विश्वास का जीव विज्ञान

0
1780

 विज्ञान संसार के अक्षय ऐश्वर्य को हमारे समक्ष उद्घाटित करता है, इसकी अप्रत्याशितता और अचम्भेपन के साथ।
विज्ञान सारी समस्याओं को सुलझाने का दावा नहीं करता। ऐसे अनेको क्षेत्र हैं जहाँ इसका परवाना नहीं चलता।
—– डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन
आदिम मनुष्य दूसरे तमाम जानवरों की ही तरह संग्रह और शिकार के द्वारा अपना भोजन जुटाया करता था। फिर उसने खेती का ईजाद कर लिया। और इसके बाद उसके और उसके पारितंत्र के लिए कुछ भी पहले जैसा नहीं रह गया। आदमी घने समूहों में रहने लगा। उसने जानवरों को पालतू बनाया। वह हर वक्त भोजन का जुगाड़ करने की मजबूरी से आजाद हुआ। परिवार नाम की संस्था का उदय हुआ। अब उसके पास फुरसत के पल थे, जो चिन्तन मनन की पूर्वशर्त है।
मनुष्य अपने अस्तित्व और अपने आसपास के साथ अपने रिश्ते को लेकर विस्मयाभिभूत था। उसने ब्रह्माण्ड की प्राकृतिक घटनाओं के बारे में समझ बनाने की कोशिश की। उसने ईश्वर और आत्मा की अवधारणाएँ अर्जित की। इसके साथ ही अपने भय, संशय और कौतूहल से निपटने के लिए उसे एक सहारा और सन्दर्भ मिल गया। इस उपलब्धि ने धर्म और संस्कृति के उद्भव और विकास का मार्ग प्रशस्त किया। भगवान और भूत ने मनुष्य को अपने अस्तित्व, रोजाना जिन्दगी के द्वन्द्व, और माहौल के साथ सामञ्जस्य बनाए रखने में सही औजार की भूमिका अदा की। सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और करुणामय ईश्वर की अवधारणा उसके जीवन को सार्थकता से मंडित करने के साथ कठिनाइयों में सहारा देती है। धर्म ने उसके लिए एक आचार संहिता उपलब्ध किया और जीने को सार से युक्त किया।
मनुष्य अपनी सारी जिज्ञासा और कौतूहल का समाधान धर्म से पाने लगा। समय के साथ जानकारियाँ इकट्ठी होती रहीं। जो रहस्य था, वह जानकारी में तब्दील होता रहा। आदमी ने सवाल करना सीखा। मनुष्य भगवान और भूत के हवाले के बग़ैर ही अपने सवालों के जवाब पाने लगा। समय के साथ ज्ञान की समानान्तर विधाएँ विकसित होती गईं। दर्शन और विज्ञान का विकास होता गया। भगवान और भूत के साम्राज्य सिकुड़ते रहे।
सन 1859 में चार्ल्स डार्विन की पुस्तक ’On the origin of species’’ का प्रकाशन धर्म और ज्ञान के क्षेत्रों में जिज्ञासा के नए और क्रान्तिकारी आयाम के सम्मिलित होने का सूचक हो गया। डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धान्त ने सृष्टि में ईश्वर की किसी प्रकार की भूमिका के लिए जगह नहीं छोड़ी। इसके अनुसार जीवन मात्र पदार्थ के अपने परिवेश के साथ अन्तर्क्रिया के नतीजे में एक विशेष स्तर पर विन्यास का नतीजा है। ईश्वरीय विधान अप्रासंगिक हो गया। प्राकृतिक चयन और योग्यतम की उत्तरजीविता जैसे जुमलों से जाहिर होता है कि जीवों के बीच आपस में अस्तित्व के लिए लगातार संघर्ष जारी रहा करता है। जहाँ अस्तित्व बनाए रहना ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य हो, वहाँ ’’योग्यतम की उत्तरजीविता’’ मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को सैद्धान्तिक औचित्य देती है। प्रतियोगिता और संघर्ष के बाद योग्यतम की उत्तरजीविता प्रबुद्ध लोगों का चालू जुमला हो गया।
अब आम अवलोकन है कि हम वही हैं जो हमारा डीएनए है. इसका तात्पर्य है कि हमारे लक्षण हमारे जीन्स में सन्निहित हैं और हम उनके सामने बेबस हैं। इसे अनुवंशिक नियतिवाद (Genetic Determinism) कहा जाता है। यह वह क्रियाविधि है जिसके जरिए जिन्स पर्यावरण के सहयोग से जीव के शारीरिक और क्रियाविधि सम्बन्धी आचरण निर्धारित करते हैं। इसका मानना है कि जीन्स जीव विज्ञान का नियन्त्रण करते हैं।इसका मतलब हुआ कि हमारे जीव विज्ञान के नियन्त्रण में हमारी कोई भूमिका नहीं होती क्योंकि अपनी जेनेटिक अक्षय निधि का निर्धारण हम नहीं करते। इसलिए ऐसा मानना गलत नहीं होगा कि व्यक्ति अपनी आनुवंशिकता का शिकार होता है। आनुवंशिकता के युग के प्रारम्भ होने के साथ ही हमारे विश्वास की प्रोग्रामिंग ऐसी हो गई है कि हम मानने लगे हैं कि हम अपने जीन्स के अधीनस्थ होते हैं। जीन द्वारा नियन्त्रित हमारे लक्षणों की अभिव्यक्ति एंजाइम्स द्वारा नियन्त्रित रासायनिक प्रतिक्रियाओं की शृंखलाओं के जरिए होती है।