ईश्वर प्रदत्त वेदज्ञान से ही विश्व को सभी विद्याओं का ज्ञान हुआ

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-मनमोहन कुमार आर्य

               संसार में समस्त ज्ञान व विद्यायें परा व अपरा के नाम से जानी जाती हैं। इस ज्ञान का आदि स्रोत क्या है? पश्चिम के लोग ईश्वर को यथार्थ रूप में नहीं जानते। इस कारण वहां के लोगों ने ईश्वर व आत्मा विषयक तत्वों व पदार्थों को जानने के लिये तरह तरह की कल्पनायें व अनुमान लगाये हैं। भारत के लोग सृष्टि के आदि काल से वेद ज्ञान से परिचित रहें हैं। हमारे देश में सृष्टि के आरम्भ से ही ऋषि परम्परा चली है। सभी ऋषि वेदों को यथार्थ ज्ञानी होते थे। आश्चर्य है कि वेदों को मानने वाले सनातनी व पौराणिक लोगों में आज शायद ही कोई व्यक्ति वेदों का यथार्थ ज्ञानी हो? महाभारत के बाद से देश में वेदों का ज्ञानी यदि कोई हुआ है तो वह ऋषि दयानन्द थे। योगी अरविन्द भी इस बात को स्वीकार करते थे। उन्होंने कहा है कि ऋषि दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वेदों के यथार्थ अर्थ प्रदान किये। उनके अनुसार भविष्य में वेदज्ञान का और विस्तार होकर वेदों के अनेक नये रहस्यों का प्रकाश भी हो सकता है परन्तु ऋषि दयानन्द को इस बात का श्रेय होगा कि उन्होंने सबसे पहले वेद के सत्य अर्थों रहस्यों का अनावरण किया था। महाभारत के बाद देश में जो परिस्थितियां एवं वातावरण बना उसने वेदों व वेदज्ञान को देश व समाज में अप्रचलित कर दिया। कारण यही था कि ब्राह्मण वर्ग ने अपने आलस्य-प्रमाद, स्वार्थ, अकर्मणयता तथा अज्ञान से वेदों को विस्मृत कर दिया जिस कारण देश व विश्व में अज्ञान फैल गया। महर्षि दयानन्द के विद्याध्ययन कर सामाजिक जीवन में प्रवेश करने के समय तक भारत वेद ज्ञान से बहुत दूर जा सका था। ऋषि दयानन्द को ही इस बात का श्रेय है कि उन्होंने भारत की सभी प्रमुख समस्याओं का कारण वेदों से अनभिज्ञता को बताया और सब समस्याओं का हल वेद ज्ञान को प्राप्त होकर उसके अनुसार आचरण करने को बताया। इस विषय से जुड़े तथ्यों को सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों में देखा जा सकता है। उन्होंने स्वयं अत्यन्त पुरुषार्थ से वेदज्ञान व वेदों को प्राप्त किया था। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। देश की उन्नति के लिये उन्होंने वेदों का उद्धार किया। पहले उन्होंने अप्राप्त वेदों को प्राप्त किया, वेदों के आधार पर अपनी मान्यताओं का देश भर में प्रचार किया और सृष्टि के इतिहास में पहली बार वेदों का सत्य व यथार्थ भाष्य करने का उपक्रम व पुरुषार्थ भी किया।

         हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि परमात्मा ने सृष्टि की रचना उत्पत्ति क्यों की है? इसका उत्तर वैदिक साहित्य के अध्ययन सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों से प्राप्त होता है। परमात्मा ने सृष्टि की रचना अपनी अनादि शाश्वत प्रजा चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, अणुमात्र, जन्ममरण धर्मा, कर्म के बन्धनों में बंधी जीवात्माओं के कल्याण सुख प्रदान करने के लिये की। परमात्मा एक अनादि, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा सृष्टिकर्ता थी और वही इस संसार का संचालन कर रहा है। जीवात्माओं का अस्तित्व भी अनादि व नित्य है। हर माता व पिता अपनी सन्तानों को सुख देने के लिये पुरुषार्थ करते हैं। उन्हें विद्या दान करते व कराते हैं। इसी प्रकार से परमात्मा ने अपनी सन्तान जीवात्माओं के सुख के लिये इस सृष्टि को बनाया तथा उन्हें ज्ञान प्रदान करते हुए अपने वेदज्ञान जिससे मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है, सृष्टि के आरम्भ में ही प्रदान किया था। वेद का ज्ञान संसार की सर्वोत्तम भाषा संस्कृत में है। वेद के शब्द रूढ़ न होकर यौगिक वा योगरूढ़ है। वेदों के सभी शब्दों की रचना एक नियम व सिद्धान्त के अनुरूप है जिसे आर्ष व्याकरण का अध्ययन कर जाना जा सकता है। संसार की किसी भाषा का व्याकरण वेद भाषा संस्कृत के समान उन्नत व वैज्ञानिक नियमों से युक्त नहीं है। वेद के शब्दों के रूपान्तर ही विश्व की अनेक भाषाओं में किंचित पाठभेद व उच्चारण भेद के साथ पाये जाते हैं। इनसे वेदों की प्राचीनता सिद्ध होती है। संसार की सभी भाषाओं की उत्पत्ति भी वेदभाषा के उच्चारण भेद व भौगोलिक कारणों से हुई है।

         वेदों का ज्ञान सार्वभौमिक ज्ञान है। यह ज्ञान मनुष्य मात्र के लिये कल्याण एवं सुख देने वाला है। अन्य सभी ज्ञान साम्प्रदायिक कहे जा सकते है। वेदों का ज्ञान संसार में एक ईश्वर को मान्यता प्रदान करता है। उसके गुण, कर्म स्वभाव का वर्णन भी वेदों में किया गया है। तर्क एवं युक्ति जिसे सत्य को परखने की कसौटी जाना माना जाता है, उस पर भी वेद प्रतिपादित ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति अन्य सभी बातें सृष्टि क्रम के अनुकूल सत्य सिद्ध होती हैं। वेदाध्ययन से वेदों के अपौरुषेय रचना होने का स्पष्ट ज्ञान होता है। वेदों का रचयिता कोई एक मनुष्य वा ऋषि नहीं है। हर पुस्तक को एक या कुछ अधिक व्यक्ति मिलकर लिखते हैं। चार वेदों का लेखक व सम्पादनकर्ता कोई मनुष्य व ऋषि नहीं है। ऋषि मन्त्रद्रष्टा को कहते हैं। मन्त्रकर्ता तो परमात्मा है। यही मान्यता सृष्टि के आदि से आज पर्यन्त चली आ रही है। मनुष्य व ऋषि वेद रचना के इस काम को कर भी नहीं सकते थे। वेदों की महत्ता ऐसी है जिसकी मत-मतान्तरों से कोई तुलना नहीं है। वेद यदि सूर्य के समान हैं तो सभी मत-मतान्तरों की पुस्तकें एक टिमटिमाते दीपक के समान हैं। वेद सूर्य की तरह स्वतः प्रमाण हैं जबकि मत-मतानतरों की वेदानुकूल बातें ही मान्य व स्वीकार्य होती हैं।

