मूर्तिपूजा, तीर्थ हर की पैड़ी, एकसाथ खानपान और महर्षि दयानन्द

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dyanandमहर्षि दयानन्द अपने जीवनकाल में देश के विभिन्न भागों में वेद प्रचारार्थ जाते थे और लोगों को उपदेश करते थे। वह प्रायः सभी स्थानों पर अपने कार्यक्रमों के विज्ञापन कराते थे जिसमें उपदेशों के अतिरिक्त शंका समाधान, वार्तालाप और शास्त्रार्थ करने का आमंत्रण हुआ करता था। उनके इन कार्यक्रमों में हिन्दूओं सहित सभी मुस्लिम व ईसाई बन्धुओं को आने की छूट होती थी और राज्याधिकारियों सहित सभी मतों व धर्मों के अनुयायी इसमें आकर उपदेश श्रवण के साथ अपनी शंकाओं आदि का निवारण करते थे। महर्षि दयानन्द के इन कार्यों का एकमात्र उद्देश्य सभी मनुष्यों को सत्यासत्य के निर्णय में सहायता प्रदान कर उन्हें सत्य को ग्रहण करने के लिए प्रेरित करना होता था जिससे उनकी सर्वांगीण, आध्यात्मिक और सामाजिक, उन्नति हो सके। यहां हम महर्षि के जीवनकाल में घटी 3 घटनायें प्रस्तुत कर रहें हैं जिससे इतिहास का पुरावलोकन होकर इन विषयों का ज्ञान पाठकों को कुछ-कुछ हो सके।

यह घटना हरिद्वार की है जहां सन् 1879 में होने वाले कुम्भ के मेले पर एक दिन मूला मिस्त्री, सब ओवरसियर नहर गंगा ने स्वामी जी से पूछा कि आपने यह मूर्तिपूजा खण्डन की बात क्यों औार कैसे उठाई? इसका स्वामीजी ने उत्तर दिया कि मेरा प्रथम से ही यह विचार था कि मूर्तिपूजा केवल अविद्या अन्धकार से (करते हैं) है परन्तु इसके अतिरिक्त मेरे गुरू परमहंस श्री विरजानन्द सरस्वती जी महाराज बैठे-बैठे खण्डन किया करते थे क्योंकि आंखों से लाचार थे। और कहते थे कि कोई हमारा शिष्य ऐसा भी हो जो इस (मूतिपूजा के) अन्धकार को देश से हटा दे। इसलिये मुझे इस देश पर दया आई इसलिए यह बीड़ा उठाया है। यह घटना आर्यसमाज के जीवनदानी, शहीद व प्रथम जीवनचरित के अनुसन्धानकर्त्ता व शीर्ष पं. लेखराम जी द्वारा एकत्रित व प्रकाशित सामग्री का भाग है। इस घटना को महर्षि दयानन्द जी द्वारा मूर्तिपूजा के खण्डन की भूमिका, उद्देश्य व महत्ता कह सकते हैं। इन पंक्तियों को पढ़कर महर्षि दयानन्द जी का अपने गुरू के प्रति हार्दिक सम्मान भी झलकता है तथा गुरू की इच्छा वा आज्ञा पालन की यह एक ऐतिहासकि बेहतरीन मिसाल है। सत्य का प्रचार व प्रसार तथा असत्य का क्षया या पराभव करना भी वेदाध्ययन से ज्ञात होता है। अतः महर्षि दयानन्द ने वेदों में ईश्वराज्ञा से प्रेरित होकर भी यह कार्य किया, ऐसा हमारा अनुमान है।

