–मनमोहन कुमार आर्य-
महर्षि दयानन्द न केवल वेदों एवं वैदिक साहित्य के विद्वान थे अपितु उन्हें पुराणों सहित सभी अवैदिक धार्मिक ग्रन्थों व पुस्तकों का भी तलस्पर्शी ज्ञान था। अपने इस व्यापक ज्ञान के कारण ही उन्होंने जहां वेदों का भाष्य किया और सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित संस्कार विधि आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया वहीं उन्होंने सभी मत व पन्थों की समीक्षा कर उनमें विद्यमान अज्ञान व अन्धविश्वासों से युक्त मान्यताओं का प्रकाश व समाधान भी किया। महाभारत काल से कुछ समय पूर्व जब वैदिक धर्म में विकृतियां उत्पन्न हुईं तो उसका परिणाम पौराणिक मत का आविर्भाव हुआ और देश-विदेशों में अन्य मत अस्तित्व मत आये। जिस प्रकार से सूर्यास्त होने पर अन्धकार होना आरम्भ होकर बाद में रात्रि रूपी गहन अन्धकार हो जाता है और सूर्योंदय होने पर पुनः अन्धकार दूर होकर प्रकाश हो जाता है, ऐसा ही महाभारतकाल और बाद के वर्षों में समस्त देश भर में व विदेशों में भी ज्ञानान्धकार उत्पन्न हो गया था। महर्षि दयानन्द के प्रादूर्भाव से व वेदों के उनके सत्यार्थ के प्रचार से अज्ञान का सूर्य अस्त होकर ज्ञान का देश व विदेशों में प्रचार हुआ। अन्धकार के दिनों में मूर्तिपूजा अस्तित्व में आई और नदियों को तीर्थ की संज्ञायें दी गईं। यद्यपि नदियों का अपना महत्व है, परन्तु उन्हें अनावश्यक धार्मिक महत्व देकर ईश्वर के सच्चे स्वरूप को विस्मृत कर उसका स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, ध्यान, उपासना, अग्निहोत्र व यज्ञ का त्याग कर देना एक प्रकार की नास्तिकता है जो मनुष्यों को बहुत ब़ड़ी विपत्ति में डालने वाली है। इसका ज्ञान वेदों व वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर होता है और सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर भी इसका ज्ञान व विश्वास होता है।
आज इस लेख में हम मूर्तिपूजा, तीर्थ व नामस्मरण पर महर्षि दयानन्द जी के सत्य व यथार्थ विचारों को प्रस्तुत कर रहे हैं। हमारा सौभाग्य है कि ईश्वर की कृपा से महर्षि दयानन्द के कुछ उपदेश ही नहीं अपितु उनके द्वारा स्वयं लिखाये गये विचार व उनके द्वारा सम्पादित किये गये ग्रन्थ उपलब्ध हैं। अनेक महापुरूष व युगपुरूष ऐसे भी हैं जिन्होंने धर्म का प्रचार किया परन्तु स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा। उनके शिष्यों ने लम्बी अवधि बाद उनके विचारों का संकलन किया। अब उन ग्रन्थों को पढ़ने के बाद यह ठीक से ज्ञात नहीं होता कि उन ग्रन्थों में व्यक्त विचार क्या वस्तुतः यथार्थ रूप में उन्हीं के हैं या ग्रन्थ में वह कुछ भिन्नता को प्राप्त हुए हैं। ऐसा तो नहीं कि कहीं लेखकों के लिखने में स्मृति दोष व मनुष्यों की अल्पज्ञता आदि दोषों के कारण उनका शुद्ध स्वरूप किंचित परिवर्तित हो गया हो वक्ता के उपदेश को स्मरण कर लिखने में भूलों का होना स्वाभाविक है। अस्तु।
अब लेख के विषय पर आते हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में महर्षि दयानन्द जी ने स्वयं एक प्रश्न उपस्थित किया है जिसमें वह कहते हैं कि यह मूर्तिपूजा और तीर्थ सनातन (हमेशा) से चले आते हैं, अतः यह झूठे क्यों कर हो सकते हैं? इसका विवेकपूर्ण उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि तुम सनातन किस को कहते हो? जो सदा से चला आता है, जो यह सदा से होता तो वेद और ब्राह्मणादि ऋषिमुनिकृत पुस्तकों में इनका नाम क्यों नहीं? यह मूर्तिपूजा अढ़ाई तीन सहस्र वर्ष के इधर-इधर वाममार्गी और जैनियों से चली है। इससे पूर्व आर्यावर्त में नहीं थी और ये तीर्थ भी नहीं थे। जब जैनियों ने गिरनार, पालिताना, शिखर, शत्रुंजय और आबू आदि तीर्थ बनाये, (उनके पश्चात) उनके अनुकूल इन (पौराणिक व अन्य) लोगों ने भी बना लिये। जो कोई इनके आरम्भ की परीक्षा करना चाहे वे पण्डों की पुरानी से पुरानी बही और तांबे के पत्र आदि लेख देखें तो निश्चय हो जायेगा कि ये सब तीर्थ पांच सौ अथवा सहस्र वर्ष से इधर ही बने हैं। सहस्र वर्ष के उधर का लेख किसी के पास नहीं निकलता, इससे (यह मूर्तिपूजा व तीर्थों का प्रचलन) आधुनिक हैं।
