अनिल अनूप
ऑनलाइन ब्रिटिश अख़बार ‘द इंडीपेंडेंट’ में बीते दिनों एक लेख प्रकाशित हुआ जो यह तथ्य रेखांकित करता था कि महिलाओं में मासिक धर्म के समय होने वाला दर्द हृदयाघात के समतुल्य होने के बाद भी चिकित्सकों का ध्यान उतना आकर्षित नहीं करता। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसे लेख से नारीवादियों को डॉक्टरों के समूचे वर्ग को कटघरे में खड़े करने के अपने काम में बिंदु चुनने में तनिक देर नहीं लगी: “मासिक-धर्म का दर्द एक महिला-दर्द है, उसे पुरुष नहीं समझ सकते और वे उसके प्रति एक उदासीन और शुष्क रवैया प्रदर्शित करते हैं। डॉक्टर चूँकि लालची और स्वार्थी होते हैं , इसलिए वे पैसा चूसने के लिए हृदयाघात के मरीज़ों को अधिक ध्यान से देखते हैं और ‘मासिक-पीड़िताओं’ को कम।”
“दीदी, हमें तो ओढ़ने-बिछाने को कपड़े मिल जाएं वही बहुत है, ‘उन दिनों’ के लिए कपड़ा कहां से जुटाएं…” दिल्ली के बंगला साहिब गुरुद्वारे के पास सड़क पर बैठी रेखा की आंखों में लाचारी साफ़ देखी जा सकती है.
ज़ाहिर है ‘उन दिनों’ से रेखा का मतलब मासिक धर्म से है.
वो कहती हैं, “हम माहवारी को बंद नहीं करा सकते, कुदरत पर हमारा कोई बस नहीं है. जैसे-तैसे करके इसे संभालना ही होता है. इस वक़्त हम फटे-पुराने कपड़ों, अख़बार या कागज से काम चलाते हैं.”
रेखा के साथ तीन और औरतें हैं जो मिट्टी के छोटे से चूल्हे पर आग जलाकर चाय बनाने की कोशिश कर रही हैं. उनके बच्चे आस-पास से सूखी टहनियां और पॉलीथीन लाकर चूल्हे में डालते हैं तो आग की लौ थोड़ी तेज़ होती है.
थोड़ी-बातचीत के बाद ये महिलाएं सहज होकर बात करने लगती हैं. वहीं बैठी रेनू मुड़कर अगल-बगल देखती हैं कि कहीं कोई हमारी बात सुन तो नहीं रहा. फिर धीमी आवाज़ में बताती हैं, “मेरी बेटी तो जिद करती है कि वो पैड ही इस्तेमाल करेगी, कपड़ा नहीं.”
वो कहती हैं कि जहां दो टाइम का खाना मुश्किल से मिलता है और सड़क किनारे रात बितानी हो वहां हर महीने सैनिटरी नैपकिन खरीदना उनके बस का नहीं.
थोड़ी दूर दरी बिछाकर लेटी पिंकी से बात करने पर उन्होंने कहा,”मैं तो हमेशा कपड़ा ही यूज़ करती हूं. दिक्कत तो बहुत होती है लेकिन क्या करें…ऐसे ही चल रहा है. हमारा चमड़ा छिल जाता है और दाने हो जाते हैं, तकलीफ़ें बहुत हैं और पैसों का अता-पता नहीं.”
ऐसी बेघर, गरीब और दिहाड़ी करने वाली औरतों के लिए मासिक धर्म का वक़्त कितना मुश्किल होता होगा. जेएनयू की ज़रमीना इसरार ख़ान से सैनिटरी नैपकिन पर 12 फ़ीसदी जीएसटी के बारे में बात करते हुए मेरी आंखों के सामने रेखा, रेनू और पिंकी का चेहरा घूमता है.
ज़रमीना ने सैनिटरी नैपकिन पर 12 फ़ीसदी जीएसटी के फ़ैसले को चुनौती देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की है.
,”मैं जानती हूं कि गरीब औरतें पीरियड्स के दौरान राख, अख़बार की कतरनें और रेत का इस्तेमाल करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है. ये सेहत के लिए कितना ख़तरनाक है, बताने की ज़रूरत नहीं है.”
नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे (2015-16) की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में 48.5 प्रतिशत महिलाएं सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं जबकि शहरों में 77.5 प्रतिशत महिलाएं. कुल मिलाकर देखा जाए तो 57.6 प्रतिशत महिलाएं इनका इस्तेमाल करती हैं.
