फिर हमारी इस ज्ञान – संपदा का क्या होगा !

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12देवेन्द्र कुमार-

आज पूरी दुनिया एक विश्‍व ग्राम की ओर बढ़ती जा रही है । समय और स्थान की दूरी लगातार सिमटती जा रही है । दूरसंचार के नये – नये तरीके व तकनीक प्रत्येक दिन सामने आ रहे हैं जिनकी कल्पना आज से  महज कुछ वर्ष पूर्व तक नहीं की गर्इ थी । सड़क, रेलवे, रेडियो, टेलीफोन, टीवी, पत्र- पत्रिकाओं से आगे बढ़ कर हम कंप्यूटर, इंटरनेट की दुनिया में कदम बढ़ा चुके है। संचार तंत्र के विस्तार के कारण पूरी दुनिया एक ज्ञान आधारित समाज की ओर कदम बढ़ा चुकी  है । संपदा के सभी पुराने स्त्रोत आज अपनी महत्ता खोते जा रहे हैं । अब ज्ञान ही एकमात्र संपदा के स्त्रोत के रुप में सामने आर्इ है । कहा जा रहा है कि आने वाली लड़ाइयां अब तोप -तलवार, बंदुक-मिसाइलों  से नहीं, सूचना रुपी अस्त्र–शस्त्र से ही  लड़ी जायेगी ।

पूरी दुनिया  में अमीर आदमियों की सूची में सूचना के कारोबार  से जुड़े लोगों की संख्या लगातार बढती ही जा रही है। बिल गेटस आज अमीरों की सूची में दूसरे स्थान पर हैं । बात अजीब लगती है पर अब सूचना ही ज्ञान है और इसी का कारोबार करते है सूचना के कारोबारी। सूचना के कारोबारियों ने पुराने सभी धन  कुबेरों को मात दे दी है । वे फैक्ट्र्री नहीं चलातें, कल कारखाने नहीं लगातें,  मात्र सूचनाओं के आदान-प्रदान से धन की बारिश करते हैं। अन्य उत्पादों की तरह अब सूचना का भी पेटेंट हो रहा है । सूचना भी अब एक उत्पाद बन गया है । गैट संघि में बौद्धिक संपदा के अधिकार को भी शामिल  किया गया है । इसे भी पेटेंट करवाने की व्यवस्था की गर्इ है । दुनिया लिटेरेसी से आगे बढ़ कर कंप्यूटर लिटेरेसी की ओर बढ़ी और अब इससे भी आगे बढ़कर पेटेन्ट लिटेरेसी की ओर दौड़ लगा रही है । आज पेटेन्ट लिटेरेसी की चर्चा पूरी दुनिया में है। भारत में कुछ अकादमिक बुद्धिजीवियों को यह चिंता सताते रहती है कि हमारे समाज में  पेटेंट लिटेरेसी के प्रति  जागरुकता नहीं है,  उदासीनता की प्रवृति है । उनकी चिंता है कि हजारों बरसों से पीढ़ी दर पीढ़ी अर्जित हमारी सूचनाओं का पेटेंट पश्चिमी मूल्कों के द्वारा करवाया जा रहा है । हल्दी ,बासमती ,नीम ,गौ मूत्र इसके उदाहरण मात्र है ।  इसके औषधीय गूणों से हम पूर्व परिचीत है , इसका उपयोग – उपभोग हम पीढ़ी दर पीढ़ी करते आये है। दैनंदिन जीवन में इसका उपयोग – उपभोग  आम बात है ।  दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह वे यहां भी पेटेंट लिटेरेसी का अभियान चलाने का सुझाव देते रहते हैं । विधार्थियों एवं स्कालरों में पेटेंट संबंधी दाव – पेंच सीखाने  व जागरुक बनाने के लिए संस्थान तक खोलने की सलाह दी गर्इ  । पश्चिमी मूल्कों के द्वारा करवाये जा रहे पेटेंट को चुनौती देने एवं अपने दावे की पुष्टि के लिए संस्कृत साहित्य व वेद पुराणों का भी उल्लेख किया जा रहा है । पश्चिम में जब भी कोर्इ नया पेटेंट होता है तो इन वेद पुराणों के सहारे यह प्रमाणित करने की कोशिश की जाती है कि  यह तो हमारे धर्म – साहित्य , वेद – पुराण में पूर्व से ही मौजूद है । इसमें नयापन क्या है । वायुयान से लेकर प्रक्षेपात्र तक को हम भारतीय वांगमय में ही खोज ही निकाले जाते है । उनके सारे दावे की धज्जियां उड़ातें हुए महाभारत को  सामने लाते है , अर्जुन के हाथों में तीर -प्रक्षेपात्र  और कृष्ण को वायुमान पर सवार दिखाते हैं ।