एंजाइम प्रोटिन अणु होते हैं। इन अणुओं का संश्लेषण जीन(डीएनए) द्वारा निर्देशित और नियन्त्रित होता है। इसी तरह जीन हमारे लक्षणों की अभिव्यक्ति का निर्धारण करते हैं। पर्यावरण की भूमिका रासायनिक प्रतिक्रियाओ के लिए आवश्यक पदार्थ एवम् माध्यम उपलब्ध कराने से सम्बन्धित है। इस तरह पर्यावरणीय संकेत आनुवंशिक सन्देश का लिप्यान्तर और अनुवाद करते हैं। प्राकृतिक वरण पर्यावरण के द्वारा प्रस्तुत समस्याओं को कुशलता से सुलझा लेना नहीं हुआ करता: बल्कि इसके विपरीत जीव एवम् पर्यावरण सक्रिय रूप से परस्पर एक दूसरे को तय करते हैं।
The Biology of Belief के लेखक Bruce H. Lipton, अनुवंशिक नियतिवाद (Genetic Determinism) से असहमति जताते हैं। उनकी मान्यता है कि पर्यावरणीय संकेत सायटेप्लाज़्म में हो रही प्रक्रियाओं को प्रभावित कर जीन की अभिव्यक्ति को बदलते हैं और इस तरह कोशा के भाग्य को नियन्त्रित करते है, कोशा की हरकत को प्रभावित करते है, कोशा की उत्तरजीविता नियन्त्रित करते है और कोशा को मौत भी दे सकते है। जीव का भाग्य और व्यवहार प्रत्यक्ष तौर पर परिवेश के संवेदन से सम्बद्ध होते हैं। सीधी भाषा में हमारे जीवन का चरित्र इस बात पर आधारित है कि हम उसके प्रति किस तरह की संवेदनशीलता रखते हैं।
यह नई सजगता जाहिर करती है कि किस तरह जीवन के तजुर्बों के जवाब में हमारे जीन्स अनवरत फिर फिर बनाए जाते रहते हैं। यह बात फिर से रेखांकित करती है कि जीवन के प्रति हमारे संवेदन हमारे जीव विज्ञान को निर्धारित करते हैं।
लिपटन अपने उस काम की समीक्षा कर रहे थे, जिन क्रियाविधियों के जरिए कोशाएँ अपने शरीर क्रिया विज्ञान तथा आचरण को नियन्त्रित करते हैं। उन्हें एकाएक महसूस हुआ कि कोशा का जीवन उसके जीन्स के द्वारा नहीं, बल्कि उसके भौतिक और उर्जात्मक परिवेश द्वारा नियन्त्रित होता है. उनका निष्कर्ष था कि जीवन की क्रियाविधि कोशा की अपने पर्यावरण के प्रति अभिज्ञता को द्वारा संचालित होती न कि अपने जीन्स के द्वारा।
अनुवंशिक जीव विज्ञान एवम् क्वाण्टम भौतिकी के क्षेत्र में हाल के अध्ययनों के फलस्वरुप नवीन जीव विज्ञान The New Biology का जन्म हुआ है। इसकी मान्यता है कि पर्यावरण(बाहरी ब्रह्माण्ड तथा आन्तरिक शरीर क्रियाविधि) , और अधिक महत्व की बात, पर्यावरण के संकेतों की हमारी अनुभूति हमारे जीन्स की सक्रियता को सीधे नियन्त्रित करती है। ऐसा प्रदर्शित किया जा चुका है कि जिनोम काफी तरल होते हैं, इसके साथ ही पर्यावरणीय संकेतों के प्रति काफी संवेदनशील भी। ये आविष्कार लैमार्क द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त का पुनः अवलोकन करने की जरूरत बतलाते हैं। लैमार्क के सिद्धान्त के सुझाव के अनुसार क्रमविकास जीवों और उनके पर्यावरण के बीच हस्तक्षेप करनेवाले ऐसी सहयोगात्मक अन्तःक्रिया पर आधारित होता है जो विभिन्न जीवों को एक गतिशील विश्व में जीवित रहने और विकसित होने में सक्षम करता है।
नवीन जीव विज्ञान (New Biology) दिखलाता है कि डीएनए जीव विज्ञान का नियन्त्रण नहीं करता. बल्कि डीएनए ही कोशा के बाहर से आनेवाले संकेतों, से नियन्त्रित होता हैं। इन पर्यावरणीय सकेतों में हमारे सकात्मक और ऋणात्मक विचार भी शामिल हैं। कोशा विज्ञान एवम् क्वाण्टम भौतिकी में डॉ लिपटन के नवीनतम एवम् सर्वोत्तम अनुसंधान स्थापित करते हैं कि हम अपने सोचने के तरीके को पुनः प्रशिक्षित करके अपने शरीरों को बदल सकते हैं।
डॉ ब्रुस एच लिपटन New Biology की रुपरेखा अपनी पुस्तक ”Biology of Belief” में पेश करते हैं। इस पुस्तक में वे स्वीकार करते हैं कि उनके अनुसंधान के निष्कर्षों तथा व्यक्तिगत अनुभवों ने उन्हें आध्यात्मिक वैज्ञानिक में रुपान्तरित कर दिया है।.
