‘फिर जुल्फ लहराए’
फिजा ठंडी हैं कुछ पल बाद ये माहौल गरमाए।
कहीं चालाकियाँ ये इश्क में भारी न पड़ जाए।
ज़रा सी गुफ्तगू कर लें, बड़े दिन बाद लौटे हो,
नज़ाकत हुस्न वालों के ज़रा हालात फरमाए।
अहा! क्या खूबसूरत आपने यह रंग पाया हैं,
निशा का चाँद गर देखे तो खुद में ही सिमट जाए।
शराफ़त, कायदा, लोचन हया गैरों के खातिर हो,
अगर मेहबूब हो जो सामने, फिर जुल्फ लहराए।
ज़ियारत और सजदा इश्क के दर किया है बस,
मुहब्बत के सितमगर अब भले फांसी पे लटकाए।
हमीं ने बंदगी की है, बगावत भी हमारी हो,
हमारी आन पर कोई अगर संकट जो गहराए।
सताने से जरा तुम बाज आओ और ये सोचो,
दुआओं में किसी के बद्दुआएँ ना उतर आए।
कुलदीप विद्यार्थी