ये है दिल्ली मेरी जान

0
174

-लिमटी खरे

मानो या ना मानो ‘मीडिया बन चुकी है धन कुबेर की लौंडी‘

स्वच्छ, निष्छल, निर्भीक, जनसेवा के लिए की जाने वाली पत्रकारिता के दिन लद चुके हैं। अब जमाना पेड न्यूज का आ चुका है। मीडिया की लगाम वाकई में धनपतियों के हाथों में जा चुकी है। पेड न्यूज पर देशभर में हो रही बहस बेमानी नहीं है। नए चुनाव आयुक्त एस.वाई.कुरैशी का कहना है कि आयोग की पेड न्यूज पर पैनी नजर होगी। सच्चाई तो यह है कि नेता, पार्टी या व्यक्ति विशेष की इमेज बिल्डिंग का काम करने लगा है मीडिया वह भी निहित स्वार्थों के चलते। किसी से उपकृत होकर मीडिया द्वारा उसके उजले पक्ष को बहुत ही करीने से प्रस्तुत किया जाता है, पर उसके काले और भयावह पक्ष के मामले में मौन साध लिया जाता है, जो निंदनीय है। यह उतना ही सच है जितना कि दिन और रात कि राजनेता, नौकरशाह और धनपतियों के पास साधन, संसाधन और धन का अभाव नहीं है, यही कारण है कि मीडिया मुगल कहलाने के शौकीन राजनेताओं आदि द्वारा इनके सामने टुकडे डालकर इन्हें अपने पीछे पूंछ हिलाने पर मजबूर कर दिया जाता है। पैसा लेकर न केवल चुनावों बल्कि हर असवर, हर समय खबरों का प्रसारण प्रकाशन हो रहा है, जिस पर विचार करना ही होगा। यह विचार विमर्श मीडिया से इतर लोग कर रहे हैं, यह दुख का विषय है, वस्तुतः मीडिया को ही इस पर विचार करना होगा, कि धन कुबेरों के दहलीज की लौंडी बन चुकी मीडिया को उसके वास्तविक स्वरूप में कैसे लाया जाए।

अभी कहां जनाब अभी तो महज पांच साल ही हुए हैं

सोहराबुद्दीन मामले में एक बार फिर जिन्न ने अंगडाई ली है, और बोतल के बाहर आने को बेताब दिखाई दे रहा है। गुजरात के पूर्व गृह मंत्री अमित शाह की बलि ले चुके इस जिन्न की क्षुदा अभी शांत नहीं हुई है। इसकी लार नरेंद्र मोदी को देखकर टपक रही है। यह चाह रहा है कि नरेंद्र मोदी की कुर्सी चट कर जाए यह। मामला एक बार फिर गर्माया तो सुसुप्तावस्था में बैठी कांग्रेस को लगा बारिश आ गई और कांग्रेस की टर्राहट बढ गई। सियासी बियावान में एक बार फिर आरोप प्रत्यारोपों का कभी न थमने वाला दौर आरंभ हो गया। भाजपा कमोबेश यही कह रही है कि सीबीआई को कांग्रेस ने अपने घर के दरवाजे पर बांध रखा है, कोई भी कांग्रेस को घेरने की कोशिश करता है तो सीबीआई गुर्राने लगती है। वहीं कांग्रेस का मानना यही है कि भाजपा अपनी करनी से भयाक्रांत है। कुल मिलाकर कांग्रेस और भाजपा को इस मामले में छांेका लगाना तभी सूझा जब यह मामला उछला। भारत गणराज्य की जनता सोच रही है कि जल्द ही इस मामले से निजात मिल जाएगी। पर कहां जनाब, इसे चलते अभी तो महज पांच साल ही हुए हैं, अभी दस पंद्रह साल और जिन्दा रहेगा यह जिन्न।