पर लाख टके का सवाल यह है कि हमारे वेद -पुराणों की प्रामाणिकता क्या है । क्या हम इसे अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों  में सबूत के बतौर  पेश करेंगे। सच तो यह है कि हमारा दावा तो वेद और न जाने कितने ही धर्मग्रन्थों  पर भी नहीं बनता, क्योंकि इसकी पूर्नखोज तो उन्ही पश्चिमी मूल्कों ने ही की है । इस धर्मग्रन्थों में भी सूचनाएं हैं ,इसे भी हमने पश्चिमी मुल्कों से ही जाना है। हम तो उसे खो बैठे थे और सूचना एक बार खो जाए तो फिर उसका महत्व क्या है ।  वह नालंदा  का खंडहर नहीं है कि हम उसका खनन करवा लेंगे।  फिर वेद पुराण, उपनिषद एवं धर्मग्रंथों में उन कल्पित तकनीकों के सिवा भी बहुत कुछ है ,जिन्हें हम प्रतिदिन जीवन में भोगते हैं । क्या वर्णाश्रम  व्यवस्था ,चतुर्वर्णीये व्यवस्था शुद्रों की निम्नतर स्थिति ,उन्हे संपति से वंचित  रखने  एवं गांव से दक्षिण में बसाने का निर्देश्, धर्मग्रंथों को सुनने मात्र से उनके कान में शीशा पिघलाकर डालने का आदेश, नारी को संपदा मानने की अवधारणा एवं कदम – कदम पर उसकी ली जाने वाली अग्नि – परीक्षा ब्राह्मणों का विशेषाधिकार या हर विपदा -संकट को दूर भगाने  का दावा करने वाली हनुमान चालीसा या फिर  सर्वहितकारी, सर्वमंगलकारी  एवं सर्व दुखहरणी  गायत्री मंत्र का भी पेटेंट करवाया जायेगा। क्या हमारी ‘ज्ञान’ आधारित संपदा में यह सब नहीं आता। क्या हम पीढ़ियों से  इसे संजोग कर नहीं रखे हुए हैं । पर क्या भारत का महानगरीय – आभिजात्य वर्ग  , आधुनिक कपड़े पहने हुए ,फर्राटेदार इंगिलस बोलता हुआ भी , पुरातन संस्कार से जकड़ा हुआ दुविधाग्रस्त  नहीं है । इन सवालों के उठते ही उसकी सारी आधुनिकता काफूर हो जाती है । वे इसका खंडन – मंडन करने के बजाय यह कह कर टालने की कोशिश करते हैं कि  वर्तमान समय में इन धर्मग्रंथों  की प्रासंगिकता क्या है। अब इन धर्मग्रंथों को पढ़ता कौन है । पर जब वे अपने दावों की पुष्टि के लिए इन धर्मग्रंथों की श्‍रण में जाते हैं, तब इनका विचार कुछ और ही होता है । यह सब कहने का अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि  हम अपनी परंपरा , इतिहास, अतीत  से कट जायें। पर उसमें मानव समाज को तोड़ने वाली जो बातें हैं, जन्मजात सामाजिक असमानता की जो अवधारणा है , शुद्रो-महिलाओं के प्रति जो एक तुच्छ , असंगत , विभेदकारी व अन्यायपूर्ण दृश्‍कोण है , हमे  उसका  प्रतिवाद करना चाहिए और यह भी हमारी एक सामाजिक -सांस्कृतिक जिम्मेवारी है, जो एक वैज्ञानिक चिंतन और र्इमानदार प्रयास की मांग करती है ।

शुतुर्मुर्ग की तरह आंखें बन्द कर देने से तुफान तो नहीं रुक जाता । वह सिर्फ हमारी आंखों से ओझल हो जाता है । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब तक हम एक एकजुट राष्ट्र के रुप में सामने नहीं आएंगे बिखंडित राष्ट्र के रुप में अपने अघिकारों को प्रस्तुत करते रहेंगे , हमारी बात को कोर्इ भी गंभीरता के साथ नहीं लेगा । बाहरी शक्ति से लड़ने से पहले हमें अपनी आंतरिक कमजोरियों से लड़ना होगा ।अपनी नकारा हो चुकी परंपराओं से संधर्ष करना होगा । अपने इतिहास का तटस्थ पुनर्मुल्यांकन करना होगा । राष्ट्र के दबे -कुचले दलित -आदिवासी , अतिपिछड़ों एवं हाशिये पर रह धकेल दिये गए जनसमुदाय की पीड़ा  में खुद को शामिल करना होगा। जब तक उनकी पीड़ा पूरे राष्ट्र की पीड़ा के साथ एकाकार नहीं हो जाता , हम आंतरिक रुप से टुकड़ों में ही बंटे रहेंगे । ऐसे में न तो हम अंतरराष्ट्रीय  स्तर पर अपनी जायज मांगों को मनवा सकते हैं और न ही एक नेतृत्वकर्ता राष्ट्र के रुप में उभरकर सामने आ सकते हैं ।

 

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