अपनी ही जड़ों से उखड़ते आदिवासी

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 आदिवासियों के नायक बिरसा मुण्डा की जंयती के अवसर पर दिल्ली में देश के दूर दराज के राज्यों से आए आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों ने ‘भारतीय आदिवासी जनमंच के अध्यक्ष विवेकमणि लाकड़ा के नेतृत्व में आदिवासियों के अधिकारो की आवाज बुंलद की।

महामहिम राष्ट्रपति को दिये गए ज्ञापन में कहा गया कि आदिवासी समाज में अशांति, आक्रोश और नाराजगी है, क्योंकि देश की आजदी के 65 वर्ष बाद भी उनका जीवन हाशिए पर है। उनकी कही कोर्इ सुनवार्इ नही है। राज्य और केन्द्र उनके प्रति दमन की नीति अपनाए हुए है। आदिवासी समाज में भुखमरी बढ़ती जा रही है, कल्याणकारी योजनाए अधूरी पड़ी है आदिवासी विकास योजनाओं के नाम पर सरकारी खजाना लूटा जा रहा है। आदिवासी जीवन का आधार जल, जंगल, जमीन को लूटा जा रहा है और विरोघ करने वालो को जेलो में डाला जा रहा है।

वर्ष 2010 की संयुक्त राष्ट्र संघ की द स्टेट आफ द वल्डर्स इंडीजीनस पीपुल्स नामक रिपोर्ट में कहा गया है कि मूलवंशी और आदिम जनजातिया पूरे विश्व में अपनी संपदा, संसाधन और जमीन से वंचित व विस्थापित होकर विलुप्त होने के कगार पर है।

रिपोर्ट में भारत की चर्चा करते हुए कहा गया है कि आदिवासी बहुल क्षेत्रो में विकास के नाम पर चलार्इ जा रही परियोजनाओं के कारण उनका विस्थापन हो रहा है। गरीबी, बिमारी, बेरोजगारी और अशिक्षा के कारण आज आदिवासी समाज अपनी संस्कृति से दूर होता जा रहा है। परसंस्कृति ग्रहण की समास्या ने आदिवासी समाज को एक ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है जंहा से न तो वह अपनी संस्कृति बचा पा रहा है और न ही आधुनिकता से लैस होकर राष्ट्र की मुख्यधारा में ही शामिल हो पा रहा है। बीच की स्थिति के कारण ही उनके जीवन और संस्कृति पर खतरा मडराने लगा है। यह सब कुछ उनके जीवन में बाहरी हस्तक्षेप के कारण हुआ है।

‘भारतीय आदिवासी जनमंच के अध्यक्ष विवेकमणि लाकड़ा मानते है कि आदिवासी सरना प्रकृति संस्कृति लुप्त होती जा रही है इसे बचाने की जरुरत है। आदिवासी समाज आज बिखरा पड़ा है इसी का लाभ उठाते हुए बड़े पैमाने पर आदिवासियों का मतातंरण (धर्म-परिवर्तन) किया जा रहा है। कुछ देशी एवं विदेशी संगठनों के लिए आदिवासी समाज कच्चे माल की तरह हो गया है।

भारत में बि्रटिश शासन के समय सबसे पहले जन-जातियों के संस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप की प्रक्रिया प्रारंभ हुर्इ थी। जनजातियों की निर्धनता का लाभ उठाकर र्इसार्इ मिशनरियों ने उनके बीच धर्मातरण का चक्र चलाया। बड़े पैमाने पर इसमें मिशनरियों को सफलता भी प्राप्त हुर्इ। जो जनजातिया र्इसाइयत की तरफ अकर्षित हुर्इ धीरे-धीरे उनकी दूरी दूसरी जनजातियों से बढ़ती गर्इ और आज हलात ऐसे हो गये है कि र्इसार्इ आदिवासियो और गैर र्इसार्इ आदिवासियों में अविशवास की खार्इ लगातार चौड़ी होती जा रही है।