‘बुक वार‘ में सोमदा ने दी आमद

सियासत में बहुत सारी बातें एसी होती हैं जो नेता बयान के जरिए नहीं कह पाते हैं, उन बातों को कहने के लिए किताबों का सहारा लेना नेताओं का प्रिय शगल है। जब नेता सक्रिय राजनीति से किनारा करते हैं या करने का मानस बना ही लेते हैं तब आरंभ होता है बुक वार। अनेक मर्तबा अपने प्रतिद्वंदियों को भ्रमित करने भी बुक वार छेड दिया जाता हैै। कांग्रेस के बीसवीं सदी के चाणक्य समझे जाने वाले कुंवर अर्जुन सिंह की किताबों के बाजार में आने के पहले कांग्रेस के आला नेताओं की सांसे अटक ही जाती हैं। सिद्धांतों पर चलने वाले वामदल के नेता सोमनाथ चटर्जी भी इस रंग में रंग गए दिखते हैं। इस बार सभी को बडा आश्चर्य इस बात का हुआ कि बुक वार में वाम नेता और पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ही कूद गए। अपनी किताब ‘‘कीपिंग द फेथ: मेमरीज ऑफ द पार्लियामेंटेरियन‘ में सोमदा ने अपनी ही पार्टी को कटघरे में खडा कर दिया है। अपनी इस किताब में चटर्जी ने पार्टी महासचिव प्रकाश करात को जमकर कोसा है। अब देखना यह है कि पार्टी इस मामले में क्या स्टेड लेती है।

सुनंदा का गरूर बनेंगे शशि थरूर

भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह की दूसरी पारी में अगर विवाद शब्द आता है तो बरबस ही पूर्व विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर का नाम ही जेहन में आ जाता है। सोशल नेटवर्किंग वेव साईट ‘ट्विटर‘ पर ट्विट ट्विट करने वाले शशि थरूर का बस चलता तो वे सरकारी काम काज नोटशीट पर करने के स्थान पर ट्विटर पर ही संपादित करते। कभी आलीशान पांच सितारा होटल में रहकर गरीब भारत गणराज्य की सरकार पर लाखों रूपयों का बोझ चढाया तो कभी हवाई जहाज की इकानामी क्लास को मवेशी का बाडा ही कह डाला। अंततः आईपीएल विवाद की बलि चढे। इस मामले में उनकी महिला मित्र सुनंदा पुष्कर का नाम भी जमकर उछला, तब जाकर देशवासियों को पता चला कि जिस महिला को थरूर महोदय बतौर मंत्री रहते हुए साथ पार्टीज में घुमाते रहे हैं वह और कोई नहीं यही सुनंदा थीं। अब खबर है कि 29 सितंबर को भारतीय ज्योतिष के अनुसार जब देवता सो रहे होंगे तब दुबई में शशि थरूर और सुनंदा पुष्कर परिणय सूत्र में आबद्ध होने जा रहे हैं।

राहुल नहीं साबित हो सके ‘महाजन‘

भारतीय जनता पार्टी के धुरंधर नेता स्व.प्रमोद महाजन के सुपुत्र और इलेक्ट्रानिक न्यूज चेनल्स के माध्यम से इक्कीसवीं सदी में स्वयंवर रचाकर मीडिया के माध्यम से चर्चाओं में आए राहुल की दूसरी शादी भी चंद महीने में ही टूटने की कगार पर आ गई है। कहा जाता है कि महाजनी सबसे अच्छी होती है, जिसमें सब कुछ पारदर्शी होता है, किन्तु राहुल खुद को महाजन साबित नहीं कर सके हैं। कहा जाता है कि शक्की राहुल महाजन ने अपनी पत्नि डिम्पी का मोबाईल पर एक मैसेज नहीं पढ पाने के कारण उसकी तबियत से पिटाई कर दी। डिम्पी ने अपने मित्र और परिजनों को बुलाकर वहां से रवानगी डाल दी। लोगों का मानना है कि महज एसएमएस न पढ पाना पिटाई का कारण नहीं हो सकता है, यह हो भी सकता है, पर तब जब कोई होश में न हो। वैसे भी राहुल महाजन को नशीली दवाओं के लेने के लिए अनेक बार समचार चेनल्स ने कटघरे में खडा किया है। यह बात तो राहुल ही बता पाएंगे कि वे नशे में थे या और कोई बात है इस पूरे प्रहसन के पीछे।

