तीसरे मोर्चे की संभावनाओं के सत्य

0
171

प्रमोद भार्गव

कांग्रेस के कोयले की दलाली में काले हाथ होने और राजग ;एनडीए, में फूट की आशंकाओं की संभावनाओं की बीच एक जमाने में पहलवान रहे मुलायम सिंह यादव राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर ताकतवर नेता के रुप में उभरने की कोशिश में हैं। उनकी मंशा है, काश उनके नेतृत्व में मजबूत तीसरे मोर्चे का गठन हो जाए तो वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने का अपना स्वप्न साकार कर लें। बीते 15 साल से उनके अंतर में यह सपना पल रहा है। भाजपा द्वारा जारी संसदीय गतिरोध ने उन्हें मौके की नजाकत का लाभ उठाने के लिए उकसाया और वे छह मित्र दलों के साथ संसद के बाहर धरने पर बैठकर राजनीतिक हलकों में यह संदेश दे गए कि उन्होंने तीसरे मोर्चे को वजूद में लाने की पहल कर दी है। लेकिन मुलायम के साथ विरोधाभासी संकट यह है कि उनकी अपनी विष्वसनीयता पेंडुलम की तरह डोलती रहती है। यही कारण है कि वे संसद के बाहर सरकार के खिलाफ मोर्चां खोलते हैं, लेकिन भीतर पहुंचते ही शरणागत हो जाते है। उनकी यह पलटीमार नेता की छवि ही तीसरे मोर्चे की संभावनाओं के सत्य पर पानी फेरने का काम कर रही है ?

मुलायम सिंह ने तीसरे मोर्चे के गठन और खुद को प्रधानमंत्री के रुप में देखने की पुष्टि तो तभी कर दी थी, जब उन्हें उत्तर प्रदेश में सत्ता संभालने का स्पष्ट जनादेश मिला था और उन्होंने चतुरार्इ बरतते हुए मुख्यमंत्री बनने की बजाय लायक बेटे अखिलेश को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी थी। जवाबदेही से मुक्त होकर दिल्ली का रुख उन्होंने इसीलिए किया, जिससे राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर तीसरे मोर्चे को वजूद में लाकर प्रधानमंत्री बनने की कवायद की जाए। दिल्ली आने के वक्त से ही मुलायम ऐसे अवसर की तलाश में हैं, जिनके चलते मध्यावधि चुनाव के हालात निर्मित हों। क्योंकि 2014 में समय पर चुनाव हुए तो उत्तर प्रदेश में सत्ता में होने के कारण उनकी साख को बटटा लग सकता है। इसलिए वे अभी वहां जो 80 में से 40-50 लोक सभा सीटें जीत लेने की मंशा पाले हुए हैं, समय पर चुनाव हुए तो यह ग्राफ खिसक सकता है। सपा ने इसी लिहाज से न केवल उत्तरप्रदेश में सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है, बलिक सपा के सभी सांसद और विधायकों को अपने-अपने क्षेत्रों में कारगर ढंग से जुट जाने के निर्देश दे दिए हैं। इसी क्रम में 9 सितंबर से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बेरोजगारी भत्ता बांटने जा रहे हैं। इसके तत्काल बाद कन्या विधा धन और लैपटाप की बारी है। बेरोजगारी भत्ता और लैपटाप ही ऐसे दो कारण थे, जिनके आकर्षण से प्रदेश के नौजवानों ने सपा की ओर कदम बढ़ाया था। लिहाजा समय से पहले चुनाव होने की सिथति में सपा अपनी तैयारी में कोर्इ कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती। उनकी संभावनाओं के द्वार खोलने का काम लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लाग पर यह टिप्पणी करके भी कर दिया था, कि अगली सरकार गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा दलों की बनेगी।

मुलायम सिंह के लिए प्रधानमंत्री बनने का सपना कोर्इ नया नहीं है। 1997 में जब तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा का हटना तय हो गया था तब नए प्रधानमंत्री के दावेदार की तलाश तेज हुर्इ और उभरकार आए मुलायम सिंह। वामपंथियों ने उनकी जमकर पैरवी की। किंतु लालू और शरद यादव जैसे समाजवादी यदुवंषियों ने ही उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया और प्रधानमंत्री बने इंद्रकुमार गुजराल, जिनका प्रत्यक्ष राजनीति से कोर्इ गहरा वास्ता नहीं था। यहां से जो मनमुटाव और बिखराव की परंपरा शुरु हुर्इ उस परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक विष्लेशकों का मानना है कि तीसरा मोर्चा तो कभी भी वजूद में आ सकता है, लेकिन वह तीसरी ताकत के रुप में न तो उभर सकता है और न ही लंबे समय तक अपने पैरों पर खड़ा रह सकता है। क्योंकि उसके अंदरुनी हलकों में विरोधाभास और टांग खिंचार्इ चलती ही रहती है।

