‘शब्द’

हनुमान सहाय मीना

1.’शब्द’
एक कवि
शब्दों में ढूंढ रहा है
अपने होने का अहसास
शब्द कर रहे हैं
कवि के निजत्व की खोज
कवि बढ़ रहा है
जिन्दगी की उस राह की ओर
जो शब्दों की गुथियों में
उलझ कर रह गयी है
शब्द कर रहे हैं उसका संज्ञान
हो रहा है मरुधर का अपमान
शब्द कर रहे हैं कवि का सम्मान…

2. मेला
मेले की एक भीड़ में
मुझे एक अनजाना चेहरा नज़र आया
जो किसी दहशत के
साये में अपनों को
ढूंढ रहा था
वक्त के साथ बदल रहा था
उसका चेहरा
बता रहा था चेहरे की उदासी का रंग
फीका पड रहा था ढलते हुए सूरज की तरह
आखिर वह अनजाना चेहरा गुम हो गया
धुंधली राहों में
जिसे मैं देख नहीं पा रहा था
इन आखों से
क्योंकि वह क्षितिज के उस पार चला गया था….

3. स्वार्थपरता
मैं सवाल करता हूँ
इन बेजबान मूर्तियों से
जो चुपचाप खडी रहती है
कहीं धूप तो कहीं छाँव में
ईश्वरवादी शक्ति को बेजान करती हुई
जो वक्त के साथ पिसती है मनुष्यों के इन षड्यंत्र में
वास्ता जिसका किसी से नही,करती है अभिराम
देख रही है इस ढोंगी संसार को
जो बदल लेता है अवसर पाकर अपना काम
करते हैं अभिषेक जिसका
वो बढ़ा रही है जलधारा का मान
रे मनुष्य क्यों करता है गुमान इस दुनिया का…8/10/2014

4. जीवन
टूट रही है सीमाएं
मिट रही है दिशायें
कर रही है मृत्यु संज्ञान
इतिहास मर रहा है
वक्त की चोखटो पर
मानवता कर रही है
युद्ध का जयघोष
बढ़ रहा है कारवां
उज्जवल पताका का
लिए मशाले जीवन की
जल रहा है अंधकार
जीवन के साये में
पल रही है मानवता
डर के इस आतंक में
पक्षी भर रहे हैं उडान
असीम गगन की तहों में
विस्थापित हो रहे है आदिवासी
प्रकृति की गोद से
कवि कर रहा है कविता का उन्मोद
जड़ चेतन है
जीवन और मृत्यु का विप्लव
साक्षी है जीवन का यह अर्द्सत्य
कर रहे हैं रसधारा का पान
हाय..यह कैसा है जीवन का नाद
हो रहा मदिरा का पान
इन सुर-असुर के संग में
विकल, विरासत का यह भान
हाय…ये कैसा जीवन का संग्राम…

5. कविता का शीर्षक है – ‘कॉमरेड’
कॉमरेड कहाँ हो तुम?
तुम्हें खोज रहे तुम्हारे गीत
गा रहे है साथी तुम्हारे गीत
कर रही है संकेत
तुम्हारी दीवार पर टंगी पुरानी तस्वीर
शायद वह उठकर कुछ कहना चाहती है
लेकिन वह भी वर्षों से
इन दीवारों के बोझ से टूट गयी है
तुम तोड़ क्यों नहीं देते
समाजवाद की दीवारों को
हक़ की यह लड़ाई
हम साथ मिलकर लड़ेगें
साथी कहाँ हो तुम….

6. समय
समय की इस धारा में
बह गये है मूल्य
जहाँ इतिहास का छोर नहीं
यह जीवन की उस धारा की तरह है
जो नहीं करती है विश्राम
बढ़ रही है पथ पर अनवरत
कर रही है प्रकृति का श्रृगांर

7. मैं
मैं मृत्यु का संवाहक
वही नांद-बिंदु का संधान
मैं दानव भी ,मानव भी
मैं हूँ जीवन की मधुशाला
मैं हूँ जीवन का राग
यही ऋतु का श्रृंगार
करते पयोनिधि बरसा का घान
हो रहा जग-जग का निर्वाण
मैं हूँ लोक परलोक की माया
इसमें होता जन- जन का न्याय
करा रहे जीवन का ज्ञान
यही है ‘मैं’ का अहंकार
जिसमें जल रहा मानव का कंकाल
झेल रहा जीवन का अभिशाप
गुफ़ाओ के इन खेल में
होता विषकन्या का भान
यही है ‘मैं’ का प्रत्युतर
जीवन के इस कालचक्र में
‘मैं ‘ ही हैं जीवन का यह अंतिम सत्य….

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हनुमान सहाय मीना
जन्म- राजस्थान के दौसा जिले के एक छोटे से गाँव करनावर में हुआ| शिक्षा- बी.ए.(हिंदी), राजस्थान महाविद्यालय, राजस्थान एम.ए.(हिंदी साहित्य), जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली एम.फिल.(हिंदी साहित्य), हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद पी.एच.डी ‘समकालीन हिंदी कविता में आदिवासी जीवन’ विषय पर शोधरत, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद विभिन्न पत्रिकाओं में शोध-आलेख प्रकाशित

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