सब कुछ जायज है प्यार और जंग में

कहा जाता है कि प्रेम और लडाई में सब कुछ भी नाजायज नहीं होता है। लडाई किसी भी तरह की हो सकती है, चाहे वर्चस्व की हो या सत्ता हासिल करने की। कुछ सालों पहले संघ के प्रचारक संजय जोशी को बदनाम करने की गरज से 26 नवंबर 2005 को भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बांटी गई संजय जोशी के साथ बनी हुई कथित सीडी की पृष्ठ भूमि में कोई और था। यह खुलासा गुजरात के एक पुलिस निरीक्षक बी.के.चौबे ने किया है। चौबे का कहना है कि उस सीडी में संजय जोशी के स्थान पर सोहराबुद्दीन था, जिसे कथित तौर पर महिला के साथ दुष्कृत्य करते दिखाया गया था। कहते हैं कि चौबे ने सीबीआई को बताया है कि सोहराबुद्दीन के स्थान पर जोशी का चेहरा लगाकर बनाई गई सीडी को पार्टी के अधिवेशन में एसटीएफ के तत्कालीन प्रमुख बंजारा के कहने पर वे ले गए थे। संघ के सूत्र कहते हैं कि संघ नेतृत्व मोदी से इस बात से खफा है कि संघ के एक अच्छे कार्यकर्ता को गुजरात के नेताओं ने बदनाम किया। चूंकि राजग के पीएम इन वेटिंग आडवाणी उस समय जिन्ना प्रकरण में उलझ गए थे, अतः भाजपा सुप्रीमो की दौड में सबसे शक्तिशाली तौर पर संजय जोशी उभरे थे, जिन्हें नेस्तनाबूत करने गुजरात भाजपा के आला नेताओं ने यह चाल चली थी।

18 साल बाद आई राम की बदहाली की याद

1992 में अयोध्या में बाबरी ढांचे के विध्वंस से अतिउत्साहित भारतीय जनता पार्टी और उससे जुडे संगठनों ने भगवान राम को परिदृश्य से गायब कर दिया था, इसके उपरांत जब तब राम के नाम पर बयान देकर अपनी उपस्थिति दर्ज अवश्य कराते रहे भाजपा और अन्य संगठनों के नेता। अब 18 साल बाद एक बार फिर विश्व हिन्दु परिषद के मानस पटल पर राम की यादें ताजा होने लगी हैं। विहिप के अध्यक्ष अशोक सिंघल को 1992 के उपरांत अठ्ठारह साल बाद याद आया है कि अयोध्या में भगवान राम तिरपाल के घेरे में रह रहे हैं, जिससे देश में रह रहे करोडों सनातन पंथियों (हिन्दुओं) की भावनाएं आहत हो रही हैं। बकौल सिंघल, विहिप अब 16 अगस्त से 15 नवंबर तक देश के दो लाख गांवों में जाकर जन जागरूकता अभियान चलाएगा। सिंघल को यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के गांव वाले उनसे कहीं उन गांव वालों द्वारा दिए चंदे और एक एक ईंट का हिसाब पूछ बैठे तो सिंघल साहब क्या जवाब देने की स्थिति में रह पाएंगे। जाहिर है सिंघल साहेब के पास इसका कोई जवाब नहीं होगा। यहां उल्लेखनीय होगा कि भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने इसी बीच छः साल देश पर राज भी किया है, तब भगवान राम को तिरपाल से क्यों नहीं निकाला गया?

कम नहीं हो रही पचौरी की दुश्वारियां

सवा सौ साल पुरानी और भारत गणराज्य पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चुनावों में भारत के हृदय प्रदेश में वर्तमान अध्यक्ष सुरेश पचौरी को पसीना आने लगा है। आलम यह है कि मध्य प्रदेश के कांग्रेसी क्षत्रप राजा दिग्विजय सिंह, कमल नाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कुंवर अर्जुन सिंह, सुभाष यादव, कांति लाल भूरिया, श्री निवास तिवारी आदि ने चुनावों के तौर तरीकों पर अपनी असहमति जता दी है। नेताओं के बीच मतभेद और मनभेद इस कदर बढ गए हैं कि एआईसीसी के सबसे ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह ने तो कांग्रेस द्वारा गठित मध्य प्रदेश चुनाव प्राधिकरण के अध्यक्ष नरेंद्र बुढ़ानिया से चर्चा तक के लिए इंकार कर दिया है। कांग्रेस में गुटबाजी को अहम स्थान दिया गया है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि जब भी मध्य प्रदेश में कोई भी अध्यक्ष पद पर काबिज होता है, वह दूसरे नेताओं की खीची लाईन को मिटाकर अपनी लाईन को ही बढाने का जतन करता है। इस बार के चुनावों की कवायद में भी यही हुआ। अध्यक्ष सुरेश पचौरी ने बीआरओ और डीआरओ के चयन में अन्य क्षत्रपों की जमकर उपेक्षा की जिससे आला नेताओं में रोष और असंतोष व्याप्त हो गया है।