नवीन जीव विज्ञान प्राणी परिवेश समष्टि को एक समन्वयित सम्पूर्ण मानता है। यह उत्तरजीविता के लिए व्यक्तियों के बीच प्रतियोगिता और संघर्ष की डार्विन की अवधारणा को त्यागकर प्रजातियों के बीच सहयोग की लैमार्कियन अवधारणा को मान्यता देता है। न्यू बायलॉजी शरीर- मन की पहेली को, ऐसा सुझाव देकर कि हमारे विचार हमारे चरित्र को प्रभावित करते हैं पुनरज्जीवित करता है । हमारी नियति और आचरण पर्यावरण की हमारी संवेदनशीलता से सीधे जुड़ी हुई है। सीधी भाषा में हमारे जीवन का स्वरूप इस बात पर आधारित है कि हम अपने परिवेश के प्रति किस तरह संवेदित हैं। ऐसा कहा जाना चाहिए कि सूक्ष्म मन स्थूल शरीर को प्रभावित करता है, जैसा कि डार्विन के पहले के विचारक मानते रहे थे
चार्ल्स डार्विन ने जीवन के उद्भव के बारे में लैमार्क के सिद्धान्त से मौलिक रुप में अलग सिद्धान्त का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, तो हम विकास के लिए आनिवार्य सहयोग की बात भूल गए। करीब डेढ़ सौ साल पहले डार्विन ने बताया कि जीवों के बीच अस्तित्व के लिए लगातार संघर्ष चलता रहता है। उनके अनुसार संघर्ष और हिंसा न केवल जीवों(मनुष्य) की प्रकृति का हिस्सा ही है, साथ ही ये विकासात्मक प्रगति के मुख्य बल भी हैं। अपनी पुस्तक के अन्तिम अध्याय में डार्विन ने जीवन के लिए अवश्यम्भावी संघर्ष की चर्चा की और लिखा कि विकास की प्रकृति के अकाल और मौत के साथ युद्ध के द्वारा चालित है। इस निष्कर्ष को डार्विन की धारणा कि विकास बेतरतीब हुआ करता है, के साथ जोड़कर देखा जाए तो ऐसा संसार उभड़ता है जो टेनिसन की भाषा में दाँत और पंजों में लाल होता है, उत्तरजीविता के लिए निरर्थक, खूनी लड़ाइयों का सिलसिला
आनुवंशिक विकासवादी सतर्क करते हैं, अगर हम अपनी साझी आनुवंशिक नियति के सबकों पर अमल करने से परहेज करते हैं, जो सभी प्रजातियों के बीच सहयोग के महत्व की शिक्षा देते हैं तो हम मानवीय अस्तित्व के लिए खतरा उपस्थित करेगे। हमें डार्विन के सिद्धान्त से, जो व्यक्ति के महत्व को रेखांकित करता है, से ऐसे सिद्धान्त की ओर आगे बढ़ना होगा, जो समुदाय के महत्व को रेखांकित करे। टिमॉथी साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं जो बताते हैं कि विकास प्रजातियों के बीच की अन्तःक्रिया पर अधिक निर्भऱशील है बनिस्पत व्यक्तियों के बीच की। विकास योग्यतम समूह क. उत्तरजीविता की बात है न कि योग्यतम व्यक्ति की उत्तरजीविता पर।
सन्दर्भ— The Biology of Belief by Bruce H. Lipton, PH.D

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here