अन्य प्रश्न यह प्रस्तुत किया है कि जो-जो तीर्थ वा नाम का माहात्म्य अर्थात् जैसे ‘अन्यक्षेत्रे कृतं पापं काशीक्षेत्रे विनश्यति।’ इत्यादि बातें हैं वे सच्ची हैं या नहीं? इसका उत्तर महर्षि दयानन्द देते हैं कि वह बातें सच्ची नहीं हैं। क्योंकि जो पाप छूट जाते हों तो दरिद्रो को धन, राजपाट, अन्धों को आंख मिल जाती, कोढि़यों का कोढ़ आदि रोग छूट जाता, ऐसा होना चाहिये था। (क्योंकि पापी व्यक्ति को यह वस्तुयें अप्राप्त होती हैं, पाप न करने वालों को नहीं) इसलिये पाप वा पुण्य किसी का नहीं छूटता। पौराणिक जगत में यह मान्यता भी प्रसिद्ध रही है कि जो सैकड़ों सहस्रों कोश दूर से भी ‘गंगा–गंगा’ कहे तो उस के सब पाप नष्ट होकर वह विष्णुलोक अर्थात् वैकुण्ठ को जाता है। इसी प्रकार की दूसरी मान्यता यह रही है कि ‘हरि’ नाम का उच्चारण सब पापों को हर लेता है। वैसे ही राम, कृष्ण, शिव, भगवती आदि नामों का माहात्म्य है। तीसरी मान्यता यह है कि जो मनुष्य प्रातःकाल में शिव अर्थात् शिव-लिंग वा उस की मूर्ति का दर्शन करे तो रात्रि में किया हुआ, मध्यान्ह में दर्शन से जन्म भर का, सायंकाल में दर्शन करने से सात जन्मों का पाप छूट जाता है। यह शिव-लिंग के दर्शन का माहात्म्य है। इन तीनों मान्यताओं को प्रस्तुत कर वह पूछते हैं कि क्या इस प्रकार से नामस्मरण से इनका माहात्म्य झूठा हो जायेगा? इसका स्वयं उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि इनके मिथ्या होने में क्या शंका? क्योंकि गंगा-गंगा वा हरि व हरे, राम, कृष्ण, नारायण, शिव और भगवती के नामस्मरण से पाप कभी नहीं छूटता। जो छूटे तो दुःखी कोई न रहे। और पाप करने से कोई भी न डरे, जैसे आजकल पोपलीला में (पोपलीला व इन पाखण्डों के कारण) पाप बढ़ कर हो रहे हैं। मूढ़ों को विश्वास है कि हम पाप कर नामस्मरण वा तीर्थयात्रा करेंगे तो पापों की निवृत्ति हो जायेगी। इसी विश्वास पर पाप करके इस लोक और परलोक का नाश करते हैं, पर किया हुआ पाप भोगना ही पड़ता है।
उपर्युक्त ज्ञान देकर महर्षि दयानन्द ने इस प्रश्न कि क्या कोई तीर्थ नामस्मरण सत्य है या नहीं? का उत्तर देते हुए कहा है कि वेदादि सत्य शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, विद्वानों का संग, परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्यभाषण, सत्य का मानना, सत्य करना, ब्रह्मचर्य, आचार्य, अतिथि, माता, पिता की सेवा, परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना, उपासना, शान्ति, जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्तपुरूषार्थ, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभगुण, कर्म दुःखों से तारने वाले होने से तीर्थ हैं। और जो जल-स्थलमय स्थान हैं वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते क्योंकि ‘जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि’ मनुष्य जिन कर्मों को करके दुःखों से तरें उन का नाम तीर्थ है। जल स्थल तराने वाले नहीं किन्तु डुबाकर मारने वाले हैं। प्रत्युत नौका आदि का नाम तीर्थ हो सकता है क्योंकि उन से भी समुद्र आदि को तरते हैं। स्वामी दयानन्द जी अष्टाध्यायी सूत्र 4/4/107 ‘समानतीर्थे वासी’ तथा यजुर्वेद अध्याय 16 के ‘नमस्तीथ्र्याय च’ वचनों को प्रस्तुत कर कहते हैं कि जो ब्रह्मचारी एक ही आचार्य से एक शास्त्र को साथ-साथ पढ़ते हों, वे सब सतीथ्र्य अर्थात् समानतीर्थसेवी होते हैं। जो वेदादि शास्त्र और सत्यभाषाणादि धर्म लक्षणों में साधु हो उस को अन्नदि पदार्थ देना और उन से विद्या लेनी इत्यादि तीर्थ कहाते हैं।
