यूनियन – जैक से तिरंगे के सफर तक से लेकर आज तक देश में नौटंकीबाज ही हावी हैं , हर तरफ इनका ही जलवा है । हर जाति , धर्म , क्षेत्र व समुदाय के लोग नौटंकीबाजी के मंच पर काबिज हैं । स्वाभाविक भी है जहाँ से ये लोग आए हैं वहाँ अपना जौहर दिखाने की उतनी गुंजाइश नहीं थी या है जितनी ‘ नौटंकी की रंगशाला ’ में है l
हम सब नौटंकी की उस ‘ नवरस ’ का आनंद लेने को मजबूर हैं , जो ‘ स्वहित – कामी मंडलियों ’के स्वयंभु – कलाकारों के कलाप , प्रलाप और प्रवचनों से धाराप्रवाह प्रवाहित हो रहा है l ‘ मंचन व मंथन ’ के बहाने इनका धाराप्रवाह झूठ, मेहनत से गढ़े गए कुतर्क, तरीके से रचा गया पाखंड, छिछले आरोप, बेबुनियाद आशंकाएं जो इनके स्वयं के भेद खुलने की की बौखलाहट से पैदा हो रहे हैं, हैरत में नहीं डालते, शर्मिदा करते हैं l हम सब भली –भाँति जानते हैं कि “ ये स्वयंभु – कलाकार भी इससे बखूबी वाकिफ हैं कि अपनी नौटंकी के माध्यम से ‘ ताश के महल ’ बनाना सिखा रहे हैं , अपनी ‘कलाकारी ’ साबित करने के लिए बेशर्मी भरा पाखंड रच रहे हैं l राष्ट्रीय फलक पर छाने के लिए और अपनी भूमिका की कमजोरी के पर्दे के पीछे की सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए हर वह हथकंडा अपना रहे हैं जिसे हरेक सिद्धहस्त पाखंडी – प्रणेता अपनाता आया है ” , … लेकिन खेल तो जारी है और इसे देखना हमारी मजबूरी है l
नौटंकी के कलाकार को क्या चाहिए दर्शकों की भीड़, भीड़ की तालियाँ और जय -जयकार के नारे। ऐसे में नौटंकीबाजों को जब मंच मिल जाता है , भीड़ मिल जाती है, तालियाँ मिल जाती हैं तो वह अपनी ‘रौ में आकर अपने हाव-भाव प्रदर्शित करने लगता है। नौटंकी की कला में निपुण व्यक्ति ‘ तुंगाफेरी ’के सभी गुणों में पारंगत होता है। सफल नौटंकीकार के गुण ही होते हैं, रटे – रटाये डॉयलॉग बोलना, कथानक के अनुरूप सभी अंगों से हावभावों का प्रदर्शन करना , ‘ करुण – रस ’ का स्वांग रचना , सरोकार के सार्वजनिक मंच की आड़ में अपना सरोकार सँजोना और स्वयं को सिद्धहस्त साबित करने के लिए दर्शकों के साथ ‘ छदयम –संवाद ’ स्थापित करना । सदैव बीमार , थका हुआ , परेशान और अस्त-व्यस्त दिखना भी आज के दौर के नए नौटंकीबाजों की नई खूबियों में शुमार हो रही हैं l
नौटंकीबाजों के दिल और दिमाग में मनोरंजन और टाइम-पास करने के लिए जुटी भीड़ को देखकर ऐसा मुगालता घर कर जाता है कि वो अपनी नौटंकी – कला के माध्यम से दर्शकों (जनता ) को अपने प्रति आकर्षित कर रहे हैं क्यूँकि दर्शक भी तो तालियाँ पीट रहे होते हैं…. वाह ! वाह ! क्या बात है ! भी कह रहे होते हैं , किंतु सच तो यही है कि सुधी – दर्शकों को नौटंकी की वास्तविक – पटकथा को समझने में ज्यादा देर नहीं लगती है । ज्यादा वक्त नहीं लगता जब दर्शक कृत्रिमता के आवरण को समझकर उसकी असलियत पर चर्चा करने लगते हैं क्यूँकि “ ये जो पब्लिक है ये सब जानती है l” नौटंकीबाजों के धारा – प्रवाह डायलॉग्स इनकी ताकत को नहीं , इनकी हताशा , इनकी विवशता ,इनके डर और इनके वैचारिक व आचरणगत खोखलेपन को ही बेपर्दा करती हैं , ये जितना ज्यादा बोलते हैं उतने ही ज्यादा निरीह, हास्यास्पद और लाचार नजर आते हैं l ऐसे में स्वतः ही नौटंकीबाजों के उपनाम प्रचलित हो जाते हैं लेकिन नौटंकीबाजों की बेफिक्री का आलम बदस्तूर जारी ही रहता है l
नौटंकी की नित्य बढ़ती टोलियों में कौन शिरकत कर रहा है , कौन इनके कारोबार में इजाफा कर रहा है ? बेशक हम – आप कोई और नहीं…! टोलियाँ देश की राजधानी और देश के अन्य हिस्सों में नित्य नए ‘ नुक्कड़ नाटक ’ कर रही हैं l हाथों में सफाई का प्राचीनतम हथियार लिए नौटंकी की गाँधीवादी – अवधारणा के नए संस्करण से सजी व लैस हरेक टोली अपने आप को नौटंकी के इतिहास की सबसे बड़ी ‘ पहरुआ ’ मान रही है और इसका प्रायोजित – प्रचार भी अपने चरम पर है l हरेक मंडली का अपना – अपना ‘ महोत्सव ’ …. एक अर्से से जारी नौटंकी के इन महोत्सवों में शामिल ना जाने कितने लोगों का गला व हौसला बैठ चुका है, कितनों का तो मंचन भी ख़त्म हो चुका है , अनेकों नौसिखिए अपना जलवा बिखेर कर खुद भी बिखर चुके हैं , फिर भी नई टोलियों की टहल और आमद जारी है l कोई चैन की सांस नहीं ले रहा , चैन के मंत्र के साथ बेचैनी बाँटने की मारा – मारी है , क्यूँकि हरेक टोली अपनी मंडली को ‘ नुक्क्ड़ ’ से उठाकर ‘ बड़ी रंगशाला ’ में पहुँचाना जो चाहती है l लेकिन अपनी मंडली को छोड़ बाकी मंडलियों को तुच्छ समझने की बीमारी आज नौटंकी के प्रचार का सबसे बीमार व उबाऊ पहलू है , जिसकी अतिशयता से ‘ दर्शकों ’ में भी फैल रही बीमारी है l एक ‘ नयी नौटंकी मंडली ’ से कुछ अलग मनोरंजन की उम्मीद करारी है लेकिन इस मंडली का कौन नौटंकीबाज कौन सी भूमिका करेगा ? यही तय नहीं है l किसे ‘ लंका ’जलानी है , इसकी भी नहीं जानकारी है , जिसे ‘ मर्यादा ’ निभानी है वही ‘ मायावी रूप ‘ धारण कर बैठा है , ‘ हनुमान ’ ही ‘ लंका ’ का भी ‘ प्रहरी ’ है , ‘ विभीषण ’ के हाथों ‘ अयोध्या ’ ढाहने की जिम्मेवारी है , ‘ सीता ’ का हरण ‘ मंदोदरी ’ की मजबूरी है और ‘लंका’ से पलायन कर चुके ‘मेघनाथ ’ की खोज जारी है l
-आलोक कुमार