गैर र्इसार्इ आदिवासियों का आरोप है कि र्इसार्इ मिशनरी धन की ताकत से जनजातियों को बांट रहे है। वे उनके मूल प्रतीकों, परम्पराओं, संस्कृति और भाषा पर लगातार अघात कर रहे है। उग्र-धर्मप्रचार के कारण अब उनमें टकराव भी होने लगा है। उड़ीसा, छतीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, नागालैंड जैसे राज्यों में र्इसार्इ मिशनरियों की गैर-जरुरी गतिविधियों के कारण जनजातियों के आपसी सौहार्द को बड़ा खतरा उत्पन हो रहा है।

र्इसार्इ मिशनरियों पर विदेशी धन के बल पर भारतीय गरीब जनजातियों को र्इसार्इ बनाने के आरोप भी लगते रहे है और इस सच्चार्इ को भी नही झुठलाया जा सकता कि झांरखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, उड़ीसा, पूर्वोत्तर राज्यों में चर्च के अनुयायियो की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसी के साथ विभिन्न राज्यों में मिशनरियों की गतिविधियों का विरोध भी बढ़ रहा है और कर्इ स्थानों पर यह हिंसक रुप लेने लगा है। पूर्वोत्तर का सारा क्षेत्र गरीब आदिवासियों एवं पूर्वातीय लोगो से भरा हुआ है। धर्मांतरण को लेकर इस क्षेत्र में कैथोलिक और प्रटोस्टेंट मिशनरियों में भारी हिंसा हो रही है। स्थानीय कैथोलिक बिशप ”जोस मुकाला के अनुसार कोहिमा क्षेत्र में प्रटोस्र्टेट र्इसार्इ कैथोलिक र्इसाइयों को जोर-जबरदस्ती प्रटोस्र्टेट बनाने पर तुले हुए है उनके घर एवं अन्य संपत्ति को जलाया या बर्बाद किया जा रहा है। वे कैथोलिक र्इसाइयों की सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ तक गुहार लगा चुके है।

भारत का संविधान किसी भी धर्म का अनुसरण करने की आजादी देता है उसमें निहित धर्मप्रचार को भी मान्यता देता है। लेकिन धर्मप्रचार और धर्मांतरण के बीच एक लक्ष्मण रेखा भी है। यदि धर्मांतरण कराने का प्रमुख उदेश्य लेकर घूमने वाले संसाधनों से लैस संगठित संगठनों को खुली छूट दे दी जाए तो राज्य को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए। जहां भी अधिक संख्या में धर्मांतरण हुए है, सामाजिक तनाव में वृद्वि हुर्इ है। जनजातियों में धर्म परिवर्तन के बढ़ते मामलों के कारण कर्इ राज्यों में शांत गा्रमीण वातावरण दूषित हो रहा है। इन घटनाओं ने हिन्दू उपदेशकों का ध्यान आकर्षित किया है जो अब धर्मांतरित लोगो के धर्म वापसी के लिए जनजाति क्षेत्रों में पैठ बना रहे है।

जनजातियों के बीच चर्च अपना साम्रराज्य बढ़ाने में लगा हुआ है भारत के आदिवासी समुदाय से एक मात्र कार्डिनल आर्चबिशप तिल्सेफर टोप्पो मानते है कि जनजातियों के बीच कैथोलिक चर्च अभी शैशव अवस्था में है। संकेत साफ है चर्च को जनजातियों के बीच आगे बढ़ने की सम्भावनांए दिखार्इ दे रही है। चर्च को चाहिए कि वह धर्मांतरण को संख्याओं के खेल में न बदले। कैथोलिक की कुल जनसंख्या का दस प्रतिशत से भी ज्यादा छोटानगपुर की जनजातिया है। इनमें से अधिक्तर की धर्मपरिवर्तन के बाद भी दयनीय स्थिति बनी हुर्इ है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है इस क्षेत्र से महानगरों में घरेलू नौकर (आया) का काम करने वाली जनजाति की लड़किया। चर्च के ही एक सर्वे के मुताबिक इनमें से 92 प्रतिशत लड़किया र्इसार्इ है जब कि गैर र्इसार्इ जनजाति की लड़किया दो प्रतिशत से भी कम है।