इस लेख में दूसरी घटना हिन्दू व मुसलमानों के तीर्थों से सम्बन्धित है। महर्षि दयानन्द सन् 1879 में हरिद्वार में होने वाले कुम्भ के मेले में फरवरी से अप्रैल, 1879 तक रहे थे। यहां एक दिन नजफअली तहसीलदार, रूड़की स्वामीजी के पास आये और व्याख्यान सुनने लगे। व्याख्यान सुनकर कहा कि आज तक हमें कुछ सन्देह था परन्तु अब अच्छी प्रकार सिद्ध हो गया है कि जितना ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान संस्कृत में है, उतना दूसरी भाषा में नहीं है। दूसरी बार वह श्री वकारअली बेग डिप्टी मजिस्ट्रेट को साथ लेकर आये। डिप्टी साहब तम्बू के द्वार पर रूक गये और तहसीलदार साहब भीतर आ गये और डिप्टी साहब से कहा कि–स्वामी जी बड़े सिद्ध पुरूष हैं, मैं भी उन का सेवक हूं। डिप्टी साहब ने स्वामीजी से प्रश्न किया कि यह हरिद्वार और हर की पैड़ी क्या है? स्वामीजी ने उत्तर दिया कि हर की पैड़ी तो नहीं किन्तु हाड़ की पैड़ी है क्योंकि हजारों मन हड्डियां यहां पड़ती हैं। डिप्टी साहब ने कहा कि यदि इस गंगा में स्नान का माहात्म्य है तो इस में ही क्या विशेषता है कि पैड़ी पर स्नान, दान करें? स्वामी जी ने कहा कि यह बात पण्डों की बनाई हुई है क्यांकि यदि लोग गंगा में प्रत्येक स्थान पर स्नान करने लगें तो पण्डा जी दक्षिणा कहां से लें। आपके यहां अजमेर में भी यही बात है। मुजाविर (कब्र के समीप रहने वाला) कहते हैं कि न इधर न उधर चढ़ाओं बल्कि इन ईंटों में चढ़ाओं, ख्वाजा साहब इर्न इंटों में घुसे हैं। इस पर वे निरूत्तर हो गये। यह घटना भी पण्डित लेखराम जी ने महर्षि के जीवनचरित में दी है जिसके लिए उन्होंने महर्षि दयानन्द द्वारा देश भर के समस्त प्रचारित स्थानों पर जाकर वहां उनके सम्पर्क में आये व्यक्तियों से व्यक्तिगत सम्पर्क करके उनके संस्मरणों को संग्रहित कर जीवनचरित में यथावत् अर्थात् एक इतिहाज्ञ की भांति प्रस्तुत किया है। इससे तीथों में दान के नाम पर वहां जो श्रद्धालुओं से धन ऐंठा जाता है, उसका यथार्थ दिग्दर्शन होता है। हम स्वयं भी बाल्यकाल में इस प्रकार की घटनाओं से दो चार हुए हैं और अपने कई मित्रों को भी इसका भुक्तभोगी होते देखा है।

एक साथ खानपान पर भी हरिद्वार के इसी कुम्भ मेले के अवसर पर महर्षि दयानन्द से प्रश्न किया गया। यह घटना उस समय की है जब स्वामीजी मायापुर में तम्बू लगाकर ठहरे हुए थे तो उम्मीद खां और पीर जी इब्राहीम नामक दो यवनों ने स्वामी जी से प्रश्न किया कि हम ने सुना है कि आप मुसलमानों को भी आर्य बना लेते हैं। स्वामी ने कहा कि हम वास्तव में आर्य बना लेते हैं। आर्य के अर्थ श्रेष्ठ और सत्यमार्ग पर चलने वाले के हैं। जब आप सत्यधर्म स्वीकार करें तब आर्य हो गये। उन्होंने कहा कि हमारे साथ मिलकर खाओगे? स्वामी जी ने कहा कि हमारे यहां केवल उच्छिष्ट (झूठा भोजन) का त्याग है, हम एक दूसरे के साथ इकट्ठा नहीं खाते (अर्थात् एक थाली में दो या अधिक व्यक्ति नहीं खाते)। मुसलमानों ने कहा कि एक स्थान पर खाने से प्रेम बढ़ता है। स्वामी जी ने कहा कि कुत्ते भी तो मिलकर एक स्थान पर खाते हैं परन्तु खाते-खाते आपस में लड़ने लगते हैं। इस पर वे मौन हो गये। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि एक साथ भोजन करने से एक दूसरे के रोग साथ खाने वाले लोगों को लग जाते हैं जिस कारण भी एक साथ भोजन करने का निषेध है। दो व्यक्तियों की प्रवृत्ति भी भिन्न होती है।

