है नाट्यशाला विश्व यह !

है नाट्यशाला विश्व यह, अभिनय अनेकों चल रहे;
हैं जीव कितने पल रहे, औ मंच कितने सज रहे !

रंग रूप मन कितने विलग, नाटक जुटे खट-पट किए;
पट बदलते नट नाचते, रुख़ नियन्ता लख बदलते !
उर भाँपते सुर काँपते, संसार सागर सरकते;
निशि दिवस कर्मों में रसे, रचना के रस में हैं लसे !

दिगदर्श जो नायक किया, पर्दे पै कब आया किया;
कठपुतलियों की डोर वह, चुपके से सरकाया किया !
भाया किया जिनको था वह, उनकी नज़र आया किया;
आयाम उनके ‘मधु’ नयन, नेत्रों नटी के तक रहा !

 

 

 

 

हैं कीट कितने विचरते !

हैं कीट कितने विचरते, सृष्टि में सहसा थिरकते;
लुपते लुकाते लुढ़कते, ले परीक्षा पट छोड़ते !

हृद हमारे को जाँचते, प्रवृति हमारी झाँकते;
वे तुरत छिपते छिपाते, उर हमारे को उठाते !
जब नज़र उनसे मिलाते, वे प्रेम को पहचानते;
आशीष देना चाहते, फिर लोक अपने सिधाते !

हर आत्म यों ही टहलती, सत्कार श्रद्धा खोजती;
प्रभु का प्रसाद परोसती, उनके ही स्वर में बोलती !
जो तोलते मन खोलते, प्रति प्राण अपना समझते;
वे प्रीति करना जानते, ‘मधु’ माखियों को पालते !

 

 

नाटक नियन्ता के अनंत !

नाटक नियन्ता के अनंत, इस जगत पट पर हो रहे;
तट अनेकों घट असंख्यों, साक्षी बने वे लख रहे !

हर हाथ में, हर साथ में, हर गात में वे गा रहे;
गोपन कहाँ वे हैं रहे, गोपाल गोपिन्ह भा रहे !
गण उन्हीं के कण उन्हीं के, गुण उन्हीं के पैदा किए;
गणना कहाँ कर जानते, विस्तार विनिमय चाहते !

ना नटों में ना पटों में, झटपट किए सब पलों में;
हर तल तरंगित कर रहे, झिलमिला जीवन तर रहे !
योजन सहस्रों जन विजन, ज्योति जला बुलवा रहे;
‘मधु’ सुर में स्वर ढलवा रहे, संशय मिटा सिहरा रहे !

 

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