“वैदिक विधि से की गई उपासना समग्र उन्नति का आधार”

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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

उपासना शब्द समीप बैठने को कहते हैं। मनुष्य किसके समीप बैठे जिससे उसे ज्ञान व सुख की प्राप्ति हो, इसका उत्तर
है कि उसे सच्चरित्र विद्वानों की संगति करनी चाहिये अथवा उनके
पास बैठना चाहिये। ऐसा करने से वह अपनी सभी शंकाओं का
निवारण कर जीवन में ज्ञान की प्राप्ति और नैतिक गुणों को प्राप्त कर
उन्नति कर सकते हैं। संसार में नैतिक गुणों से सम्पन्न चरित्रवान
विद्वान निश्चय ही बड़े होते हैं परन्तु सबसे बड़े नहीं होते। संसार में
सबसे महान, विद्वानों का विद्वान, परम विद्वान, हमारा रक्षक और
हमें हमारे शुभ व अशुभ कर्मों का फल प्रदाता सर्वव्यापक, सर्वज्ञ,
सर्वशक्तिमान, हमें मोक्षानन्द देने वाला परमात्मा है। परमात्मा से
उसके गुणों, शक्तियों एवं आनन्द आदि की प्राप्ति उसके ज्ञान चार
वेदों के स्वाध्याय एवं उसकी वैदिक विधि से उपासना कर प्राप्त की जा सकती है। ईश्वर की उपासना की विधि पर ऋषि
पतंजलि ने अपने योगदर्शन ग्रन्थ में प्रकाश डाला है। सौभाग्य से योगदर्शन ग्रन्थ पर अनेक उच्च कोटि के आर्य विद्वानों के
हिन्दी भाषा में भाष्य व टीकायें उपलब्ध हैं। इन्हें पढ़कर उपासना विषय को समझा जा सकता है। संसार में योगदर्शन ही
आदर्श व सत्य उपासना का ग्रन्थ है। योगदर्शन के अनुसार उपासना न करने व इससे विपरीत विधियों से उपासना करने से
साधक व उपासक को वह लाभ प्राप्त नहीं होता तो योगदर्शन को समझकर तथा ऋषि दयानन्द प्रणीत ‘‘वैदिक सन्ध्या” की
विधि से उपासना करने से होता है। अनेक आर्य विद्वानों ने सन्ध्या पद्धति पर भी विस्तृत टीकायें लिखी हैं। पं0 विश्वनाथ
विद्यालंकार, पं0 गंगा प्रसाद उपाध्याय, आचार्य चमूपति, स्वामी आत्मानन्द सरस्वती आदि विद्वानों के सन्ध्या पर
व्याख्यान के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। योगीराज स्वामी लक्ष्मणानन्द जी के ग्रन्थ ‘ध्यान-योग-प्रकाश’ का अध्ययन कर सन्ध्या-
उपासना में प्रवेश किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द का आर्याभिविनय ग्रन्थ भी स्वाध्याय एवं उपासना के लिये उत्तम ग्रन्थ
है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से उपासना का लाभ भी प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द सरस्वती रचित ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के
ब्रह्म विद्या, वेदोक्त धर्म, ईश्वर स्तुति प्रार्थना याचना समर्पण उपासना विद्या, उपासना विषय तथा मुक्ति विषयों को
पढ़कर भी उपासना के विषय में अपने ज्ञान में वृद्धि की जा सकती है। इससे उपासना का सत्य स्वरूप विदित होकर उपासना
में प्रविष्ट होने में सहायता मिलती है।
ऋषि दयानन्द ने प्रातः व सायं समय में एक घंटा उपासना करने का विधान किया है। यदि उपासना केयम व नियम
आदि सभी विधानों का पालन करते हुए उपासना की जाये तो निश्चय ही मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति
होती है। यह तीन उन्नति ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य कह सकते हैं। उपासना से अनेक लाभ होते हैं। इससे प्रमुख लाभ
तो यह होता है कि मनुष्य बुराईयों वा बुरे कर्मों को छोड़कर भद्र कर्मों को करता है जिससे वह दुःखों से बचता है। उपासना से
मनुष्य में गुणों की निरन्तर वृद्धि होती है। उपासना से मनुष्य की अविद्या का नाश होने सहित उसी विद्या में निरन्तर
वृद्धि होती जाती है। ऐसा विज्ञ व योगी बताते हैं। अतः अन्य जीवन के कार्यों से समय को बचाकर उपासना में प्रातः व सायं
एक घंटे का समय अवश्य लगाना चाहिये। उपासना का लाभ मनुष्य को न केवल इस जन्म ही होता है अपितु इस जन्म में
मृत्यु के बाद पुनर्जन्म में भी होता है। इस जन्म के कर्म उत्तम व श्रेष्ठ होंगे तो हमें अगला जन्म उत्तम व श्रेष्ठ मनुष्य योनि में
धार्मिक माता-पिताओं के पास मिलेगा जहां हमें अपनी समग्र उन्नति करने के साधन प्राप्त होंगे और हम ऐसा करके जीवात्मा
के चरम लक्ष्य ‘‘मोक्ष” प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होकर उसके निकट पहुंच सकते अथवा उसे प्राप्त भी कर सकते हैं। इस दृष्टि