विवेकमणि लकड़ा कहते है कि धरती आबा ‘बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज के अधिकारो के लिए अपना बलिदान तक दे दिया। उन्होंने वनवासियों और आदिवासियों को एकजुट कर अंग्रेजी शासन के विरुद्व संघर्ष के लिए तैयार करते हुए भारतीय संस्कृति की रक्षा और धर्मांतरण का लगातार विरोध किया। ‘भारतीय आदिवासी जनमंच मानता है कि बिरसा मुंडा द्वारा दिखार्इ गर्इ राह पर चलकर ही आदिवासी समाज समानित जीवन का अन्नद ले सकता है। वर्ना दूसरे उनके भोले-पन का लाभ उठाते रहेंगे।

जनजाति क्षेत्रों में धर्मांतरण समास्या को सुलझाने के बजाय सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ाकर समास्या को और मजबूत कर रहा है। जिस से उनके सामाजिक, आर्थिक पहलू पीछे छूट रहे है। हिंदू धर्म, धर्मांतरण नही करवाने वाला धर्म है परन्तु जब इस धर्म के विभिन्न पहलुओं की निंदा करने के लिए बड़े पैमाने पर आयोजन किये जाये तो इसके अनुयायियों का नराज होना स्वाभाविक है। जनजातिय क्षेत्रों में र्इसार्इ मिशनरियों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सगठनों ने कुछ अच्छे प्रयास किये गए है लेकिन राजनीतिक और मतातंरण के विवादों के कारण वह सीमित होते जा रहे है।

जनजातिय क्षेत्रों के विकास की और बहुत कम घ्यान दिया जा रहा है हालांकि छतीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारंखड, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में कृषि तथा औधोगिक उत्पादन से आर्थिक विकास की अपार संभावनांए है। जनजातियों की आबादी भले ही आठ प्रतिशत हो उनके साथ भारतीय समाज का भविष्य भी जुड़ा हुआ है। प्राकृतिक संपदा के दोहन के लिए देशी-विदेशी कंमनियां लगातार सक्रिय है। इस संपदा को सुरक्षित रखने के साथ ही योजनाबद्व तरीके से आदिवासी क्षेत्रों का विकास जरुरी है। शिक्षा,स्वास्थ्य, और आवास की बुनयादी सुविधायों के लिए र्इमानदार प्रयासों की जरुरत है। आज जरुरत है कि जनजातियों की संस्कृति और उनके जीवन को बचाने की, न कि उनका र्इसार्इकरण या हिन्दूकरण करने की। धर्मांतरण का आह्रवान केवल उन्माद को प्रेरित करेगा जो जनजातियों के अहित में होगा, संस्कृति और समाज की टूटन जनजातियों को राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग करेगी ही, उन्हें हिंसक घटनाओं की ओर जाने के लिए भी उकसाएगी।

 

आर.एल.फ्रांसिस

 

7 COMMENTS

  1. विदेशी चर्च के कुटिल प्रयासोण के चलते दलितों तो क्या पूरे देश का क्ल्याण संभव नहीं. सोनिया जी के मजबूत संरक्षण में चल रहे विदेशी चर्च के षड्यंत्रों के समाधान के बिना पिछडों, दलितों का विकास असम्भव है. भारत के विरुद्ध इन का दुर्बल वर्ग के लोगों को इस्तेमाल करके भारत को तोडने के काम विदेशी मिश्नरी जिस प्रकार कर रहे हैं, उत्तर पूर्व के प्रांत इसका सजीव प्रमाण हैं. अतः फ्रांसिस जैसे देश्भक्त इसाईयों को सहयोग करके, हम सबको समस्या समाधान के संभव प्रयास करने चाहियें. कम से कम ‘आर.एल. फ्रांसिस’ प्रोत्साहन तो देना ह्जी चाहिये. वे न जाने कितने वर्षों से देश विरोधी शक्तियों से संघर्ष कर रहे हैं. साधनों की कमी होने पर भी उन्होंने हार नमीं मानी है. उनका अभिनंदन.