          भारत भूमि में उत्पन्न आर्य जाति भाग्यशाली है। उसे सृष्टि की आदि में सर्वव्यापक परमात्मा से वेदों का ज्ञान प्राप्त हुआ था और आज भी वेद अपने मूल यथार्थ स्वरूप में उपलब्ध हैं। लाखों लोग वेद की शिक्षाओं के अनुसार जीवनयापन करते हैं और अपने जीवन में सुखों कल्याण को प्राप्त करते हैं। सत्य एवं अहिंसा के सिद्धान्त भी वेदों से ही प्राप्त हुए हैं। यह दोनों यम नियमों के अन्तर्गत आते हैं। सत्य सृष्टिकर्म के सर्वथा अनुकूल सिद्धान्तों मान्यताओं को कहते हैं। अहिंसा का यथार्थ स्वरूप भी हमें वेद वैदिक साहित्य ही में प्राप्त होता है। अतः संसार के सभ्य व निष्पाप हृदय वाले मनुष्यों को पक्षपात छोड़कर वेदों को अपनाना चाहिये। वेदों से ही विश्व का कल्याण होगा। विश्व में सुख व शान्ति स्थापित होगी। देश व समाज में सुख व शानित की प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है। अन्य मार्ग व मत-मतान्तर तो रेत के बने ऐसे भवन हैं जो विज्ञान के युग में ठहर ही नहीं सकते। उनको तो कभी न कभी समाप्त होना ही है। सत्य के समान असत्य में वह शक्ति नहीं कि वह सत्य का मुकाबला कर सके। सत्यासत्य व धर्माधर्म की लड़ाई में असत्य पराजित होता है तथा धर्म की जय होती है। इस आधार पर भी वेदों की विजय सुनिश्चित है। आवश्यकता केवल यह है कि आर्यसमाज के वैदिक धर्मी लोग संगठित होकर वेदों का प्रचार व प्रसार करें। आर्यसमाज के लोगों को अपने शत्रुओं को पहचान कर उन्हें दूर करना होगा। रोगी शरीर से जिस प्रकार पुरुषार्थ व महत्कार्य नहीं होते उसी प्रकार से शत्रुओं व दुर्जनों के साथ मिलकर सफलतायें प्राप्त नहीं होती। आर्यबन्धु संभल व सुधर गये तो इतिहास बन सकता है और नहीं तो जो इतिहास चल रहा है वही बनेगा जिसे कोई सुहृद आर्य देखना पसन्द नहीं करेगा।

        वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से प्राप्त हुआ ज्ञान है। वेद के साथ हमें भाषा एवं ज्ञान दोनों ही प्राप्त हुए थे। मनुष्य के पास यदि सामान्य ज्ञान भाषा हो तो वह सभी विषयों का ज्ञान विज्ञान विकसित कर सकता है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा के वेद ज्ञान दिये जाने से सम्भव हुआ कि हम वेदों में ज्ञान विज्ञान की जो मान्यतायें सिद्धान्त हैं, उनका अपनी बुद्धि पुरुषार्थ से पुष्टि करें और उन विषयों का विस्तार कर इच्छित परिणाम प्राप्त करें। ऐसा ही किया भी गया था। महाभारत युद्ध तक हमारा देश ज्ञान व विज्ञान में विकसित था। महाभारत के युद्ध ने घोर पतन किया और उसके बाद देश में जो लोग विद्या के प्रचार व प्रसार से जुड़े थे, उनके आलस्य व प्रमाद से विद्या का प्रचार रुक गया। इसी कारण से देश में अज्ञान व अन्धविश्वास फैले। सामाजिक समरसता घट कर अनेक प्रकार की समस्यायें उत्पन्न हुई।

       विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि परमात्मा ने वेदज्ञान दिया होता तो मनुष्य भाषा की उत्पत्ति नहीं कर सकता था। भाषा होती तो ज्ञान विज्ञान की उत्पत्ति का प्रश्न ही कहां था? वेदों की उत्पत्ति के साथ ही हमारे वेद के विद्वानों ने योगाभ्यास कर वेदज्ञान को जाना और उसके आधार पर अनेक प्रकार के प्रयोग करके ज्ञान विज्ञान को विकसित किया। रामायण महाभारत में हम अपने राजाओं महाराजाओं को सिर पर स्वर्ण का मुकुट पहने देखते हैं। सोना पेड़ में नही लगता। इसे विज्ञान की सहायता से उस स्थान की खोज कर प्राप्त करना पड़ता है। पहले स्थान की खोज करनी पड़ती है जहां मिट्टी व खनिजों में सोना हो। इस जानकारी को प्राप्त कर उस खनिज से वैज्ञानिक रीति से सोने को पृथक करना पड़ता है। सोना प्राप्त कर उससे इच्छित प्रकार की वस्तुयें यथा राजमुकुट तथा आभूषण आदि बनाये जाते हैं। प्राचीन काल से हमारे देश के लोग लोहे का प्रयोग भी करते थे। लोहा भी वैज्ञानिक रीति से ही प्राप्त होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्राचीन काल में हमारे देश में बड़ी संख्या में वैज्ञानिक थे। उत्तम व दर्शनीय, भव्य एवं विशाल भवन भी बनते थे। नाना प्रकार के रेशमी, रंगीले, आकर्षक व सुन्दर वस्त्रों का निर्माण भी किया जाता था। रामायण के समय में भी हमारे देश में पुष्पक विमान था। महाभारत में वर्णन आता है कि हमारे देश के लोग अमेरिका, उस समय पाताल लोक कहलाता था, वहां आया जाया करते थे। क्या बिना भूगोल व दिशाओं के ज्ञान, भौगोलिक मानचित्रों एवं तेज गति की नौकाओं के बिना वह आ जा सकते थे?

        ऋषि दयानन्द ने उपदेश मंजरी में कहा है कि सृष्टि के आरम्भ काल में ही हमारे देश के लोग अपने विमानों में बैठकर विश्व के अनेक देशों में जाया करते थे। उन दिनों पूरे विश्व में कहीं भी मानव बस्तियां नहीं थीं। परमात्मा ने एक ही स्थान तिब्बत में मानव सृष्टि की थी। विश्व का जो स्थान रहने के लिये अच्छा प्रतीत होता था वहां यह लोग अपने लोगों को उतार देते थे और अपने अन्य लोगों को वहां ले जाकर रखते थे। इस प्रकार से संसार के सभी देश बसे हैं। हमारा दुर्भाग्य यह रहा कि महाभारत युद्ध के बाद हम अपने प्राचीन वैदिक व ज्ञान विज्ञान युक्त साहित्य की रक्षा नहीं कर सके। विधर्मियों ने नालान्दा, तक्षशिला, चित्रकूट आदि के बड़े बड़े पुस्तकालय तो जलाये ही, अन्यत्र भी जहां धर्म विषयक कोई पुस्तक देखी उसको भी नष्ट किया था। कुछ मूल्यवान पुस्तकें विदेशों में भी पहुंच गईं। इसी कारण हमारे देश में उपलब्ध ज्ञान विज्ञान सहित सभी धार्मिक साहित्य नष्ट हो गया। हमारे देश के अनेक लोगों ने वेदों को कण्ठस्थ किया हुआ था। इस कारण हमारा कुछ साहित्य बच सका। आज हमारे पास वेद अपने यथार्थ स्वरूप में विद्यमान हैं। इन वेदों पर ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों का यथार्थ वेदार्थ भी उपलब्ध है। इनसे वेदों की महत्ता को जाना जा सकता है। वेद से ही सृष्टि के आरम्भ में लोगों को भाषा एवं व्यवहार सहित अपने धर्म अर्थात् कर्तव्याकर्तव्यों का ज्ञान हुआ था। ज्ञान-विज्ञान का ज्ञान व उसकी उन्नति भी वैदिक परम्परा के विद्वानों, ज्ञानियों व वैज्ञानिकों ने की थी। यदि वेद न होते तो ज्ञान व विज्ञान की उन्नति होना सम्भव नहीं था। हम अपने ऋषियों व विद्वानों के ऋणी हैं और उनको सादर नमन करते हैं। ओ३म् शम्।

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