पुरुषों के क्षेत्राधिकार समझे जाने वाले पेशों को अपनाकर महिलाओं ने बुलंदी हासिल की है, इसके लिए उन्हें समाज की बंदिशों और महिला होने के कारण कमजोर समझी जाने वाली मानसिकता से भी लड़ना पड़ा। मुंबई की महिला जासूस रजनी पंडित हो या देश की पहली महिला फॉयर इंजीनियर हर्षिनी कान्हेकर हो या फिर वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर राधिका रामासामी, इन्होंने कठिन राह चुनी और सफल होकर दिखा दिया की महिलाएं किसी से कम नहीं हैं।
महिलाएं कमजोर नहीं होती हैं, बल्कि उन्हें कमजोर बनाया जाता है। सामाजिक ताने-बाने में दकियानूसी विचारों को लपेटकर महिलाओं के पैरों में बेड़ियां डालने वाला पुरुष प्रधान समाज अब महिलाओं के हौसले और हिम्मत को नहीं रोक सकता है। अब महिलाएं तमाम मुसीबतों का सामना करते हुए और अपने डर से बाहर निकलकर पुरुषों के एकाधिकार समझे जाने वाले क्ष्ोत्रों में सफलता का परचम लहरा रही हैं। हालांकि वैज्ञानिक शोधों के अनुसार पुरुषों की तुलना में महिलाओं में शारीरिक शक्ति कम होती है, तो दूसरी ओर स्वयं महिलाएं भी अपनी शारीरिक शक्तियों के लिए ‘फीमेल हार्मोंस’ को ही दोषी ठहराती रही हैं, लेकिन अब महिलाएं खुद को पुरुषों से किसी भी स्तर पर कमजोर नहीं समझतीं। महिलाएं सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ रही हैं, उनकी कमजोर और नाजुक समझी जाने वाली छवि अब टूट रही है। जासूसी, फायर ब्रिगेड, वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी जैसे पुरुषों के लिए आरक्षित समझे जाने वाले इन प्रोफेशन में भी महिलाएं नाम कमा रही हैं। पुरुषों के वर्चस्व वाले इन क्ष्ोत्रों में इन महिलाओं के लिए अपना कॅरिअर बनाना इतना आसान नहीं था। इन महिलाओं को सबसे पहले अपने परिवार और फिर समाज की रुढ़ियों और मान्यताओं से लड़ना पड़ा, जो महिलाओं को केवल घर की देखभाल या फिर बहुत हुआ तो टीचर जैसे प्रोफशन में जाने भर की आजादी देता था। आज महिलाओं ने खेल में, मिलिट्री सर्विस में, पर्वतारोहण, अंतरिक्ष के क्षेत्र में अपने दमखम से समाज की सोच बदल कर रख दी है।
राधिका रामासामी के शौक ने बनाया वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर
राधिका रामासामी को देश की पहली प्रोफेशनल वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर होने का गौरव प्राप्त है। फोटोग्राफी का यह शौक 11वीं कक्षा में पढने के दौरान हुआ था। बाद में अंकल ने कैमरा गिफ्ट दिया तो शौक जुनून में बदल गया। जंगल की दुनिया के आकर्षण ने उन्हें पिछले 25 वर्षों बांध रखा है। उनके इस पेशे में आने पर उनके परिवार ने विरोध नहीं किया। उनको बस महिला होने के नाते इस पेशे में आने वाली चुनौतियों का ही सामना करना था और साथ ही खुद को इस क्षेत्र में सफल बनाना था।
वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर बनने की राधिका की कहानी तब शुरू होती है, जब वह 2००4 में पहली बार परिवार के साथ घूमने भरतपुर नेशनल पार्क गईं, वहीं से उन्हें कुदरत से प्यार हुआ। वे लगभग रोज दो घंटे दिल्ली में ओखला बर्ड सेंक्चुएरी में बिताने लगीं। पक्षियों को देखने, उन्हें पहचानने और उनके व्यवहार को समझने में उनका समय बीतने लगा। हाथ में कैमरा आते ही उन्होंने अपने फोटोग्राफी के शौक को पेशे में बदल दिया। वह अब तक सभी नेशनल पार्कों सहित केन्या, तंजानिया आदि की यात्राएं कर चुकी हैं। उनका काम जोखिम भरा भी है क्योंकि उन्हें आई-लेवल फोटोग्राफी करनी होती है, जानवरों के क्षेत्र में घुसने के लिए सावधानी बरतनी पड़ती है, उनके आने-जाने का समय नोट करना होता है। वह इत्र भी इस्तेमाल नहीं कर सकतीं क्योंकि इसे वे सूंघ सकते हैं। राधिका बताती हैं, ‘साल 2००5 में जिम कार्बेट पार्क में अचानक मेरे रास्ते पर हाथी आ गया। किसी तरह जान बचा कर वहां से निकल सकी। जानवरों से एक सुरक्षित दूरी रखनी होती है। पार्क या फॉरेस्ट विभाग में पहले ही कॉन्ट्रैक्ट साइन करना होता है कि कुछ हो जाए तो इसके लिए हम ही जिम्मेदार होंगे।’ आज राधिका ने वाइल्ड फोटोग्राफर के तौर पर खुद को सबित किया है। उन्होंने कभी भी अपने कॅरिअर के साथ समझौता नहीं किया। उन्हें जब परिवार वालों ने बताया कि महिला होने के कारण इस पेशे में कठिनाई का सामना करना होगा, तो भी उन्होंने अपना कदम पीछे नहीं हटाया और आज वे कैमरा उठाकर जंगलों में अपने शौक के कॅरिअर में बुलंदिया छू रही हैं।
