चुनौतियों के बीच हिन्दी रंगमंच 

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विश्व रंगमंच दिवस पर विशेष
मनोज कुमार

वैश्विक परिदृश्य में हर उत्सव के लिए एक दिन निश्चित किया गया है. इस क्रम में रंगमंच के लिए मार्च माह की 27 तारीख निश्चित है. यह दिन विश्व रंगमंच के नाम समर्पित है. विश्व रंगमंच की अवधारणा क्या है और क्यों मनाया जाता है, यह रंगमंच की विधा से जुड़ेे लोगों के लिए जिज्ञासा का विषय कतई नहीं है लेकिन भारत में खासतौर पर हिन्दी रंगमंच से जुड़े लोगों के लिए आज भी रंगमंच एक चुनौती की विधा है. रंगमंच को व्यापक फलक में देखा जाना चाहिए. रंगमंच, थियेटर यह ऐसी जगह है जो कलाकारों को मांजती है, निखारत है और उन्हें एक पहचान देती है. यहां कोई शपथ नहीं दिलाई जाती है कि इसके बाद वे समाज की शुचिता के लिए संदेशवाहक का काम करेंगे लेकिन स्वप्रेरणा से प्रत्येक कलाकार यह काम करता है. रंगमंच का बुनियादी काम है सुप्त समाज को जागृत करना. जनजागरण के इस अभियान में गंभीरता और एकरसता होगी तो संदेश नहीं जा पाएगा, इसीलिए मनोरंजन के साथ जोड़ा गया. जैसा कि संचार के तीन मुख्य उद्देश्य होता है पहला सूचना देना, दूसरा शिक्षित करना और तीसरा मनोरंजन करना. यह औ बात है कि संचार अपने तीसरे पक्ष को ही बेहतर ढंग से जी रहा है. खैर, रंगमंच अपने जन्म से लेकर अब तक अपने मूलभूत उद्देश्यों से भटकता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है. जिस तरह की चुनौतियों से हिन्दी रंगमंच को जुझना पड़ रहा है और जिस तरह वह चुनौतियों के बीच अपनेआप को जीवित ही नहीं, बल्कि सक्रिय बनाये रखा है, वह सचमुच में विश्व रंगमंच दिवस को सार्थक करता है.
हिन्दी रंगमंच की चुनौतियों की चर्चा करते हैं तो चुनौतियों से बात शुरू होती है और चुनौतियों पर ही समाप्त हो जाती है. ऐसा भी नहीं है कि अपने जनम के समय हिन्दी रंगमंच बेहद साधन सम्पन्न रहा हो लेकिन आज जो संकट सामने है, वह अलग किस्म के हैं. नाटकों को लेकर आम आदमी में अब वह उल्लास बचा नहीं दिखाई देता है जो कभी नाटकों के प्रति होता था. इसका सबसे बड़ा कारण टेलीविजन है. मध्यमवर्गीय परिवारों में टेलीविजन के फूहड़ धारावाहिकों ने ऐसे अपने कब्जे में कर रखा है कि वह थियेटर तक आना ही नहीं चाहता है. यह संकट पिछले 10 वर्षों में बहुत ज्यादा बढ़ा है. घर के भीतर कैद होने की यह मानसिकता रंगमंच से आम आदमी को दूर कर रही है जो न केवल रंगमंच के लिए घातक है बल्कि उस आम आदमी के लिए भी जो टेलीविजन के मोहजाल में फंसा हुआ है. इन बेतुके धारावाहिकों का दुष्परिणाम यह है कि श्रेष्ठ साहित्य, दुनिया की समस्या और उनसे लडऩे की जो ताकत रंगमंच से मिलती है, वह खत्म होती जा रही है. हर परिवार समझौतावादी हो रहा है. वह सच्चाईयों से भाग रहा है और वह सपने पाल रहा है कि वह ऐसी ही जिंदगी जी सकता है. सपने और सच के बीच जो ऊर्जा देने का काम रंगमंच करता था, वह लगभग नदारद हो रहा है. रंगमंच तो अपना काम कर रहा है लेकिन आम दर्शक दूर हो रहा है. अब रंगमंच देखने आने वालों में आम की जगह खास लोग ही शेष रह गए हैं.
