लेखक : बबली सिंह
मेरी आँखों के सामने अब कोई अँधेरा नही,
कि हर धूल मैंने झाड़ दी है अब,
मुझे अब अपने दर्द की नुमाइश भी नही करनी,
कि हर मर्ज़ की दवा ढूंढ़ ली है अब,
हाँ मुझे देखते है लोग भरी बाज़ारों में,
सड़कों पे,गाड़ियों में, देखते नही घूरते है,
हाँ! तो देखो हमे,देखो और सोचो, और झाकों खुद में,
क्यों नही देखता तुम्हें कोई,सोचा है?
बाँधी जाती रही हूँ शायद कई सालों से ‘मैं’,
कि सौंप दिया था हमने खुद को तेरे हाथों में,
जिस तरह ‘मोती’ छोड़ देती है खुद का ‘अस्तित्व’ उस सीप में,
ठीक उसी तरह कर दिया था हमने अपना ‘अस्तित्व’तेरे हवाले,
पर तूने उसका मोल न समझा,
मारा,दुत्कारा, मैला-कुचैला कर डाला,
खैर अब ‘ मैं ‘ जाग उठी हूँ,
अब इस मोती को किसी सीप की जरुरत नही,
हाँ! अब धिक्कारों, कोसों हमें,
क्योंकि हमने तुम्हारे पुरूषत्व को लात मार दी है,
कि हमने तुम्हारी अब हाथ काट दी है,
जो सलाखें बन हम पे मंडराया करती थी,
अब हम ख़ुद में पूर्ण है,
कि ऐसा अब कुछ बचा नही जो हमसे दूर है,
जल,थल, वायु,चाँद सब हमने नाप डाली,
अब तो बार -बार चीख-चीख के कहूँगी उस खुदा से,
जब-जब जन्म हो मेरा,नवाज़े तू मुझे इसी ‘बेटी’ रूप में,
ए-खुदा हो सके तो मोहे बार-बार,हर बार बिटिया ही कीजौ।
शोभनं, सुंदर प्रयास,
निरंतरता बनाये रखें।