अनजाने-अनचाहे कलयुगी संस्कार

-डॉ. अंजु वाजपेयी- world
बच्चे छोटे होने की वजह से आठ-दस कार्टून सीरियलों को देखने का मौका मुझे मिला। कई सीरियल विदेशों में बनी सीरियलों का हिन्दीकरण हैं। लगभग प्रत्येक सीरियल में एक गेजेट होता है जो कोई भी काम कर सकता है। पात्र उसमें पांच मिनट में धरती से आकाश पहुंच जाता है। कई बार तो पिछले जन्म तक में पहुंच जाता है। ये सीरियल है डोरेमोन। हमारी भारतीय सीरियल छोटा भीम में भीम एक लड्डू खाकर कोई भी काम कर लेता है। कितने भी बड़े भयानक पात्र उसके सामने हों उन सबका सफाया कर देता है। मोटू-पतलू, क्रिश, माइटी राजू इत्यादि पात्र भी ऐसे हैं जो कोई भी काम कर सकते हैं।
ये सब बातें वास्तविकता से कितनी दूर है, इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। पहले जब शक्तिमान सीरियल आता थी न जाने कितने बच्चों ने उसकी नकल करने की कोशिश की थी और उन्हें जान से हाथ धोना पड़ा था। आज के समय में इन सीरियलों के सामने बच्चों को बिठाकर माता-पिता सोचते हैं कि उनके बच्चे सुरक्षित हैं एक जगह बैठे तो हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि चंचल बच्चे टीवी के सामने सीरियल को देखते-देखते उसको करने का प्रयास करते हैं जो उनके जीवन के लिये खतरनाक साबित हो सकता है, कहीं-कहीं हुआ भी है, अभी कुछ समय पहले इंदौर में, भोपाल में और देश के कई अन्य शहरों में बच्चों ने खेल-खेल में फांसी लगा ली थी और उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। अब सोचिये हम बच्चों को क्या दे रहे हैं। बच्चे कल्पना में जीना सीख रहे हैं।
बच्चे गैजेट माता-पिता को समझते हैं उनकी मांगे रोज-रोज होती हैं ऐसी मांगों में नाजायज मांगे भी होती हैं, उन्हें माता-पिता पूरी करने की कोषिष करते भी हैं, मुख्यतः वो माता-पिता जो दोनों नौकरी करते हैं। मांगे पूरी करने के लिये माता-पिता अपनी ईमानदारी से कई बार भटक भी जाते हैं और नहीं पूरी कर पाते तो बच्चे भटक जाते हैं। इस पूरे वाकये में बच्चे की गलती कहाँ हैं। बताइये? पुराने समय में चूंकि टीवी नहीं हुआ करता था इसलिये बाल कल्याण, चंपक, अमरचित्र कथाएं इत्यादि पढ़ने मिलती थीं जिससे बच्चे चरित्रवान लोगों के बारे में जानते थे। आज यदि बच्चे बाल अपराधी बन रहे हैं, तो अभी भी क्या दोष आप बच्चों को देंगे। नहीं अब दोष या तो माता-पिता का है या समाज का।
अब दूसरी तरह के सीरियलों की बात करें। ओगी एवं काकरोच में काकरोचों के द्वारा संबंधों की बात, नोमिता एवं शिजुका के रिश्तों की बात। ये संबंध हम 4-5 साल के बच्चों को दिखा रहे हैं, सिखा रहे हैं। ये तो सीरियल की बात हो गई लेकिन उन घरों में जिनमें एक ही कमरे में कई-कई लोग रहते हैं, वहां बच्चे क्या देखते-सीखते हैं, अंदाजा लगा सकते हैं? ये कहानी सबने सुनी होगी कि एक बच्चा जो चोरी करता था, जब पकड़ा गया तो उसने सबसे पहले अपनी मां का कान काटा, उसने कहा कि जब मैंने पहली चोरी की तो सबसे पहले मेरी मां ने सुनी थी लेकिन रोका नहीं, क्यों ? ऐसे हालात सभी बच्चों के साथ होते हैं, चाहे वो गरीब परिवार के हों या संपन्न परिवार के हों। इसलिये कहा जाता है मां सबसे पहली शिक्षिका होती है।
