दासता की इन बेडियों को भी उतार फेंका जाए . . .

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लिमटी खरे

ब्रितानी गोरों की हुकूमत से देश को आजाद हुए सात दशक बीत जाने के बाद भी दासता की कुछ बेड़ियों को हम जाने अनजाने अंगीकार किए हुए हैं। सात दशकों के बाद देश के हुक्मरान अपने प्रथम नागरिक के लिए एक अदद सरकारी आवास नहीं बनवा पाए हैं। आज भी ब्रितानी वायसराय के लिए बनाए गए भवन में राष्ट्रपति का आवास बनाया हुआ है। आज भी दासता के समय से चली आ रही परंपराओं का निर्वहन कर हुक्मरान गर्व महसूस करते हैं। रविवार का अवकाश गोरे ब्रितानियों ने अपनी सुविधा के हिसाब से रखा था, जिसे अब तक बदला नहीं जा सका है। सत्ताधीशों को मिलने वाला गार्ड ऑफ आनर क्या हमारी मौलिक संस्कृति का अंग है! क्या जूते के तसमे (लेस) बांधने के लिए किसी कर्मचारी को नियुक्त किया जा सकता है! अंग्रेजों के समय में निर्मित किया गया अर्दली का पद आज भी बरकरार ही है . . .!

कहते हैं शुरूआत कहीं न कहीं से ही छोटे रूप में होती है। देश में मंहगे चुनावों पर अंकुश लगाने के लिए तत्कालीन चुनाव आयुक्त तिरुनेलै नारायण अइयर शेषन (टी.एन. शेषन) के द्वारा चुनाव सुधार की कवायद की थी। उनके द्वारा जिस तरह से चुनाव के खर्चों को बारीकी और स्पष्ट रूप से जोड़ने की व्यवस्था बनाई थी, उसे लोग आज भी याद करते हैं। इसी तरह गोरे अंग्रेजों के द्वारा लादी गई परंपराओं को तजना बहुत जरूरी हो गया है।

झारखण्ड में हाल ही में मुख्यमंत्री चुने गए हेमंत सोरेन के द्वारा एक प्रशंसनीय पहल की गई है। इस पहल का स्वागत किया जाना चहिए। वे एक मंदिर गए। मंदिर के सामने ही पुलिस उन्हें गार्ड ऑफ आनर देने खड़ी रही। वे मंदिर से निकले, चप्पलें पहनीं, और गार्ड ऑफ आनर लिया। अमूमन गार्ड ऑफ आनर लेते वक्त जूते पहनने का रिवाज है। यह रिवाज अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया था। हेमंत सोरेन ने इस मिथक को तोड़ा।

इतना ही नहीं गार्ड ऑफ आनर लेने के बाद उन्होंने घोषणा की है कि वे इस गार्ड ऑफ आनर की परंपरा को भी समाप्त करेंगे। हेमंत सोरेन का यह कथन भी महत्वपूर्ण है कि पुलिस को व्हीआईपी कल्चर, रूढ़ीवादिता जैसे ढकोसलों में समय जाया करने के बजाए जनता की सेवा की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने मुख्यमंत्री के भ्रमण के दौरान दिए जाने वाले गार्ड ऑफ आनर को समाप्त करने की बात भी कही है।

भारत गणराज्य के राष्ट्रपति रहे अब्दुल कलाम ने भी अनेक रूढ़ीवादी परंपराओं को समाप्त किया था। कहा जाता है कि राष्ट्रपति भवन में जब तक व्हीव्हीआईपी यानी राष्ट्रपति भोजन न कर लें तब तक बाकी के कर्मचारी भोजन नहीं करते। कलाम साहब को देर रात तक काम करने की आदत थी। इसलिए उन्होंने फरमान जारी किया था कि सिर्फ एक रसोईए को छोड़कर बाकी सब लोग उनके भोजन करने तक इंतजार न करें। इतना ही नहीं राष्ट्रपति के तस्मे (जूते के बंद) बांधने के लिए एक व्यक्ति तैनात रहता है। उन्होंने उस मुलाजिम को अन्य काम में लगाने के निर्देशcvghjkl;jb देते हुए अपने जूते के बंद खुद ही बांधकर एक नज़ीर पेश की थी।

हेमंत सोरेन आदिवसी समुदाय से निकलकर आए हैं। उनकी तारीफ इसलिए भी की जानी चाहिए क्योंकि उनके द्वारा सामंती परंपराओं और उन वर्जनाओं को तोड़ने का साहस जुटाया है जो गैर जरूरी हैं, और इन परंपराओं को काफी पहले ही धवस्त कर दिया जाना चाहिए था। राज्यों में राज्यपालों के भवनों के लिए भी विशालकाय भूखण्ड दिया गया है। यहां के बगीचे देखते ही बनते हैं, पर ये किस काम के। इन जगहों पर आम जनता का प्रवेश प्रतिबंधित होता है। होना यह चाहिए कि राजभवन में राज्यपाल के निवास और कार्यालय को चारीदवारी से ढांका जाकर शेष स्थान को आम जनता के लिए खोल दिया जाना चाहिए। इससे बाग बगीचों की सैर का आनंद आम जनता उठा सकती है। आखिर ये पद हैं किसके लिए जनता के लिए ही न!

देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और रेलमंत्री के लिए विशेष रेलगाड़ियां दिल्ली में खड़ी हुई हैं। इन रेल गाड़ियों के रखरखाव में करोड़ों रूपए हर साल फूंक दिए जाते हैं। यक्ष प्रश्न यही है कि साल में कितनी बार इन अतिविशिष्ट लोगों के द्वारा इन रेलगाड़ियों में सफर किया गया है! जाहिर है उत्तर यही मिलेगा कि रेल मंत्री को छोड़कर अन्य पदों पर आसीन लोगों ने शायद ही कभी रेल का उपयोग किया हो! अगर ऐसा है तो फिर इन रेल गाड़ियों का क्या उपयोग! इन रेल के रेक्स को रेल के म्यूजियम में सजाकर रखना चाहिए ताकि लोगों को पता चल सके कि देश में इस तरह की व्यवस्थाएं भी कभी रही हैं।

हर राज्य में न जाने कितने पुलिस बैंड होंगे। पुलिस बैण्ड का क्या उपयोग! साल में कितनी बार पुलिस बैण्ड को बजाया जाता है! गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस के अलावा कभी कभार होने वाले शपथ ग्रहण आदि में राष्ट्रगान के लिए इसका उपयोग किया जाता है। इसके एक एक कर्मचारी पर लाखों रूपए साल के खर्च किया जाना क्या उचित है! इसके बजाए तो पूरे खर्च के महज पांच फीसदी खर्च में ही एक बार के लिए किराए पर बैण्ड बुलवाए जा सकते हैं।

जब प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति बने तो उन्होंने राष्ट्रपति के नाम के आगे लिखा जाने वाला महामहिम शब्द हटवाकर एक नज़ीर पेश की थी। राज्यों में राज्यपालों ने भी इसका अनुसरण किया था। देश भर में समय बे समय ली जाने वाली सलामी की परंपरा को भी समाप्त करने पर विचार किया जाना चाहिए।

जब हम प्राईमरी कक्षा में पढ़ते थे, उस समय एक शिक्षक ने कहा कि जिनके पिता सरकारी नौकर (गर्वमेंट सर्वेंट) हैं वे खड़े हो जाएं। हमारे पिता चूकि सरकारी अधिकारी थे, इसलिए हमने घर जाकर पिता से पूछा कि क्या आप सरकारी नौकर हैं! उन्होंने कहा हां! हमने कहा आप तो अधिकारी हैं, फिर नौकर कैसे! तब उन्होंने हमें विस्तार से बताया कि सरकार के लिए काम करने वाला हर शख्स सरकारी नौकर यानी जनता का सेवक होता है। जनता की सेवा के बदले ही उसे हर माह वेतन मिलता है।

आज सरकारी नौकर के मायने बदल चुके हैं। जिलों में जिलाधिकारी, जिलाधीश, जिला कलेक्टर जैसे नाम वाले पदों के अधिकारों पर भी विचार करने की जरूरत है। जिले के प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी को इतना अधिकार संपन्न बना दिया गया है कि अगर वह मनमानी पर उतारू हो जाए तो जनता त्राहीमाम त्राहीमाम कर उठेगी। जिलाधिकारी का पदनाम बदलकर जिला जनसेवक करने की जरूरत है। कलेक्टर शब्द से कर वसूली का आभास करने वाला अधिकारी के रूप में होता है।

इसी तरह लोकसभा, राज्य सभा, विधान सभाओं, राष्ट्रपति भवन, न्यायालयों आदि में वेषभूषा को ही अगर देखा जाए तो इसमें कहीं न कहीं, ब्रितानी हुकूमत की बू आती है। इसको बदला जाना चाहिए। गुलामी के समय अंगीकार किए गए रस्मोरिवाज, आडंबर से छुटकारा पाया जाना जरूरी है। राज्य सभा में वर्दी को लेकर बदलाव किया गया है, इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इस तरह के सामंती गैर जरूरी पाखंड को चिन्हित कर उसे उतार फेंकने की जरूरत है। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में अब ट्वंटी ट्वंटी यानी 2020 आ चुका है तब तो कम से कम यह किया ही जा सकता है . . .

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