समय हर वस्तु के बेतुके लैंगिकीकरण का है: ‘औरत की हर चीज़ औरताना है और जो कुछ भी उसमें या उसका औरताना है वह कहीं-न-कहीं मर्दों द्वारा तिरस्कृत है’, ऐसी बात उठाना स्त्रियों के पक्ष को सबलता से प्रस्तुत करना है। मगर औरत को गुप्तांग के चश्मे से देखने की इस हरक़त में बहुधा एक मनुष्य और उसकी लिंग-निरपेक्षता बहुत पीछे छूट जाती है।
दर्द का महत्त्व डॉक्टर इस बात से नहीं तय करते कि वह मर्द को हो रहा है अथवा औरत को। दर्द को देखने के लिए उनके पास कई बेहतर मानदण्ड होते हैं। पहला मानदण्ड आंगिक है: किस अंग से वह दर्द पैदा हो रहा है। दाँत का भीषण दर्द चाहे जितना कष्ट दे, वह एपेंडिक्स के कम कष्टकारी दर्द से कम तवज्जो इसलिए पाता है क्योंकि एपेंडिक्स पेट में है। वहाँ वह फट सकती है, पेट में मवाद फ़ैल सकती है और रोगी मर सकता है। यह स्थिति भयानक दाँत-दर्द में भी शायद कभी न आये। जोड़ों में यूरिक एसिड बढ़ने से होने वाला दर्द गाउट के कारण चाहे जितनी शिद्दत का हो, उसका मुक़ाबला किसी पेट में मवाद या आँत फटने से नहीं किया जा सकता क्योंकि उसमें मरीज़ की जान नहीं जा रही।
दूसरा मानदण्ड दर्द की प्रकृति का है। ऐंठन वाला दर्द, फटन वाला दर्द, जलन वाला दर्द, भिंचन वाला दर्द- तमाम तरह के दर्द अलग-अलग अनुभूतियाँ पैदा करते हैं। पित्त की थैली में पथरी हो, आँतों की रुकावट हो अथवा वृक्कों से पेशाब मूत्राशय में लाने वाले यूरेटर में पथरी का दर्द- ये सभी कोलिकी दर्द के प्रकार हैं, जहाँ मांसपेशी की एक खोखली नली रुकावट को आगे ठेलने की कोशिश करती है, नाक़ामयाब होती है और एवज़ में रोगी को भयानक दर्द दे जाती है, जो कुछ क्षण रहता है, फिर बहुत हल्का पड़ जाता है या गायब भी हो जाता है। हृदयाघात के दर्द में एक ‘सेन्स ऑफ़ इम्पेंडिंग डूम’ या ‘तबाही का पूर्वाभास’ होता है, जो यह इशारा करता है कि सब कुछ अब नष्ट हो जाएगा। चमड़ी अथवा अन्य स्थानों पर होने वाले फोड़ों में एक टपकन वाला दर्द होता है और गठिया-रोगों से सूजे जोड़ों में एक अकड़न वाला दर्द। हर दर्द में एक ही तरह की भीषणता या एक ही तरह की प्रकृति की की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
दर्द की यह भीषणता हर रोगी में मिलेगी ही, ऐसा भी नहीं है। हमने हृदयाघात के रोगी डॉक्टर के पास हल्की उलझन के साथ चल कर आते भी देखे हैं और सुई चुभने पर लोगों को मूर्च्छित होते भी देखा है। गोली लगने पर भी लोग मुस्कुराते रह सकते हैं और दूसरे का ख़ून देखकर भी बेहोश होकर पलट भी जाते हैं। यहाँ अन्तर व्यक्ति-व्यक्ति का है। हर आदमी एक मेल का नहीं। एक ही अंग में दर्द, एक ही तरीक़े से होने के बाद भी सबकी अनुभूतियाँ भिन्न हैं।
फिर डॉक्टरों को दर्द की अवधि पर ध्यान देना होता है। भीषण दर्द अमूमन दीर्घकालिक नहीं होते: अगर होते हैं तो वे लगातार नहीं होते रहते। दीर्घकालिक दर्दों के कारण अलग हैं, अल्पकालिक पीड़ाएँ अलग वजहों से होती हैं। कुछ दर्द दीर्घकालिक होने के बाद भी घटते-बढ़ते रहते हैं। निदान व उपचार में इन सब बातों पर ध्यान देना पड़ता है।
दर्द को औरताना बताना एक बिलावजह की बात है। स्त्री के तन में भी एक हृदय है, एक मस्तिष्क है, दो फेफड़े हैं, दो गुर्दे हैं। ये सभी अंग लैंगिक पहचान के मोहताज नहीं हैं, इनमें होने वाली हर बीमारी पुरुषों जितनी ही कष्टकारी होती है। हृदयाघात चाहे मालती देवी को पड़े या राम कुमार को, उसे उसी तरह की इमरजेंसी वाली स्टाइल में देखा जाता है और देखा जाना चाहिए भी। कोई भी मासिक धर्म का दर्द एक मरते हृदयाघात-रोगी, एक तड़पते कैंसर के मरीज़ अथवा एक कराहते पैंक्रियेटाइटिस-पीड़ित का कैसे मुक़ाबला करेगा भला!