मुलायम सिंह के नेतृत्व में तीसरे मोर्चे का वजूद में आना और भी मुषिकल है, क्योंकि उनकी पलटीमार छवि ने क्षेत्रीय दलों के बीच भरोसा तोड़ दिया है। इसलिए उनके साथ हाल के संसद परिसर में दिए धरने में माकपा, भाकपा, फारवर्ड ब्लाक और तेलेगुदेशम बैठ भले ही गए हों, विष्वसनीयता का संकट बरकरार है। वामपंथी नेताओं की यह आशंका बनी हुर्इ है कि कहीं मुलायम अपने लाभ के लालच में ऐन वक्त पर तृणमूल की ममता से हाथ न मिला लें। क्योंकि जल्द मध्यावधि चुनाव होते हैं तो सपा व बसपा के बाद शायद तृणमूल एक ऐसी बड़ी पार्टी होगी जिसके खाते में ज्यादा सांसद होंगे। लेकिन ममता मुलायम की वचनमंगता से राष्ट्रपति चुनाव में वाकिफ हो चुकी हैं, जब उनका यह गठजोड़ चंद घंटों में ही टूट गया था और मुलायम प्रणव मुखर्जी के समर्थन में खड़े हो गए थे। ममता के साथ एक मुषिकल यह भी है कि वे वाममोर्चे के साथ मरने-मारने पर भी नहीं जा सकती। लंबे संघर्श के बाद पषिचम बंगाल में जिन वामपंथियों को उन्होंने धूल चटार्इ है, उनकी सहभागिता से बनने वाले मोर्चे में वे कैसे रह सकती हैं ? दूसरी तरफ वामपंथियों के लिए मुलायम भरोसे के लायक इसलिए नहीं हैं क्योंकि उन्होंने परमाणु समझौते के समय वापंथियों से पीठ फेरकर संप्रग-एक को जीवनदान दिया था। इस घात से पुहंचे आघात को अभी भी वामपंथी सहलाने में लगे हैं।

तेलेगु देशम पार्टी के भी अपने दुराग्रह हैं। सपा को यदि उत्तरप्रदेश में दखल के लायक सीटें मिल जाती हैं, तब भी उसे तीसरे मोर्चे के सहयोगी दलों के बावजूद केंद्र की सत्ता में आने के लिए कांग्रेस के टेके की जरुरत पड़ेगी। जबकि आंध्र प्रदेश में तेलेगु देशम को उम्मीद है कि उसका सीधा मुकाबला कांग्रेस से ही होगा। हालांकि टीवी समाचार चैनलों द्वारा हाल ही में कराये चुनावी आकलन यह जता रहे हैं कि वहां विद्रोही नेता जगमोहन रेडडी की पार्टी वार्इएसआर कांग्रेस बढ़त में है जबकि उसका जन्म तो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के गर्भ से ही तिरस्कार के चलते हुआ है। ऐसे मजबूत इच्छाशकित के जगमोहन क्यों मुलायम की छत्री के नीचे जाने को राजी होंगे।

इस सब के बावजूद राजनीति में संभावनाओं के द्वार कभी बंद नहीं होते और एकजुटता कांग्रेस और भाजपा से इतर नर्इ शकित को सामने खड़ा कर सकती है। नवीन पटनायक के बीजू जनता दल और जयललिता की एआर्इएडीएमके भी यदि मुलायम के नेतृत्व में क्षेत्रीय दलों को ध्रुवीकृत होते देखेंगे, तो वे भी अपने कदम इस दिशा में बढ़ा सकते हैं। भाजपा यदि प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रुप में नरेन्द्र मोदी को आगे लाती है तो उसका कुनबा भी बिखराव की राह पकड़ लेगा। जनता दल ;एकीद्ध जो राजग का सबसे बड़ा सहयोगी दल है, उसका साथ छोड़ देगा नीतीश कुमार और शरद यादव इस आष्य का संकेत भी दे चुके हैं। ऐसे में यदि जद ;एकीद्ध मुलायम नेतृत्व वाले तीसरे मोर्चे में शामिल होने के लिए आगे बढ़ेगा, तो प्रधानमंत्री के प्रत्याशी का मुददा गहरा जाएगा। जद ;एकीद्ध चाहेगा कि नीतीश या शरद में से कोर्इ एक प्रधामंत्री बने ? हालांकि एक सत्य यह भी है कि जब-जब तीसरा मोर्चा वर्चस्व में आया है, उसमें एक संगठक के रुप में शरद यादव की भूमिका अंहम रही है। उनके नेतृत्व की कौशल दक्षता के बूते ही वीपी सिंह की सरकार बनाने में दो विपरीत ध्रुव भाजपा और वामपंथियों का समर्थन शरद ने ही हासिल किया था। राजग के भी वे प्रमुख घटक दल होने के साथ, इस गठजोड़ को बनाए रखने में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन फिलहाल तीसरे मोर्चे की कवायद में लगे मुलायम की मंशा है कि उन्हें नेता मानने के साथ प्रधानमंत्री पद का अधिकृत दावेदार भी मान लिया जाए। यही सिथति तीसरे मोर्चे की संभावना के सत्य को पलीता लगाने वाली है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here