सफलता का संकेत हैं अनपेक्षित विपदाएं

-डॉ. दीपक आचार्य-

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समस्याओं का आना और जाना हर प्राणी के जीवन का वह अपरिहार्य शाश्वत क्रम है जिसके बिना जिन्दगी अधूरी ही रहती है।

कोई भी इंसान यह नहीं कह सकता कि उसके जीवन में कोई समस्या कभी नहीं रही। यों कहें कि जिन्दगी समस्याओं का पर्याय है तो भी अनुचित नहीं होगा।

हर समस्या का कोई न कोई कारण होता है। कुछ अपनी गलती से सामने आ जाती हैं और कुछ दूसरे लोग पैदा कर दिया करते हैं। इनके निराकरण के लिए भी हम कोई न कोई उपाय करते ही रहते हैं।

कई समस्याएं ऎसी होती हैं जिनके लिए हम जिम्मेदार नहीं हुआ करते, फिर भी हमारे सामने आ खड़ी होती हैं। हर इंसान के भीतर जन्म जन्मान्तर से नकारात्मक और सकारात्मक अर्थात आसुरी और दैवीय भावों का वजूद बना रहता है।

इनका संतुलन जब तक बना रहता है तब तक इंसान का स्वभाव और चरित्र आंका नहीं जा सकता। लेकिन संतुलन बिगड़ जाने पर इंसान की दूर से ही परख की जा सकती है। हम जब भी किसी भी प्रकार का परिवर्तन चाहते हैं तब कर्म के स्वभाव के अनुरूप हमारे भीतर के भावों का एकतरफा प्रवाह शुरू हो जाता है।

जब कोई इंसान बुरे कर्म की ओर प्रवृत्त होता है तब उसका चित्त एक तरफ कुसंस्कारों के बीजों का अंकुरण आरंभ कर आसुरी भावों अर्थात नकारात्मकता का ग्राफ बढ़ा देता है और दूसरी तरफ दैवीय भावों अर्थात सकारात्मक भावों को बाहर निकालना आरंभ कर दिया करता है।

इस प्रकार संतुलन बिखर कर एकतरफा होने लगता है और उसी के अनुरूप व्यक्ति के कर्म और स्वभाव में परिवर्तन आने लगता है। भीतर की नकारात्मकता का संबंध पाप कर्मों से होता है जबकि सकारात्मक भावों का संबंध पुण्य कर्म से होता है।

जब भी हम कोई बुरा काम करने की सोचते हैं तब हमें ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। यह इसी प्रकार है जैसे कि किसी पुराने और जीर्ण-शीर्ण मकान को ढहाने के लिए ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ती या कि किसी भी स्थल को कचरा स्थल के रूप में परिवर्तित कर देना हो तो उसके लिए अधिक मेहनत करने की जरूरत नहीं होती।

लेकिन किसी भी प्रकार के निर्माण या रचनात्मक कर्म के लिए समय और मेहनत भी खूब लगती है। हमारे भीतर दैवीय भावों का जागरण होने पर श्रेष्ठ कर्म की ओर जैसे ही हम उद्यत होते हैं या अपने प्रबल कर्मयोग के माध्यम से प्रकृति पर विजय पाने की दिशा में डग बढ़ाते हैं उस समय अपने भीतर व्याप्त आसुरी भावाें से भी हमारा सीधा संघर्ष आरंभ हो जाता है क्योंकि दैवीय भावों के जागरण से इन नकारात्मक भावों को अस्तित्व का संकट पैदा हो जाता है।

इसलिए ये आसुरी भाव परिवेशीय आसुरी भावों और नकारात्मकता से भरे-पूरे लोगों से कर्षण शक्ति के माध्यम से वितन्तु सजातीय संबंध कायम कर लिया करते हैं और हमारे जीवन में उथल-पुथल लाने का प्रयास करते हैं।