कौआ कोसे नहीं मरता है ढोर

बुंदेलखण्ड की मशहूर कहावत है ‘‘कौआ कोसे ढोर नहीं मरत‘‘ इसका अर्थ है भूखा काक जब कुछ खाने को नहीं होता है तब ढोर यानी जानवर को कोसने लगता है कि वह मर जाए, पर ईश्वर की लीला अपरंपार है, उसके कोसने बुरा चाहने पर भी जानवर नहीं मरता है। इसी तर्ज पर पूर्व केंद्रीय खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर द्वारा कामन वेल्थ गेम्स को कोसा जा रहा है। मेजबानी प्राप्त होने और खेल के महज तीन माह पहले मणि शंकर ने अपनी जुबान खोलकर कहा है कि यह पैसे की बरबादी है, और कोई शैतान ही इसका समर्थन कर सकता है। अरे मणि भाई आप उस वक्त कहां थे, जब पहली बार सरकार ने इसके लिए राशि आवंटित की थी, इतना ही नहीं बारंबार आवंटन बढता गया और आप भारत गणराज्य के खेल मंत्री रहे हैं, आप फिर भी खामोश रहे। अब जब दरवाजे पर बारात आ गई है तब आप कह रहे हैं कि द्वारचार के पहले हम जरा ‘‘पॉटी‘‘ करके आते हैं। अगर आपको यह पैसे की बरबादी लग रही थी तो आपको पहले ही अपनी चोंच खोलना चाहिए था। लगता है आपका भी कोई हित नहीं सध सका है, जो आप कर्कश स्वर में नया राग अलापने में लगे हैं।

पेंच में यह कैसा पेंच

देश में स्वर्णिम चतुर्भुज सडक परियोजना के उत्तर दक्षिण गलियारे में पेंच और कान्हा नेशनल पार्क के बीच वन्य जीवों के अघोषित काल्पनिक गलियारे की गुत्थी सुलझने के बजाए उलझती ही जा रही है। दरअसल देश के हृदय प्रदेश के सिवनी और भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ के संसदीय क्षेत्र छिंदवाडा जिले में है पेंच नेशनल पार्क यहां से वन्य जीवों के लिए एक अघोषित काल्पनिक गलियारा गुजर रहा है जो मण्डला जिले के कान्हा नेशनल पार्क तक जाता है। क्रेद्रीय वन मंत्री जयराम रमेश कह चुके हैं कि यह मार्ग चूंकि इस गलियारे का रास्ता काट रहा है इसलिए इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है। मुख्य वन संरक्षक सिवनी ने भी इसमें सहमति जता दी है। आश्चर्य तो इस बात पर हुआ जब यह बात प्रकाश में आई कि एमपी के ही बालाघाट से संसकारधानी जबलपुर तक के नेरोगेज को ब्राड गेज में तब्दील करने के मसले में वन विभाग द्वारा अनुमति प्रदान कर दी गई। वस्तुतः सिवनी, बालाघाट और मण्डला जिले से होकर गुजरने वाली इस रेल लाईन का एक बडा हिस्सा भी इसी काल्पनिक वन्य जीव कारीडोर को काट रही है, इस मामले में केंद्र, प्रदेश सरकार के साथ ही साथ जनता के हक की लडाई लडने वाली संस्थाओं की चुप्पी अनेक संदेह को जन्म देती है।

