आचार सहिंता जैसे तमाम विषयों में एक जैसी सहमति रखती हैं वहीं दोनों ही पार्टियों की छवि हिन्दूवादी है।

महाराष्ट्र में इन दोनों राजनैतिक दलों में यदि एक को बड़ा भाई और दूसरा छोटा भाई है कहा जाए तो गलत ना होगा । 25 वर्षों से राज्य की राजनीति में एक-दूसरे का साथ निभाते आ रहे इन दोनों दलों में मनमुटाव की सि्थति पहली बार बनी हो ऐसा भी नहीं है। 1989 में भाजपा नेता प्रमोद महाजन और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के प्रयासों से ये गठबंधन जब हुआ था तब 1991 से ऐसी परिि‍स्थतियां बनना शुरू हो गई थीं कि दोनों दल कई विषयों को लेकर विरोधी बयान देते थे। दोनों के बीच विरोध के स्वर तब शुरू हुए थे जब उस समय छगन भुजबल ने शिवसेना छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया था और विधानसभा में शिवसेना के सदस्यों की संख्या भाजपा से कम हो गई थी ऐसे में भाजपा ने भी अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन करते हुए तब गोपीनाथ मुंडे ने विधानसभा में विपक्ष के नेता पद का दावा ठोंक दिया जिसे लेकर शिवसेना असहज हो उठी थी। इसके बाद ऐसे ही हालात साल 2005 में उपजे, जब नारायण राणे ने शिवसेना का दामन छोड़ दिया था। जिस पर शिवसेना ने विपक्ष के नेता के रूप में रामदास कदम को आगे किया लेकिन भाजपा को यह रास नहीं आया, क्यों कि उसका कहना था कि विधानसभा में उसके सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण यह पद उसे मिलना चाहिए।

 महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के अलावा लोकसभा चुनाव के वक्त भी इन दोनों पार्टियों के बीच की रार बाहर निकलकर आई थी 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान शिवसेना को राज ठाकरे के नेतृत्व वाले एमएनएस ने घेरना शुरू कर दिया और भाजपा उससे अपने संबंध मजबूत करने मे लगी हुई थी। यह बात शि‍वसेना नहीं पचा पा रही थी। इस कारण दोनों दलों के बीच मनमुटाव बढ़ा।

जब इस बार के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नितिन गडकरी ने राज ठाकरे के घर जाकर उनसे बात की तब तो सभी को लगने लगा था कि अब इस गठबंधन को कोई नहीं बचा सकता। भाजपा के इस क़दम के बाद शिवसेना ने ऐलान कर दिया था कि वह एनडीए से बाहर जाएगी। लेकिन क्या हुआ, सभी ने देखा, केंद्र में दोनों का गठबंधन लाख विरोधाभासों के बाद भी बना हुआ है। मोदी मंत्रिमंडल में अनंत गीते सोलहवीं लोक सभा के सांसद तथा केन्द्रीय मंत्रीमण्डल में भारी उद्योग तथा सार्वजनिक उद्यमिता मंत्री हैं। जब उद्धव ठाकरे ने कहा था कि पीएम मोदी के अमेरिका से लौटने के बाद मंत्रिपद से अनंत गीते उन्हें अपना इस्तीफा सौंपेंगे, वह बात भी सार्वजनिक बयान देकर आगे स्वयं अनंत गीते ने स्पष्ट कर दी थी कि वे मोदी मंत्रीमण्डल में बने रहेंगे, क्यों कि केंद्र में शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन अटूट है। शुरू से अभी तक के दोनों पार्टियों के आपसी संवाद को देखकर भले ही देश और विशेषकर कुछ समय तक के लिए महाराष्ट्र की जनता में यह भ्रम हो जाए कि ये गठबंधन ज्यादा दिन साथ नहीं चलनेवाला लेकिन सच तो यही है कि देखते-देखते दोनों के पच्चीस वर्ष साथ निभाने के गुजर चुके हैं।

हां राज्य में जरूर इन बार के विधानसभा चुनावों के पहले दोनों से विलग होने के कारण जग जाहिर हैं लेकिन इसे भी कोई नकार नहीं सकता कि यदि यह दोनों दल महाराष्ट्र में साथ रहकर चुनाव लड़ते तो आज नज़ारा कुछ और होता। शि‍वसेना का कहना कुछ गलत नहीं है कि कांग्रेस- एनसीपी को 25 सीटें भी लाना भारी पड़ जाता। क्यों कि जिस तरह वोटों का विकेंद्रीकरण हुआ है उससे सबसे ज्यादा नुकसान भी यदि आज किसी को हुआ है तो महाराष्ट्र की ये दोनों राजनैतिक पार्टियां भाजपा और शि‍वसेना ही हैं। भले ही फिर मोदी-शाह की जोड़ी तथा भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व यह स्वीकार न करें लेकिन सच तो सच ही रहेगा।