नामस्मरण, ‘यस्य नाम महद्यशः’ (यजुर्वेद वचन) में जो भावना है, उसके अर्थ सहित स्मरण करने को कहते हैं। परमेश्वर का नाम बड़े यश अर्थात् धर्मयुक्त कामों का करना है। जैसे ब्रह्म परमेश्वर, ईश्वर, न्यायकारी, दयालु, सर्वशक्तिमान् आदि नाम परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से हैं। जैसे ब्रह्म सब से बड़ा, परमेश्वर ईश्वरों का ईश्वर, ईश्वर सामथ्र्ययुक्त, न्यायकारी कभी अन्याय नहीं करता, दयालु सब पर कृपादृष्टि रखता, सर्वशक्तिमान् अपने सामथ्र्य ही से सब जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करता, सहाय किसी का नहीं लेता। ब्रह्मा विविध जगत् के पदार्थों का बनानेहारा, विष्णु सब में व्यापक होकर रक्षा करता, महादेव सब देवों का देव, रूद्र प्रलय करनेहारा, आदि नामों के अर्थों को अपने में धारण करे अर्थात् बड़े कामों से बड़ा हो, समर्थों में समर्थ हो, सामथ्र्यों को बढ़ाता जाय। अधर्म कभी न करे। सब पर दया रक्खे। सब प्रकार के साधनों को समर्थ करे। शिल्प विद्या से नाना प्रकार के पदार्थों को बनावे। सब संसार में अपने आत्मा के तुल्य सुख-दुःख समझे। सब की रक्षा करे। विद्वानों में विद्वान होवे। दुष्ट कर्म और दुष्ट कर्म करने वालों को प्रयत्न से दण्ड और सज्जनों की रक्षा करे। इस प्रकार परमेश्वर के नामों का अर्थ जानकर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल अपने गुण, कर्म, स्वभाव को करते जाना ही परमेश्वर का नामस्मरण है।
महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा की निरर्थकता को अवगत कराया है। तीर्थ के सम्बन्ध में सभी प्रकार की भ्रान्तियों को दूर कर सच्चे तीर्थ का स्वरूप प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार नामस्मरण की मिथ्या मान्यता का खण्डन कर यथार्थ मान्यता का सत्य व यथार्थ स्वरूप प्रस्तुत किया है। महर्षि दयानन्द के विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों को विगत 132 वर्षों की अवधि में सत्य पाया गया है व उनकी वैदिक मान्यताओं की पुष्टि हुई है। आशा है कि विवेकी पाठक और पौराणिक बन्धु महर्षि दयानन्द के इन विचारों से लाभ उठा कर अपने जीवन का कल्याण करने के साथ देश व समाज को भी वेद सम्मत आधुनिक स्वरूप देने में अपनी भूमिका निभायेंगे। सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। विवाद व दुराग्रह से स्वार्थ सिद्धि करना जीवनोद्देश्य नहीं है।
कुछ दिनों से श्री मनमोहन आर्य जी के प्रस्तुत निबंध, “मूर्तिपूजा, तीर्थ व नाम स्मरण का सच्चा स्वरूप और स्वामी दयानंद, पर डा: रंजीत सिंह जी की प्रतिक्रिया, विशेषत्यः निबंध में उन्नीसवीं शताब्दी में स्वामी दयानंद जी द्वारा कहे वचनों को आज इक्कीसवीं शताब्दी में उभरते वैश्वीकरण के संदर्भ में अध्यात्मिक और राजनैतिक परिस्थितियों के बीच उनके प्रयोजन अथवा महत्व को समझने का प्रयास कर रहा था कि अकस्मात् मेरा ध्यान अतीत में उन्नीसवीं शताब्दी की धुंधली पृष्ठभूमि में जा पहुंचा है| पाश्चात्य विदेशियों में संस्कृत भाषा के ज्ञान के माध्यम से भारतीय शास्त्रों के अध्ययन हेतु दौड़ में अन्य संस्थाओं के बीच संस्कृत कालेज, कलकत्ता स्थापित हो चुका था| इस बीच विश्व में ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार करते भारतीय उप महाद्वीप के मूल निवासियों में ईसाई धर्म को लोकप्रिय बनाने हेतु ईसाई धार्मिक विद्वान और धर्मोपदेशक भी बड़ी उग्रता से व्यस्त थे| तभी थ्योसोफिकल सोसाइटी ऑफ इंग्लैंड ने भी भारतीय भूखंड के मूल निवासियों को प्रभावित करते क्षेत्र में अपने पाँव पसारने आरम्भ कर दिए थे| अब भारतीय जीवन पर इन परिस्थितियों का दीर्घकालिक प्रभाव तो शोध का विषय होना चाहिए लेकिन मेरा विश्वास बना रहेगा कि समय बीतते आधुनिक भारतीय समाज में बड़े संतों, नानक, महावीर, दयानंद, राजा राममोहन राय, इत्यादि, ने हिंदू धर्म को नई दिशा दी है, तिस पर हिंदू समाज में इन संतों को सम्मानित किया जाता रहा है|
मैं अतीत से पुनः इक्कीसवीं शताब्दी में लौटते आज की अध्यात्मिक और राजनैतिक परिस्थितियों में इन सभी संतों, विशेषकर स्वामी दयानंद जी के आदर्शों और उपदेशों को भारतीय जीवन में स्थिरता व संगठन को अच्छे ढंग से प्रभावित करता देखना चाहूँगा| भारत में परस्पर प्रेम व सद्भावना हेतु व्यक्तिगत भिन्नता और मतभेद आज के समाज से दूर ही रहने चाहिएं अतएव बुद्धिजीवियों को भी इस ओर सतर्कता बरतनी होगी|
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Dr Ranjeet Singh (UK)
श्री मनमोहन कुमार आर्य महोदय जी,
आपने लिखा है – “महाभारत काल से कुछ समय पूर्व जब वैदिक धर्म में विकृतियां उत्पन्न हुईं तो उसका परिणाम पौराणिक मत का आविर्भाव हुआ”। परन्तु मान्यवर! पुराणों का आविर्भाव तो वेदों से भी पूर्व हुआ था, ऐसा शास्त्रों में स्पष्ट वर्णन है। फिर आपके इस तथाकथिक पौराणिक मत का आविर्भाव महाभारत काल के उपरान्त क्योंकर हो सकता है और कहा जा सकता है? यह तो आपलोगों की एक परिकल्पना मात्र है, अन्य कुछ नहीं। आप बताइये तो सही कि यह पौराणिक मत है क्या और इसका आविर्भाव किसने और कब किया था? आप प्रायः अपने हर लेख में यह कहा करते हैं, परन्तु कभी भी आपने अपने इस कथन को प्रमाणपुष्ट नहीं किया। अब की बार तो कृपा करके कर ही दीजिये।
आपके कथनानुसार “महाभारतकाल और बाद के वर्षों में…मूर्तिपूजा अस्तित्व में आई और नदियों को तीर्थ की संज्ञायें दी गईं।” आपके अनुसार “वेद और ब्राह्मणादि ऋषिमुनिकृत पुस्तकों में इनका नाम नहीं” के और “मूर्तिपूजा अढ़ाई तीन सहस्र वर्ष के इधर-इधर वाममार्गी और जैनियों से चली है। इससे पूर्व आर्यावर्त में नहीं थी और ये तीर्थ भी नहीं थे।”
परन्तु मान्यवर! यदि यही बात होती तो रामायण में ही मूर्तियों, मूर्तिपूजा और मदिरों की चर्चा कैसे और कहाँ से और कैसे आगयी होती? क्या रामायण ऋषि प्रणीत ग्रन्थ नहीं है? केवल दयानन्द जी ही महर्षि और प्रामाणिक व्यक्ति हैं; वाल्मीकि जी नहीं?
मान्य बन्धु! वे तो एक महर्षि के औरस पुत्र थे और आदिकवि माने जाते हैं। फिर उनके ग्रन्थ प्रामाणिक कैसे नहीं?
यही बात तीर्थों के सम्बन्ध में भी है। लगता है आपने सत्यार्थ प्रकाश और अपने स्वामीजी के ग्रन्थ ही पढे़ हैं; हिन्दु धार्मिक साहित्य पढा़ ही नहीं। अन्यथा ऐसा कैसे कहते? हम आपसे पूछना चाहेंगे – “महोदय! क्या भगवान् श्री कृष्ण द्वारा सूर्यग्रहण के अवसर पर स्नान-दानाद्यर्थ सपरिवार कुरुक्षेत्र तीर्थयात्रा पर जाने का का उल्लेख, उसका वर्णन क्या प्राचीन आर्षग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता? तथा च, क्या वे ग्रन्थ “अढ़ाई तीन सहस्र वर्ष के इधर के हैं”? यदि वे गये थे तो तीर्थों और तीर्थयात्रा एक अर्वाचीन प्रचलन कैसे कहा जा सकता है और है? उनका वर्णन हमारे प्राचीन स्सहित्य में कहीं नहीं; यह भी सत्य क्योंकर हो सकता है?
डा० रणजीत सिंह (यू०के०)