    • डॉ. राजेश कपूर जी,
      निम्न जालस्थल –देखने पर पता चलेगा, कि इनके पोप भी किस प्रकार का व्यवहार करते थे.
      १००० तक कानूनी कार्यवाहियां अमरीका में चर्च के अधिकारियों के बलात्कारी कृत्यों पर चल रही है.
      जिस धर्म की प्रेरणा आध्यात्मिक है ही नहीं, उसका ऐसी दशा होनी ही है.
      जालस्थल ===>https://en.wikipedia.org/wiki/List_of_sexually_active_popes

  2. हाथी यदि, किचड में फंस जाए, तो उसे कैसे सहायता की जाए? कैसे बाहर निकाला जाए?
    जानकार लेखक प्रकाश फेंके। कहीं न कहीं कोई दरार हो, जिसपर कार्यवाही की जा सके?
    (१) जिनपर अन्याय हो रहा है, वे भी जागरुक नहीं, न शिक्शित है।
    (२) अन्य इसका लाभ उठाकर अपना अपना उल्लु सीधा करने में व्यस्त है।
    (३) फिर सिंह साहब की भ्रश्टाचार की बात भी विश्वासार्ह ही प्रतीत होती है।
    इस सारी स्थिति में बदलाव लाने के लिए –कौनसी रस्सी खींची जाए?
    क्या जानकार लेखक प्रकाश फेंकेंगे?

  3. आर .एल .फ्रांसिस जी ने आदिवासियों की विवशता एवं उनके शोषण की अच्छी विवेचना प्रस्तुत की है,पर इनकी तह में जाईयेगा तो पता चलेगा कि इनके शोषण और उत्पीडन का सबसे बड़ा कारण है लालच और भ्रष्टाचार . मुझे आश्चर्य हुआ कि भ्रष्टाचार का जिक्र उन्होंने इस आलेख में क्यों नहीं किया,जबकि आदिवासियों की स्थिति बद से बदतर होने में उसका सबसे बड़ा हाथ है.आदिवासी विकास के नाम पर प्रत्येक वर्ष करोड़ों रूपये खर्च किये जाते हैं,पर उससे विकास होता है ,उनलोगों का जिनके जिम्मे यह काम सौंपा गया है.योजनायें अवश्य बनती हैं और उनके क्रियायवन के नाम पर पैसे भी खर्च होते हैं,पर उससे पेट भरता है राजनेताओं,अधिकारियों और बिचौलियों का .जबतक इसमे बदलाव नहीं आएगा तब तक आदिवासियोंका शोषण बंद नहीं होगा.

  4. आर.एल.फ्रांसिस का यह लेख आश्चर्य और प्रसन्नता प्रदान करने वाला है. आश्चर्य इस लिये कि एक ईसाइ लेखक विदेशी ईसाइयों के षड्यंत्रों को उजागर करे. प्रसन्नता इसलिये कि देश में ऐसे देशभक्त ईसाइ भी हैं जो विदेशी षड्यंत्रों के विरुद्ध आवाज उठा रहे हैं. ऐसे देशभक्त ईसाइ बंधु को सादर, सस्प्रेम नमन. इन जैसों के रहते भारत को विभाजित करने वालों की चालें कभी सफल नहीं होंगी ; इसका विश्वास है.

  5. सही बात है, वनवासी बंधुओं के साथ ही समग्र देशवासियों को अपनी संस्कृति की रक्षा तथा संवर्धन पर चिंतन करना आवश्यक है.
    वन्दे मातरम,
    लखेश्वर चंद्रवंशी,
    सम्पादक : भारत वाणी, नागपुर

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