वास्तव में देखा जाए तो महाराष्ट्र की राजनीति में यह दोनों दल एक-दूसरे के पूरक ही हैं, यह बात सार्वजनिक तौर पर आज दोनों में से कोई न माने लेकिन हकीकत यही है। किसी को शक है तो पिछला रिकार्ड उठाकर देखा जा सकता है जिसमें मराठी मानुस की बात छोड़ दी जाए तो क्या भाजपा और क्या शि‍वसेना दोनों के राष्ट्रीय और राज्यीक मुद्दे समानता के साथ उठाते हुए दिखाई देते हैं। दोनों ही पार्टियां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में अपना बीज तलाशती हैं। आर.एस.एस. की सद्भावना और कृपा दोनों के साथ समान हैं।  तभी तो सबसे पहले इनको लेकर संघ की प्रतिक्रिया सामने आई, जिसमें सांकेतिक रूप से कहा गया है कि यह गठबंधन कभी टूटना नहीं चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी साफतौर पर कह चुके हैं कि भाजपा और शिवसेना का पुराना रिश्ता फिर से बहाल हो जाए तो अच्छा रहेगा। इस रिश्ते को नहीं टूटना चाहिए ।

चुनाव पूर्व शि‍वसेना के मुख्य पत्र सामना ने लिखा था कि “पिछले 25 साल से कुर्सी के लिए नहीं बल्कि हिंदुत्व के लिए हमारी युति (गठबंधन) है. इस युति धर्म को याद करो और जब प्रचार शुरू होना चाहिए तब हम सीटों को लेकर खींचतान कर रहे हैं, ऐसी कर्मदरिद्रता मत करो “ आज ऐसा स्पष्ट लिखने के पीछे के भाव को इन दोनों राजनैतिक पार्टियों के नेताओं को समझना ही होगा। यह पंक्तियां सभी भ्रमों को तोड़ते हुए साफ कर देती हैं कि इस गठबंधन की ताकत का आधार आखि‍र किस बात में निहित है।

वस्तुत: दोनों दल हिंदुत्व को लेकर समानरूप से सोचते हैं यही उनकी ताकत भी है। अब अच्छी बात यह है कि भाजपा और शि‍वसेना ने संघ के इशारों को समझ लिया है और समझे भी क्यों ना। वास्तव में राजनीति में रहकर बहुत कुछ विषय ऐसे हैं जो सीधे-सीधे समझ में नहीं आते जितने कि बाहर से देखने पर उनकी हकीकत का पता चलता है। आज इसे कोई नहीं नकार सकता कि सार्वजनिक जीवन में रा.स्व.संघ की स्वीकार्यता किसी भी राजनैतिक मंच से ज्यादा है। ऐसे में संघ जैसा घर-घर पैठ रखने वाला संगठन सोचता है कि महाराष्ट्र के विकास के हित में भाजपा-शि‍वसेना गठबंधन का साथ बना रहना जरूरी है तो वह वास्तव में जरूरी है। वस्तुत: इसीलिए इन दोनों पार्टियों को अपने गिले शि‍कवे दूर कर एक दूसरे का साथ निभाने के मुद्दे पर मान जाना चाहिए। वास्तव में यही इन दोनों राज्य की मुख्य दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों और महाराष्ट्र की जनता के हित में होगा।

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

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  1. (१)भा. ज. पा. की लोकप्रियता मोदी जी की निःस्वार्थी और नीति कुशल, छवि के कारण ही है। इस सत्य को शिवसेना के उद्धव ठाकरे ने भली भाँति आंका नहीं।और उसकी मुख्य मंत्री पद की महत्वाकांक्षा के कारण गठ बंधन टिक न पाया।
    (२) चुनाव के परिणामो से ही मोदी जी के प्रभावका अनुमान हो जाता है। भा. ज. पा. शिवसेना की अपेक्षा जितनी बैठकें माँग रही थी, प्रायः उतनी ही प्राप्त कर पायी है; पर शिवसेना भाजपा की अपेक्षा लगभग आधी।
    (३) परिणामों से एक स्पष्टता हो गयी है; कि, आगे शिवसेना को भा. ज. पा. को बडा भाई मानना होगा। और लम्बी पारी के लिए, आज की राजनीति में यह भारत के हित में है।
    (४) रा. कां. पा. पर जैसा आपने कहा, कोई विश्वास किया नहीं जा सकता।
    (५) फिर भी, शिव सेना और भा. ज. पा. दोनों साथ आ ही जाएंगे।
    (६) शिवसेना को अपनी शक्ति का बढा चढा विश्वास हो गया था। पर गठबंधन के सिवा उसे कोई चारा नहीं, न भा. ज. पा. को है।
    (७) पर यह एक आवश्यक प्रक्रिया थी; अंततोगत्वा भारत के दूरगामी कल्याण के लिए। कुछ भा. ज. पा. ने त्यागा है, पर राष्ट्रहितमें। यह मेरा मानना है।
    आलेख के लिए धन्यवाद।

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