यह छुआछूत उनकी ही देन है / अवनिजेश अवस्‍थी

 अवनिजेश अवस्थी

ओम थानवी के ‘अनन्तर’ पर पता नहीं चंचल चौहान इतना क्यों भड़क गए। थानवी जी की टिप्पणी के केंद्रीय मंतव्य- ‘‘क्या हम ऐसा समाज बनाना चाहते हैं जिसमें उन्हीं के बीच संवाद हो जो हमारे मत के हों? विरोधी लोगों के बीच जाना और अपनी बात कहना क्यों आपत्तिजनक होना चाहिए? क्या अलग संगत में हमें अपनी विचारधारा के बदल जाने का भय है? क्या स्वस्थ संवाद में दोनों पक्षों का लाभ नहीं होता? यह बोध किस आधार पर कि हमारा विचार श्रेष्ठ है, दूसरे का इतना पतित कि लगभग अछूत है’’- में चंचल जी ने वामपंथी लेखक संगठनों को बदनाम करने का छिपा एजेंडा भी खोज निकाला! यही नहीं, उत्तेजना में वे ‘गोद में बैठने’ के मुहावरे का व्यंग्यार्थ भी नहीं समझ पाए और सबूत के तौर पर फोटो ही नहीं, ‘ग्रुप फोटो’ तक की मांग कर बैठे।

यह ठीक है कि मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र ‘सपाटबयानी’ का राग अलापता है, लेकिन इतनी ‘सपाट समझी’ भी नहीं होनी चाहिए। ठीक है कि रूपवाद के विरोध में अभिधा के सौंदर्य का महत्त्व रूपायित भी किया गया, हालांकि मैथिलीशरण गुप्त आदि कवियों में अभिधा को (काव्य) दोष के रूप में दिखा कर उन्हें सिर्फ तुक का आग्रही तुक्कड़ कवि तक कहने की कोशिश की गई, लेकिन अनुभूति की प्रामाणिकता का प्रश्न ऐसा भी क्या खड़ा करना कि आप शोधमयी पत्रकारिता से चश्मदीद गवाह होने की मांग करने लगें। यों अगर फिर भी चाहें तो सूचना के अधिकार के तहत आप खुद यह जानकारी हासिल कर सकते हैं कि ‘सहमत’ समेत किन-किन वामपंथी अनुष्ठानों या आयोजनों को अर्जुन सिंह के कार्यकाल में कितनी मदद और कितना अनुदान मिला, किन-किन घोषित, प्रतिबद्ध और कार्डधारियों को सरकारी संस्थानों में पद हासिल हुए, कौन-कौन सरकारी खर्चे पर विदेश यात्रा पर गए और कौन-कौन किस-किस समिति में नामित किए गए- वामपंथी संगठनों, जिसमें साहित्यिक संगठन भी शामिल हैं- का इस दृष्टि से इतिहास लिखा जाना काफी रोचक हो सकता है।

लेकिन थानवी जी का मूल मंतव्य यह था ही नहीं, तो इसका कच्चा-चिट्ठा खोलना सिर्फ मुद्दे से भटकना होगा। इसलिए बात इस पर करनी चाहिए कि आखिरकार न केवल अज्ञेय जन्मशती को न मनाए जाने का फतवा-सा जारी किया गया, बल्कि ऐसे समारोहों में किसी भी तरह की शिरकत न करने और समारोह स्थलों से ‘विजिबल’ दूरी बनाए रखने का निर्देश भी दिया गया। अज्ञेय तो यों कभी मार्क्सवादी नहीं रहे (प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन में एकाध बार हिस्सा लेने के अलावा), लेकिन वामपंथी रचनाकारों- रामविलास शर्मा की मृत्यु के बाद इतिहास की शव साधना की जाती है, त्रिलोचन शास्त्री को हरिद्वार हांक दिया जाता है और पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस के लेखक निर्मल वर्मा को हिंदूवादी कह कर हिकारत भरी दृष्टि से देखा जाता है। ऐसे लेखकों की लंबी फेहरिस्त पेश की जा सकती है, जिसे उदय प्रकाश तक अद्यतन किया जा सकता है।

जनवादी लेखक संघ और अन्य समानधर्मा वामपंथी संगठनों की अभिव्यक्ति की आजादी और लेखकीय स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता का चंचल जी दावा तो करते हैं- ‘जनवादी लेखक संघ जम्हूरियत-पसंद संगठन होने की वजह से आलोचना पसंद करता है, आलोचनात्मक विवेक को बढ़ावा देता है’, लेकिन जब वे आवेश में यह कहते हैं कि ‘लेकिन आलोचना का आधार जरूर होना चाहिए। आजादी तो हम निराधार आलोचना को भी देते हैं’ तो एक साथ दिए गए इन दो वक्तव्यों में ‘विरोधाभास’ अलंकार की छटा के अलावा इनका क्या अर्थ लिया जाए, समझ से परे है। चंचल जी कहने के लिए बेशक कह लें और लिखने के लिए बेशक लिख भी दें कि हम आलोचना को स्थान देते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि तमाम वामपंथी संगठन किसी बाहरी व्यक्ति की आलोचना तो क्या अपने सदस्य तक की आलोचना सहन नहीं कर पाते। रामविलास शर्मा के सचिव रहते और सचिव पद से हटने के समूचे विवाद का विवरण यहां नहीं दिया जा सकता, लेकिन उसे थोड़ा-सा भी याद कर लें तो बात अपने आप स्पष्ट हो जाएगी।

सचाई तो यह है कि यह विरोध भी पूरी तरह से सुविधाजनक तरीके से ताकतवर और निर्बल के बीच ‘सेलेक्टेड’ होता है। तरुण विजय और मृदुला सिन्हा की पुस्तकों का लोकार्पण नामवर सिंह करें तो कहीं कोई शोर नहीं, गोविंदाचार्य के साथ नामवर सिंह मंच पर हों तो कोई बात नहीं, लेकिन उदय प्रकाश आदित्यनाथ से पुरस्कार लें तो यह उनका ‘गर्हित कर्म’ है। शिवाजी पर लिखी पुस्तक पर प्रतिबंध लगे तो वक्तव्यों, विरोध सभाओं और हस्ताक्षर अभियानों की बाढ़-सी आ जाती है। लेकिन तसलीमा को कोलकाता से रातोंरात ‘निर्वासित’ कर दिया जाए तो एकदम चुप्पी। दिल्ली विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम से रामानुजन का पाठ समयावधि पूरी हो जाने के कारण बदल दिया जाए तो अकादमिक आजादी खतरे में पड़ जाती है। लेकिन केरल में एक कॉलेज प्रोफेसर के हाथ सरेआम इसलिए काट दिए जाएं कि उसने एक सवाल में ‘मोहम्मद’ शब्द का प्रयोग कर लिया था, तो मशाल जुलूस तो क्या मोमबत्तियां तक कहीं नहीं जलतीं।

चंचल जी, ‘जनवादी लेखक संघ’ का नाम भर आ जाने से अपने संघ की रक्षा करना पर्याप्त नहीं होगा- व्यापक स्तर पर जो साहित्यिक छुआछूत फैली हुई है, उस पर भी विचार कीजिए। (जनसत्ता से साभार)

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