स्वस्थ मनुष्यों में भी नाना रोगों के सूक्ष्म जीवाणु या किटाणु हो सकते हैं जो एक साथ भोजन करने से एक दूसरे के शरीर में प्रवेश कर दूसरे व्यक्ति को रोगी बना सकते हैं। न केवल भोजन करने से ही, अपितु क्षय रोग जैसे अनेक रोगों के किटाणु वायु के द्वारा सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के शरीर में घुस कर उन्हें रोगी बना देते हैं। एक साथ भोजन की ही तरह माता-पिता अपनी सन्तानों के लिए कितना त्याग व बलिदान करते हैं, सन्तानों का शरीर ही माता-पिता से निर्मित होता है, परन्तु आजकल की सन्तानों के किस्से सुनकर व पढ़कर लगता है कि मनुष्य कितना स्वार्थी व अहसान फरामोश हो गया है, नैतिकता व चरित्र से गिर गया है। कुछ सन्तानें न केवल माता-पिता का अपमान व तिरस्कार ही कर रही हैं अपितु सन्तानों द्वारा स्वार्थ के लिए माता-पिता की हत्या तक कर दी जाती है। परस्पर एक साथ खाने वाले व एक छत के नीचे रहने वाले भी अनेक बार अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के उत्पन्न होने पर एक दूसरे के विरोधी व शत्रु बन बैठते हैं। अतः भोजन एक साथ बैठ कर अलग-अलग थाली में तो करें परन्तु एक साथ थाली में न करना ही श्रेयस्कर है जिससे स्वास्थ्य भी ठीक रहे और भविष्य के लिए एक अच्छी परम्परा का विकास व वहन हो।

हम आशा करते हैं कि पाठक इन संस्मरणों को उपयोगी पाने के साथ महर्षि दयानन्द के जीवन व कार्यों से किंचित परिचित भी हो सकेंगे। ऐसा होना ही हमारे इस कार्य में किए गये पुरूषार्थ को सार्थक करता है। हम पाठकों से निवेदन करेंगे कि वह महर्षि दयानंद जी की पंडित लेखराम, पंडित देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय एवं स्वामी सत्यानन्दजी लिखित जीवन चरितों का अध्ययन कर लाभ उठायें।

मनमोहन कुमार आर्य

 

1 COMMENT

  1. मान्यवर! आपने लिखा — स्वामीजी ने उत्तर दिया कि हर की पैड़ी “हर की पैड़ी तो नहीं किन्तु हाड़ की पैड़ी है क्योंकि हजारों मन हड्डियां यहां पड़ती हैं”!

    क्या यह सच है कि वहाँ हजारों मन हड्डियाँ रोज़ पड़ती हैं?

    स्वामी जी को हड्डियाँ वहाँ मिली हों तो मिली हों – और सम्भव है आपको भी मिली हों – परन्तु हमने अनेक बार वहाँ स्नान किया; हमें तो कभी कोई हड्डी वहाँ नहीं मिली और न ही हमने किसी को हड्डियाँ वहाँ डालते देखा ही है।

    फिर स्वामीजी तो गङ्गा स्नान का कोई महत्त्व मानते ही नहीं थे; तब वे भला वहाँ स्नान ही क्यों करने लगे और क्योंकर किया होगा, वह भी हर वहाँ पैडी पर? हमें यह समझ नहीं आया।

    वैसे भी अस्थि-प्रवाह हर की पैडी पर होता है अथवा कई मील नीचे जाकर विशिष्ट एक घाट पर?

    डा० रणजीत सिंह (यू०के०)

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