जासूसी के क्षेत्र में बड़ा नाम है रजनी पंडित
महिलाओं को हर चीज को देख परख करने की आदत होती है। वे हर पहलू की जांच करती हैं। मुंबई की रजनी पंडित जासूसी के क्षेत्र में बहुत बड़ा नाम है। महिला होने के बावजूद उन्होंने जासूसी के पेशे को चुना लेकिन इस पेशे में आने के लिए उन्हें बहुत विरोध का सामना करना पड़ा। वह 25 साल से प्राइवेट जासूस के रूप में काम कर रही हैं। इस पेशे में बहुत-सी परेशानियां आने के बावजूद वे कभी पीछे नहीं हटीं। रजनी पंडित के पिता सीआईडी इंस्पेक्टर थे और वे नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी जासूसी के पेशे में आए। पिता की पाबंदियों के बावजूद रजनी पंडित ने बचपन के अपने शौक को ही अपना पेशा बनाया। इसके पीछे दिलचस्प कहानी है। वे बताती हैं, ‘मुझे बचपन से सच खोजने का शौक था। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान उनकी क्लासमेट गलत संगत में पड़ गई। उनकी क्लासमेट घर पर बताती कि कॉलेज में पढ़ाई के लिए रुकती है। रजनी ने पड़ताल की तो पता चला जिन लड़कों के साथ घूमती थी, वे उसे नशा कराते थे। रजनी ने फिर यह बात उसके पैरेंट्स को भी बता दी और इसके बाद उनके मन में जासूसी करने का आत्मविश्वास जागा और फिर उन्होंने घरेलू समस्याएं, कंपनी जासूसी, गुमशुदा लोगों की तलाश से लेकर मर्डर तक के केस सुलझाने शुरू कर दिए और इसमें उनको सफलता भी मिलने लगी।
एक महिला जासूस के तौर पर रजनी ने कभी हार नहीं मानी, आज भी वह सक्रिय हैं। उनके इस प्रोफेशन में 15 लोग जुड़े हुए हैं। काम अधिक होने पर वे लोगों को जासूसी करने की ट्रेनिंग देती हैं। अपने काम से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। मुश्किल हालात में भी उन्हें कभी डर नहीं लगा। छानबीन के दौरान उन्हें कभी घरेलू हेल्पर, प्रेग्नेंट स्त्री, ब्लाइंड तक बनना पड़ा, यह उनके काम का हिस्सा है।
आग से खेलती हर्षिनी कान्हेकर
हमारे समाज में अकसर लड़कियों को खेलने-कूदने और लड़कों जैसा काम करने के लिए टोका जाता रहा है। लड़कियों को कमजोर समझने वाली इस धारणा को तोड़ा है, हर्षिनी कान्हेकर ने। भारी-भरकम उपकरण उठाना, कठिन ट्रेनिंग और घंटों प्रेक्टिस से गुजर कर हर्षिनी कन्हेकर ने पुरुषों के वर्चस्व वाले कॅरिअर को चुना और आज वे भारत की पहली फायर इंजीनियर महिला बन गई हैं। उन्हें शुरू से ही फायर वर्कस की वर्दी लुभाती थी। पहले तो उनके पैरेंट्स को यह फील्ड पसंद नहीं आई लेकिन उनके जज्बे ने पैरेंट्स का मन बदल दिया। आज वह ओएनजीसी में सीनियर फायर ऑफिसर के पद पर नियुक्त हैं। हर्षिनी का यहां तक पहुंचने का सफर बहुत कठिनाई से गुजरा। जब उन्होंने नेशनल फायर सर्विस कॉलेज नागपुर से फायर इंजीनियरिंग में दाखिला लिया तो इस कोर्स को करने वाली देश की पहली लड़की बनीं। यह उपलब्धि थी, पर एक लड़की के तौर पर इस कोर्स को सफलतापूर्वक करना एक चुनौती भरा काम था। वहां पर प्रोफेसर और छात्र भी सोचते थे कि वे लड़की होने के कारण यह कोर्स कंप्लीट कर पाएगी या नहीं। हर्षिनी ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने कोर्स के दौरान उपकरण उठाने, गाड़ियां चलाने, आग बुझाने और घंटों आपात स्थिति में घिरे रहने का प्रशिक्षण पूरा किया। एक लड़की होने के कारण उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। वे बताती हैं कि वर्ष 2००2 में कॉलेज के 2०वें बैच में उन्होंने एडमिशन लिया था। रेजिडेंशियल कॉलेज में गल्र्स हॉस्टल नहीं था। इस कारण से उन्हें रोज घर से कॉलेज आने-जाने की सहूलियत मिल गई। तीन साल के बाद उनकी पहली ट्रेनिंग कोलकाता में हुई। इसके बाद दिल्ली के फायर स्टेशन में रहीं। उन्हें 24 घंटे अलर्ट रहना होता था। दीपावली की रात को दिल्ली में छह जगहों पर आग लगी, वे उन छह जगहों पर अपनी टीम के साथ आग बुझाने गईं। उनका मानना है कि कोई काम लड़का या लड़की के लिए बंटा हुआ नहीं है। जिसके अंदर लगन और मेहनत है, वो अपनी मंजिल हासिल कर लेता है, चाहे वे लड़की ही क्यों न हो।