निर्भया के प्रकरण को ही लीजिए, हालांकि वो दिल्ली में हुआ था इसलिये चर्चित हुआ, वरना ऐसे प्रकरण हमारे देश में आम हो गये हैं, लेकिन ये समाज का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह भी है कि लड़कियों का घर छोड़कर आना, ससुराल पक्ष को फंसाना भी आम हो गया है। यदि हम पहले प्रकरण की बात करें तो हम जानेंगे कि निर्भया के प्रकरण में जो बाल अपराधी है, उसे छोटी से उम्र में घर से दूर कर दिया गया जो उम्र उसके खेलने की है, उसमें उसने ढाबे पर बर्तन मांजे। उसने वहां शराब परोसी, फ्री मिली तो पी भी ली। गालियां खाई, मार खाई और लोगों कोे मौज मस्ती भी करते देखा। इतनी सी उम्र में इतना सब देखने के बाद आप उससे एक सच्चा अच्छा ईमानदार व्यक्ति बनने की अपेक्षा कहां से कर सकते हैं। क्या ऐसे प्रकरणों में मां-बाप के लिये सजा का प्रावधान नहीं होना चाहिए। समाज के लिये कोई दण्ड नहीं होना चाहिये। क्या आपने सुना कि ढाबे वाले को सजा हुई जबकि ऐसी उम्र में बच्चों से काम कराना अपराध है। पर हम तो पुराने कानूनों को ढो रहे हैं। जो बाते चालान में नहीं कही गई, न्यायालय एक्षन नहीं ले सकता। न्यायाधीष के पास बहुत से अधिकार हैं। पर उसे इसके बारे में पता नहीं होता या काम अधिक होने के कारण वो ऐसा करना नहीं चाहते। हम नये कानून लाते जाते हैं पर पुराने कानूनों को बदलने की जहमत तक नहीं उठाते।
दूसरी प्रकरण की बात करें तो हम अपनी बच्चियों को यह ही नहीं बताते कि परिवार क्या होता है उसमें कैसे रहा जाता है? सशक्तिकरण का अर्थ यह नहीं होता है कि घर ही टूट जाये। जितने घर टूटते हैं उनमें से 50 प्रतिशत घर टूटने की वजह लोग लड़की की मां को बताते हैं। इसमें कुछ तो सच्चाई होगी। हमारे देश में महिलाओं के लिये तरह-तरह के कानून बने, लेकिन देखा गया है कि उसका उपयोग कम, दुरूपयोग ज्यादा हुआ है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि समाज के डर से हम अपनी बच्चियों को मरने के लिये छोड़ दें। यह भी देखा गया है कि माता-पिता बच्ची से कहते हैं घर वापस मत आ जाना लोग क्या कहेंगे। जब मर जाती हैं तो ससुराल पक्ष पर केस करते हैं।
यह किसी की परिवरिश पर सवाल नहीं है, लेकिन आज की परिस्थितियों, वातावरण एवं सामाजिक स्थितियों को देखते हुये बच्चों को संस्कार देने चाहिये। एकल परिवार में बच्चों पर टीवी का अधिक प्रभाव होता है। इन सबसे दूर रखकर प्राथमिक शिक्षक-मां ही अपने बच्चों को उचित संस्कार दे सकती है। यदि हमने बच्चों को संस्कार नहीं दिये तो आगामी समय में हमारे देश की स्थिति और अधिक भयानक हो सकती है।
पहले माता-पिता एवं गुरू, शिक्षा एवं ज्ञान के तीन स्तंभ होते थे जिसके आधार पर एक मनुष्य का निर्माण होता था। कालांतर में टेलीविजन इन तीनों से महत्वपूर्ण चौथा स्तंभ हो गया है। जिसके साथ किसी भी परिवार के बच्चे व वयस्क अपना अधिकांश समय बिताते हैं। जाने या अनजाने अब टेलीविजन सूचना प्रसारण, पत्रकारिता अथवा मनोरंजन आदि का साधन ही नहीं रह गया है अपितु परिवारों में यह ज्ञान, शिक्षा व संस्कार तथा सूचना का स्त्रोत हो गया है। मानो या न मानो पर इसका स्थान गुरू के समकक्ष ही हो गया है। अतः हम टेलीविजन को एक सूचना प्रसारण अथवा मनोरंजन का ही माध्यम मानकर अब संस्कारित होने बरी नहीं कर सकते। जिस प्रकार एक गुरू का संस्कारवान होना, षिक्षित होना व सभ्य होना जरूरी है, जिससे समाज में अच्छे मनुष्य का निर्माण हो। उसी प्रकार गुरू के स्थान पर बैठा टेलीविजन भी इन तीनों गुणों से सम्पन्न होना अति आवष्यक है। हम शिक्षा व ज्ञान के इस माध्यम को अनावष्यक छूट देकर अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मार रहे हैं। अब समय आ गया है कि टेलीविजन के बढ़ते एवं महत्वपूर्ण कद को देखते हुए इन तीन स्तंभों के आधार पर प्रसारित सूचना एवं कार्यक्रमों की रूपरेखा होना चाहिए जिसके आधार पर हम एक सभ्य, शिक्षित एवं सुसंस्कृत पीढ़ी या परिवार का निर्माण हो।

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