रंगमंच की चुनौती यही एक नहीं है. आर्थिक संसाधन भी उसके पास नहीं है. सरकारों से मिलने वाले अनुदान पर निर्भर रहना उसकी मजबूरी है क्योंकि थियेटर को चलाने के लिए किसी समय समाज की ओर से मिलने वाली मदद की परम्परा का भी लोप हो चुका है. नाटक-नौटंकी के प्रति समाज में आकर्षण होता था और यही आकर्षण अब समाप्ति की ओर है. नाटकों में पुराने और मंझे हुए लोगों के अलावा नए लोगों का आना अच्छा लगता है लेकिन सरकारी अनुदान पाने के लालच में लगातार नाट्य संस्थाओं का उदय होना चिंताजनक है. भोपाल जैसे शहर में नाट्य मंडलियों की संख्या जिस तेजी से बढ़ी है, वह चिंताजनक है. नई-नई नाट्य मंडलियों के स्थान सब मिलकर एक बड़ी नाट्य संस्था खड़ी करते तो इसका असर व्यापक होता. शौकिया रंगमंच भी हाशिये पर चला जा रहा है और इसका कारण है कि विभिन्न शासकीय उपक्रमों में नौकरीपेशा लोगों का अपना रंग गु्रप का होना. ऐसे लोग शासकीय प्रक्रियाओं को बेहतर ढंग से जानते हैं तो अनुदान प्राप्ति के वह तमाम प्रक्रियाओं को सहजता से पूरा कर लेते हैं. यह प्राब्लम पूरे देश में है और इस पर नियंत्रण पाने की जरूरत है. जो लोग विशुद्व रूप से रंगमंच के लिए समर्पित हैं, उनका हक मारा जाता है क्योंकि ना तो उनके पास सरकारी सेवा में अवसर है और न अनुदान मिल रहा है तो वे रंगमंच चलायें कैसे?
बड़ी संख्या में नाट्य संस्था होने की समस्या यह भी है कि हिन्दी में नाटकों की संख्या बेहद सीमित है. नए नाटक लिखे नहीं जा रहे हैं और जो लिखे जा रहे हैं, वह स्थानीय और औसत किस्म के लेखक लिख रहे हैं. रंगमंच समाज की मूलभूत समस्याओं की तरफ आईना दिखाता है और नाटकों का लेखन पूरे जीवन के अनुभव का निचोड़ होता है. अनुदित नाटकों या पूर्व में लिखे गए नाटकों का दुहराव होता है जो दर्शकों को अपने आपसे स्वयमेव दूर करता है. इससे अच्छा हो कि लगातार नाट्य समारोह के स्थान पर नाट्य लेखन की कार्यशाला हो और नए नाटक तैयार किए जाएं. कार्यशाला के दरम्यान जो नाटक तैयार हों, उस पर विमर्श हो और मुकम्मल रूप जब मिल जाए तो उसका मंचन किया जाए. हिन्दी रंगमंच के लिए एक बड़ी चुनौती नाट्य प्रदर्शन के लिए स्थान की कमी का होना. इस पर भी व्यापक रूप से विमर्श करना चाहिए और प्रत्येक शहर में एक ऐसा मंच विकसित करने का प्रयास हो जहां नाट्य प्रदर्शन के लिए अलग से स्थान सुनिश्चित हो.
विश्व रंगमंच दिवस की सार्थकता तभी होगी जब हिन्दी रंगमंच अपने आपको स्थापित कर सकेगा. फौरीतौर पर देखें तो हिन्दी रंगमंच व्यापक लगता है लेकिन भाषाई रंगमंच की तरफ देखें तो हम उनके पासंग में कहीं खड़े भी नहीं हो पाते हैं. हिन्दी और हिन्दी रंगमंच की हालत में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. इसलिए इसका एक उपाय यह भी हो सकता है कि  अहिन्दीभाषी राज्यों में हम लोग जाएं और उनकी कलाकर्म की बारकियों को समझें, जानें और उसके अनुरूप अपने आपमें सुधार लाने की प्रयत्न करें क्योंकि विलाप किसी संकट या चुनौती का समाधान नहीं है बल्कि स्वयं को सम्पन्न बनाना ही इसका एकमात्र समाधान है.

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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