इन ‘ललितों’ का तो एेसा ही है…!

-तारकेश कुमार ओझा-
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उन दिनों किसी अखबार में पत्रकार होना आइएएस – आइपीएस होने से किसी मायने में कम महत्वपूर्ण नहीं था। तब किसी भी पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी के कार्यालय के सामने मुलाकातियों में शामिल करोड़पति से लेकर अरबपति तक को भले ही अपनी बारी के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी पड़े, लेकिन पत्रकार को झट इंट्री मिल जाती थी। कड़े व लंबे संघर्ष के बाद जब मुझे गुजर – बसर लायक पारिश्रमिक पर एक अखबार में पत्रकार की नौकरी मिल गई, तो लगा जीवन का मार्ग मिल गया। जीवकोपार्जन के लिए अथक परिश्रम के बावजूद पाई – पाई की मोहताजी के लंबे दौर से निकले किसी भी युवक को यदि उसके रुचि का काम मिल जाए वह भी पूरे मान – सम्मान के साथ तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती थी। कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। लेकिन पत्रकारिता के शुरूआती दौर में मुझे कई अजीबोगरीब अनुभवों से भी दो चार होना पड़ा। मसलन कई ऐसे लोगों को जिन्हें पुलिस से भागते फिरना चाहिए , उन्हें ही रात के अंधेरे में पुलिस जवानों से कानाफूसी करते देख मैं दंग रह जाता था। पता लगता कि शहर के फलां चौराहे पर अवैध कच्ची शराब बेचने वाला यह शख्स ही प्रशासनिक महकमे के अधिकारियों व उनके परिजनों की यात्रा का बंदोबस्त करता है। ट्रेनों में  वेटिंग लिस्ट की जितनी मार हो, बदनाम ही सही लेकिन यह शख्स जैसे – तैसे रिजर्वेशन करवा ही देता है। या फलां सट्टा डान की इतने चारपहिया वाहन हैं  जो प्रशासनिक महकमों के अमुक – अमुक दफ्तरों  में किराए पर चल रहे हैं। मेरी दुविधा को समझते हुए संबंधित जवानों का अमूमन यही जवाब होता … समझा कीजिए , हम पुलिस वाले हैं… कोई शिक्षक – प्रोफेसर तो  हमसे दोस्ती करने थाने  आएगा नहीं। ये लोग ही हमारे असली सोर्स है, जो अपराधियों के बारे में सूचनाएं देकर हमारी मदद करते हैं। कालांतर में पता चला कि पुलिस महकमे के कई आकस्मिक खर्च भी यही वर्ग वहन करता है। वर्ना सरकार के पास इतना फंड कहां कि हर प्रकार के खर्च वहन कर सके। इस तरह पुलिस के साथ इस वर्ग की लुकाछिपी का खेल देखते करीब एक दशक बीत गए। उस दौर के नेताओं का हाल यह था कि छपे अक्षरों का महत्व समझते हुए भी कम ही ऐसे होते थे, जो पत्रकार से मेल – जोल रखना पसंद करे या खुद ही किसी खबर को छपवाने का आग्रह करें। ज्यादातर यही दिखाने का प्रयास करते कि वे मीडिया की परवाह नहीं करते। जिसे गरज हो वह उनकी खबर छापे। वे अपनी ओर से इसमें दिलचस्पी नहीं ले सकते। मजे की बात यह कि तबकी कस्बाई संस्कृति में भी कई ललित मोदी टाइप लोग थे, जिनके कारनामे मुझे हैरान कर देते। ऐसे लोग पत्रकारों को देख बस मुस्कुरा देते। मानो मुस्कुराहट के जरिए अपनी बेफिक्री जाहिर कर रहे हों। लेकिन आश्चर्य का विषय यह कि तब के ऐसे ललित मोदी टाइप लोगों की बड़े – बड़े अधिकारियों से लेकर स्थानीय राजनेताओं के साथ  गाढ़ी छनती थी। भले ही उनका मेल जोल गुपचुप तरीके से होता हो। लेकिन राजनेता बनाम ललित मोदी जैसे लोगों का यह गठजोड़ बहुत पहले से गांव – कस्बे के स्तर तक फैला हुआ था। जो कई प्रकार से राजनेताओं की मदद लेते और उनकी करते थे। ऐसे लोगों की आसान पहुंच राजनेताओं से लेकर अधिकारियों तक थी। नकचढ़े माने जाने वाले राजनेता से लेकर अधिकारी तक को अंदरखाने में जब – तब इनके साथ कानाफूसी करते देखता तो हैरान रह जाता। इस पर घाघ किस्म के कुछ जीव ही अपनी सफाई में कहते कि इसके जरिए मैं फलां शख्स की असलियत पता कर रहा था या वह मुझसे इस काम के  लिए कह रहा था, लेकिन मैने उसे साफ इन्कार कर दिया। लेकिन समय के साथ यह सच्चाई मुझे समझ में आ गई कि अपने देश में ललित मोदी टाइप जैसे लोग सर्वत्र हैं। कोई समझता रहे  खुद को तीसमार खां  लेकिन इनकी पहुंच के आगे हर कोई बौना है। समाज के ताकतवर वर्ग के साथ इनका संबंध केवल शादी – ब्याह या बच्चों के जन्म दिन समारोह तक ही नहीं है। बेहद जरूरी कार्यों के लिए समय न मिलने का बहाना बनाने वाले ताकतवर लोग चोरी – छिपे ही सही लेकिन इनके यहां के श्राद्ध आदि में शामिल होकर भी गर्व महसूस करते हैं। समय के साथ परिपक्वता बढ़ने पर ज्ञानोदय हुआ कि दरअसल यह विचित्र गठजोड़ या कहें कि संबंध गिव एंड टेक यानी  लो और दो का है।

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