सवा छः करोड़ रूपए फूंक दिए जनसेवकों ने

आप सुबह सोकर उठने से लेकर रात को सोने तक प्रत्यक्ष या परोक्ष करों से लदे फदे रहते हैं, यह बात भारत गणराज्य का आम आदमी शायद नहीं जानता। यह कर किस काम आता है। यह कर आता है देश के विकास के लिए। वस्तुतः इस कर का उपयोग अब जनसेवकों के एशोआराम और मनमानी के लिए अधिक किया जाने लगा है। हाल में संपन्न हुए संसद सत्र के पहले सप्ताह को देखकर यही कहा जा सकता है। एक मसले पर पूरे सप्ताह लोकसभा की कार्यवाही स्थगित रही। आपको विस्तार से बता दें कि अगर लोकसभा की कार्यवाही प्रतिदिन सुबह दस से शाम पांच बजे तक चले तो एक दिन में सात घंटे और सोमवार से शुक्रवार तक छः दिन में कुल बयालीस घंटे। इस तरह पूरे सप्ताह में कुल 2520 मिनिट और आपको पता है कि लोकसभा की कार्यवाही चलने में मिनिट पच्चीस हजार का खर्च आता है। इस लिहाज से पूरे सप्ताह में देश के इन जनसेवकों ने आपके खून पसीने की कमाई के ज्यादा नहीं बस छः करोड तीस लाख रूपयों में ही आग लगाई है। है न आश्चर्य की बात, गरीब गुरबों के इस भारत गणराज्य में जनसेवकों की ही इतनी जुर्रत हो सकती है कि वे इतनी विपुल धनराशि को सरेराह यूं ही बरबाद करें।

आमदानी अठ्न्नी खर्चा रूपैया!

देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली की महानगर पालिका निगम द्वारा आमदानी अठ्न्नी खर्चा रूपैया की कहवत को चरितार्थ किया जा रहा है। बीते तकरीबन ढाई साल में चार दर्जन मामले सुलझाने के लिए एमसीडी द्वारा गठित प्रापर्टी टेक्स ट्रिब्यूनल के पास आए पर सुलटे महज चार ही। मजे की बात तो यह है कि एमसीडी ने इसके लिए जो अमला गठित किया है उसमें पदस्थ निगम कर्मचारियों और अधिकारियों के वेतन भत्तों पर इस दौरान व्यय किए गए हैं पांच करोड़ रूपए से अधिक। 2007 में एमसीडी ने संपत्ति कर के विवादित मामलों के लिए इसका गठन किया गया था। विभाग में न्यायिक सेवा से सेवानिव्त्त तीन अधिकारियों को अनुबंध पर नियुक्त किया गया था। ढाई साल में निष्पादन के लिए आए 48 मामालों में से पांच करोड़ रूपए से अधिक खर्च कर निपटाए महज चार मामले और वसूली हुई कुल जमा दस लाख रूपए ही। यह है मेरी दिल्ली की एमसीडी का हाल सखे।

पुच्छल तारा

कामन वेल्थ गेम्स सर पर हैं, इसकी तैयारियां युद्ध स्तर पर जारी हैं। लोग इसके पक्ष और विपक्ष में तरह तरह के तर्क देने में लगे हुए हैं। कहा जा रहा है कि इस आयोजन से भारत की वैश्विक छवि पर प्रभाव पडेगा। भारत की छवि विश्व स्तर पर अच्छी बने इसके लिए दिल्ली के चौक चौराहों सहित प्रमख स्थानों को भिखारियों से मुक्त कराने की मुहिम छिडी हुई है। दिल्ली के उपनगरीया इलाके द्वारका में सेक्टर 9 में रहने वाली सोम्या श्रीवास्तव एक ईमेल के माध्यम से इसे बेहतर तरीके से रेखांकित कर रहीं हैं। वे लिखती हैं कि एक खबर छपी है कि दिल्ली को भिखारियों से कब मिलेगा छुटकारा! इसका सीधा सादा सा जवाब है भई! ये तो मांगने वालों की अदा है, सैकडों लोग जनता से भीख में वोट मांगकर दिल्ली पहुंचते हैं, फिर भला वे अपनी बिरादरी वाले भीख मांगने वालों से छुटकारा क्यों भला दिलाएं?

Previous articleराजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन की जयंती पर विशेष
Next articleभारत की गुलामी
लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here