देश नहीं है तो कुछ नहीं है। कुछ भी नहीं

विवेक पाठक
लेखक स्वतंत्र पत्रकार

देश में संचार माध्यमों के विस्तार के साथ अब सत्ता विरोधी आंदोलन बहुत तेजी से खड़े होने की प्रवृत्ति दिखी है। तमाम आंदोलनों में कुछ भटके हुए लोगों का आवेश लोकतंत्र की मर्यादा कई बार छलनी कर जाता है। महाराष्ट्र के मराठा आंदोलन में हाल ही में दिखा। मराठाओं के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की यह मांग न तो सिरे से स्वीकारी जा सकती है और न ही सिरे से झुठलाई जा सकती है। यह बहस का विषय है और महाराष्ट्र के पक्ष विपक्ष को इस पर चर्चा कर मु्द्दे का हल निकालना चाहिए मगर आरक्षण की मांग के लिए हिंसक प्रदर्शन लोकतंत्र में बर्दाश्त के बाहर है। मौजूदा हिंसक आंदोलन सिर्फ आज की हकीकत नहीं है। देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक का उपयोग करते करते देश के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और विभिन्न लक्ष्यों के लिए बने संगठन कई बार सीमाओं को पार कर जाते हैं।
हम स्वस्थ समाज में रहते हैं। हमने कई शताब्दियों के संघर्ष के बाद आजादी पायी है। हमारी मानव सभ्यता का विकास कोई कुछ सालों या शताब्दियों का नहीं है। मनुष्य समाज नाम की संस्था को सफलतापूर्वक अब तक चला रहा है क्योंकि समाज के नियम अधिकांश और बहुसंख्यक सदस्य और नागरिक निभा रहे हैं। समाज में हम इसलिए एक दूसरे के आसपास साथ साथ रह रहे हैं क्योंकि हम एक दूसरे के अस्तित्व का सम्मान करते हैं और एक दूसरे को पूरक मानते हुए सहयोग और सहकार की भावना रखते हैं। हम अपनी आजादी की मांग करते हैं तो दूसरे की आजादी की भी इज्जत करते हैं समाज में। हम सबके सामूहिक अधिकार हैं और सभी के सामूहिक कर्तव्य है। लोकतंत्र समाज की सभ्यता से निकली शासन प्रणाली है। यह महान प्रणाली है क्योंकि इसमें सबके लिए सुरक्षा सम्मान है सबके अधिकार व कर्तव्यों की परवाह है। लोकतंत्र में सत्ता के सामने आंख में आंख डालकर विपक्ष तीखे सवाल करता है तो ये इसकी खूबसूरती है। लोकतंत्र में विपक्ष सरकार को लक्ष्य से भटकने से बचाता है और अनसुनी पर आगाह भी करता है।
इस खूबसूरत शासन प्रणाली में नागरिकों के पास तमाम मौलिक अधिकार हैं जिनके सहारे वे सत्ता 5 साल चुनने के बाद भी अपने अधिकारों और अपनी बात के लिए अपनी आवाज बुलंद कर सकते हैं। सरकार को नींद से जगाने के लिए धरना, प्रदर्शन, रैली, जुलूस, आमसभा सभ्य समाज के अधिकार हैं। ये वो रास्ते हैं जिनके जरिए सरकार को लापरवाही से रोका जाता है और अपनी आवाज को सरकार तक पहुंचाया जाता है।
इन बेहतर और बुलंद उपायों के बाबजूद भी लोकतांत्रिक भारत में पिछले कुछ समय से हिंसक विरोध प्रदर्शन शर्मनाक हैं। लोग सरकार से अपनी मांगे मनबाने के लिए हिंसा को हथियार बनाने की ओर तेजी से मुड़े हैं। राजनैतिक और सामाजिक दलों के कार्यकर्ता से लेकर तमाम त्वरित मु्द्दो से मीडिया का ध्यान खींचने वाले संगठन सार्वजनिक संपत्तियों को हानि पहुंचाते हैं। हड़ताल को सफल बनाने के लिए सरकारी और गैरसरकारी संपत्तियों में तोड़फोड़ करते हैं। स्वतंत्र नागरिकों के जीवन में बाधा डालते हैं उनकी बसों और रेलयात्राओं को चक्काजाम और पटरियां उखाड़कर बाधित करते हैं। ये बहुत खतरनाक है। ऐसे हिंसक आंदोलनों की पराकाष्ठा हम 2 अप्रैल 2018 को पूरे भारत में देख चुके हैं। दलितों पर अत्याचार निवारण संबंधी अधिनियम में गिरफतारी से पहले जांच के लिए 7 दिन का सवाल सुप्रीम कोर्ट ने दिया था। ये न्यायिक फैसला था जिस पर आपत्ति करने के आजाद भारत में तमाम रास्ते खुले थे। इसके बाबजूद देश के कुछ राजैनतिक दलों और संगठनों ने अपनी राजनैतिक महत्वकाक्षांआेंं के लिए हिंसक आंदोलन का मौन समर्थन किया। कुछ सत्ता के लिए तीव्र लालसा में हिंसा को भी किसी भी तरह जायज बोलने से नहीं चूके।
ये बहुत खतरनाक राजनीति की शुरुआत है जिसको बहुत जिम्मेदारी से खत्म किया जाना चाहिए। देश हर नागरिक का है और हर नागरिक के लिए दूसरे नागरिकों की सुरक्षा, निजता ,अधिकारों का अपनी तरह सम्मान करना चाहिए। अपनी मांगों और अधिकारों की लड़ाई दूसरे हजारों नागरिकों या अपने ही बीच के नागरिकों को शारीरिक कष्ट देकर नहीं लड़ी जा सकती। देश ने आपको बहुत जिम्मेदारी से आपके अधिकार दिए हैं। आप हर अधिकार का खुलकर प्रयोग कीजिए मगर राष्ट्र, समाज और मानवता के प्रति अपने दायित्वों से कभी पीछे मत हटिए। अगर ये नहीं है तो देश नहीं है और देश नहीं है तो कुछ नहीं है। कुछ भी नहीं।

1 COMMENT

  1. समाज को मुख्य धारा में लाने को अच्छी सोच है।
    मैं आपकी बातों से सहमत हूँ।

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