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से उपासना कर्म को सर्वश्रेष्ठ कर्म भी कह सकते हैं। उपासना से जो लाभ होते हैं वह लाभ अन्य किसी सांसारिक पदार्थ व धन
आदि के द्वारा सुलभ नहीं होते। यही कारण था कि प्राचीन काल में हमारे देश के लोग वेदानुकूल जीवन व्यतीत करते हुए
ईश्वरोपासना वा योगसाधना में रत रहकर अपनी शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति करते थे। आज भी उनका यश
विद्यमान है। इससे मनुष्य को अभ्युदय एवं निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। अतः ईश्वर की उपासना से युक्त वैदिक जीवन ही
श्रेष्ठ जीवन है।
वैदिक विधि से उपासना करने से मनुष्य का सम्बन्ध इस सृष्टि के स्वामी जगतपति ईश्वर से होता है। ईश्वर श्रेष्ठ
एवं सर्वोत्तम गुणों से युक्त सत्ता हे। ईश्वर का हमारा प्रमुख सम्बन्ध व्याप्य-व्यापक वा स्वामी-सेवक का है। ईश्वर हमारा
रक्षक, स्वामी, पिता, माता, बन्धु, मित्र, आचार्य, राजा, न्यायाधीश, अनादि काल से मित्र व साथी है और भविष्य में अनन्त
काल तक इन सभी सम्बन्धों को बनाये रखनेवाला है। उपासना करते हुए हम ईश्वर से जो प्रार्थना व सम्वाद एकाग्र मन होकर
करते हैं, वह सब उसको विदित होता है। वह हमारी पात्रता के अनुसार हमारी प्रार्थना को स्वीकार करता है। अपने भीतर पात्रता
उत्पन्न करने के लिये हमें वेदों की शिक्षाओं का आचरण करना है। यदि हम ऐसा करते हैं तो निश्चय ही हमें ईश्वर से इन
सम्बन्धों का लाभ मिलता है। ऋषियों और योगियों के जीवन पर हम दृष्टि डालते हैं तो हम उन्हें सुखी, सन्तुष्ट, निरोग,
स्वस्थ, ज्ञान-विज्ञान से युक्त, परोपकारी, समाजोपकारक, देशहितैषी, अन्धविश्वासों के निवारक, सामाजिक समानता के
पोषक, जन्मना जातिवाद के विरोधी एवं गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर सबको यथायोग्य सम्मान एवं अधिकार देने का
समर्थक व इनका प्रचारक पाते हैं। ऋषि और योगी ईश्वरोपासना रूपी साधना से ईश्वर का साक्षात्कार भी करते थे व वर्तमान
में भी कुछ योगियों को ईश्वर का साक्षात्कार होता है। यही जीवन का प्रमुख व अन्तिम लक्ष्य भी है। इसी से मनुष्य को मोक्ष,
जन्म-मरण के बन्धनों वा दुःखों से दीर्घावकाश मिलता हैं। हम राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द, श्रद्धानन्द, पं0 लेखराम, पं0
गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द, पं0 चमूपति आदि महापुरुषों के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो यह सब
हमें उच्च कोटि के ईश्वरोपासक दृष्टिगोचर होते हैं। हमें इनका जीवन आदर्श जीवन अनुभव होता है। इन महापुरुषों का आज
भी सच्चे एवं जागरुक मनुष्यों में यश व कीर्ति वर्तमान है। इन सब महापुरुषों का जीवन अभ्युदय एवं निःश्रेंयस का उदाहरण
था। इसके मूल में हम इनकी उपासना, स्वाध्याय, पुरुषार्थ आदि गुणों को पाते हैं। अतः उपासना से मनुष्य का जीवन समग्र
उन्नति को प्राप्त होता है तथा उसका यश दीर्घ काल सुरक्षित रहता है। जीवन में इससे अधिक मनुष्य के प्राप्तव्य कुछ भी नहीं
है। अतः हमें उपासना को जानने के लिये ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि
ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए उपासना में प्रविष्ट होना चाहिये। हम देखेंगे कि हमारा भावी जीवन समग्र उन्नति, सुख व यश
का पर्याय जीवन होगा।
ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में उपासना विषय पर बहुंत प्रभावशाली शब्दों में प्रकाश डाला है।
उनके कुछ शब्दों को हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि जब उपासना करना चाहैं तब एकान्त शुद्ध देश में जाकर,
आसन लगा, प्राणायाम कर बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक, मन को नाभिप्रदेश में वा हृदय, कण्ठ, नेत्र, शिक्षा अथवा पीठ के
मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न हो कर संयमी होवें।
जब इन साधनों को करता है तब उस का आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है। नित्यप्रति ज्ञान
विज्ञान बढ़ाकर मुक्ति तक पहुंच जाता है। जो आठ पहर में एक घड़ी भर भी इस प्रकार ध्यान करता है वह सदा उन्नति को
प्राप्त हो जाता है। वहां सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना करनी सगुण और द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणों से
पृथक मान, अतिसूक्ष्म आत्मा के भीतर बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ता से स्थित हो जाना निर्गुणोपासना कहाती है।
इस (उपासना) का फल–जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्वर के
समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो
जाते हैं। इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये। इस प्रकार करने से इसका फल पृथक् होगा

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परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, कि पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा ओर सब को सहन कर सकेगा।
क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है।
क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रक्खे हैं, उस का गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न
मानना, कृतघ्ना और मूर्खता है।
ऋषि दयानन्द के उपुर्यक्त शब्दों के साथ ही हम लेखनी को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

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