हालांकि इनका कोई ज्यादा प्रभाव नहीं होता लेकिन किसी भी इंसान को मानसिक परेशानी में डालने से ये नहीं चूकते। फिर जो भी इंसान श्रेष्ठ मार्ग का अवलम्बन करता है उसके जीवन में बेहतरी लाने से पूर्व मन-मस्तिष्क और शरीर के अंग-उपांगों तथा सभी चक्रों एवं अन्तस्थ नाड़ियों का शुद्धिकरण होने लगता है।

इस सारी प्रक्रिया में भाग्य में समाहित नकारात्मक कर्मो का भी क्षरण होना जरूरी होता है तभी हर बदलाव का आनंद आता है। यही कारण है कि जब भी हम परिवर्तन को स्वीकारने की ओर कदम बढ़ाते हैं, कुछ अच्छा नया कर्म, सेवा-परोपकार गतिविधि या साधना आरंभ करते हैं तब आरंभिक काल हमेशा समस्याओं से घिरा रहता है।

देखा यह भी गया है कि जीवन में जब भी कोई बड़ा परिवर्तन आने वाला होता है उससे पहले जाने कहाँ से समस्याओं के पहाड़ सामने आ जाते हैं जिनकी कहीं से कोई संभावना नहीं होती।

ईश्वर भी जब किसी पर मेहरबान होता है तब पहले वह व्यक्ति के सभी जन्मों के पापों को घनीभूत कर भुगतवा लेता है। यह वह समय होता है जब हम इस कदर हैरान-परेशान हो जाते हैं कि हमें लगता है कि अचानक यह अनपेक्षित विपदाएं कहां से आ पड़ी।

जब-जब भी कोई बड़ा, सुखद और सुकूनदायी परिवर्तन सामने आने वाला होगा, तब-तब इससे पहले समस्याओं, विपदाओं और मानसिक आघातों का आगमन जरूर होगा।

बात शाश्वत और दैवीय सुख-समृद्धि की हो, किसी साधना की सफलता से जुड़ी हो या फिर ईश्वर की कृपा प्राप्ति की, इनसे पहले मानसिक और शारीरिक परेशानियों का दौर आएगा ही आएगा, इसे कोई नहीं रोक सकता।

किसी भी श्रेष्ठ कर्म से पूर्व यदि कोई समस्या सामने नहीं आए तो मान लेना चाहिए कि वह कर्म परिपूर्ण नहीं होकर आधा अधूरा ही है। आमतौर पर देखा जाता है कि जब भी कोई मकान निर्माण का काम होता है, मकान पूर्ण होने से पहले पड़ोसियों और दूसरे लोगों से किसी न किसी बात पर झगड़े-टण्टे होते ही हैं।

इसका मतलब यही है कि भगवान घर में रहने वालों के सामने आने वाले अनिष्टों का मकान निर्माण से पूर्व छोटे-मोटे झगड़े और कोर्ट-कचहरी करवा कर समाप्त करवा देता है कि ताकि मकान निर्माण के बाद घर वाले आराम से रह सकें।

यही बात हमारे जीवन निर्माण के हरेक पहलू पर भी लागू होती है। जब-जब भी जीवन में अनपेक्षित समस्याएं या विपदाएं सामने आ जाएं जिनमें हमारी कोई भूमिका या गलती न हो, तब यह तहे दिल से स्वीकार कर लेने में ही भला है कि ईश्वर कुछ अभिनव और सुखद परिवर्तन की भूमिका रच रहा है और नई भूमिका की स्थापना के लिए जरूरी है कि शुद्धिकरण और परिमार्जन पहले ही हो जाए ताकि बाद में उसका कोई अंश नामलेवा भी शेष न रहे।

इन विपदाओं को सहर्ष स्वीकार कर लिए जाने पर इनका घनत्व कम हो कर ये मात्र आभासी ही रह जाया करती हैं। इन अयाचित परेशानियों से घबराएं नहीं बल्कि ईश्वर का चिन्तन जारी रखते हुए श्रेष्ठ कर्म की अपनी रफ्तार को बनाए रखें। इस तरह की हर समस्या हमारी तरक्की के नवीन और सुनहरे द्वार खोलने आती है और इसका हमें जीवन भर आशातीत लाभ प्राप्त होता है।

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