हर स्त्री को मासिक-धर्म के समय दर्द नहीं होता, कुछ को ही होता है। बहुत थोड़ी स्त्रियाँ ऐसी हैं जिनमें यह दर्द बहुत तेज़ हो सकता है। उनके लिए हर महीने होने वाली यह प्रक्रिया एक अट्ठाइस-दिनी कष्ट का नाम होता है। इसके लिए वे तमाम देसी नुस्खे आज़माती हैं, दवाएँ खाती हैं, स्त्री-रोग विशेषज्ञों के चक्कर लगाती हैं।
अगर महिलाओं के ही यौन-अंगों से उठने वाले दर्दों की बात करें, तो प्रसव का दर्द हर मासिक के दर्द से बहुत-बहुत-बहुत आगे है। बिना किसी एनेस्थीज़िया के ज़रा सामान्य डिलीवरी या ऑपरेशन से बच्चा पैदा करने की सोचिए ज़रा, आपकी रूह काँप जाएगी। गर्भपात के कारण होने वाला दर्द अपने तरीक़े से महिला को पीड़ा पहुँचाता है। फिर तमाम ऐसे रोग होते हैं, जो औरतों को तथाकथित अपने-अपने ढंग से औरताना दर्द दे सकते हैं। गर्भाशय में विकसित होने वाले फाइब्रॉइड ट्यूमर, एंडोमेट्रियोसिस, पेल्विक इंफ्लेमेटरी डिज़ीज़- सभी भीषण-भयावह कष्टकारी हो सकते हैं।
एक विशिष्ट बीमारी जो औरतों में गर्भाधान के समय भयानक दर्द पैदा कर सकती है और जान का संकट भी, एक्टॉपिक प्रेग्नेंसी व रप्चर है। इसमें निषेचित अण्डाणु गर्भाशय में रुपने की बजाय अण्डवाहिनी में ही रुप कर विकसित होने लगता है। वह बेचारी पतली सी वाहिका उस बढ़ते भ्रूण को सँभाल कहाँ सकेगी! नतीजन फट जाती है और औरत के प्राण संकट में आ जाते हैं। फिर ऑपरेशन करके उसकी किसी तरह जान बचायी जाती है।
अब ऐसे दर्दों की फ़ेहरिस्त में मासिक धर्म का दर्द भला कहाँ ठहरेगा? हृदयाघात और आँत-अग्न्याशय की सूजनों को अगर दरकिनार भी कर दिया जाए, तो स्त्रियों के पास ‘अपने’ अंगों के कारण होने वाले भीषण दर्द की एक अलग सारिणी है, जिसमें हर महीने होने वाला सामान्य रक्तस्राव बहुत नीचे स्थान पाता है। ऐसे में डॉक्टरों की लापरवाही पर उँगली उठाना और उन्हें धनलोलुप सिद्ध करना नाहक ही उन्हें बदनाम करना है।
पहली बात तो मासिक धर्म के कारण होने वाले दर्द के लिए अमूमन साधारण दर्द की दवाएँ ही इस्तेमाल की जाती हैं। दूसरी बात भारत में उन्हें या तो मरीज़ स्वयं मेडिकल स्टोर से ख़रीद कर खा लेती है या वह परामर्श के लिए स्त्री रोग विशेषज्ञ के पास जाती है। पुरुष चिकित्सकों के पास जाने में, जहाँ तक सम्भव हो वह परहेज़ करती है। ऐसे में क्या उसकी पीड़ा के लिए गायनेकोलॉजिस्ट को उसे इमरजेंसी ले जाकर कर ड्रिप चढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए या आई.सी.यू में रख लेना चाहिए!
अगर हृदयाघात पर शोध में इतना पैसा ख़र्च हो रहा है और हुआ है, तो उसके पीछे कारण हैं। हृदयाघात स्त्री-पुरुषों दोनों में मृत्यु की एक बड़ी वजह बनकर उभरा है। मोटापे, मधुमेह और उच्च रक्तचाप के साथ इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसको अगर त्वरित गति से सही समय पर उपचारित नहीं किया गया, तो रोगी को भीषण परिणाम झेलने पड़ सकते हैं। ऐसे में हर महीने होने वाले मासिक धर्म से इसकी तीव्रता की तुलना सतही और ग़ैर-ज़रूरी है।
समझ में हर जगह लैंगिक पहचान ठूँसनी ज़रूरी नहीं। हृदय स्त्री के भी है, फेफड़े-आँतें-गुर्दे भी। दर्द दर्द है। वह जिन रोगों में भयावह होता है, उन्हें तय करने के लिए डॉक्टर पढ़-लिख कर उनसे जूझते हैं। यहाँ तक कि स्त्री एवं प्रसूति-रोग विशेषज्ञ भी मानती हैं कि मासिक से अधिक भीषण दर्द के कारण स्त्री-गुप्तांगों में अन्य कई हैं और वे उनपर पूरा ध्यान देती हैं। एक्टॉपिक रप्चर की एक मरीज़ इस बात को स्पष्ट करने के काफ़ी होगी, जब वह महिला ज़िन्दगी-मौत के बीच झूलती है।
अंग को समझिए, रोग को समझिए। दर्द व्यक्तिगत अनुभूति है, लेकिन हँसता हुआ हृदयाघात-रोगी भी परलोक सिधार जाएगा इसलिए उसे पहले डॉक्टर का ध्यान चाहिए। अकारण छद्म स्त्रीवाद के नामपर भ्रान्तिपूर्ण धारणाएँ बना लेना और डॉक्टरों पर मिथ्या दोषारोपण बहुत सी ग़लत छवियों को गढ़कर सामने पेश करता है, जिससे हानि अन्ततः सभी की होती है।