यह लोकतंत्र नहीं, यह तो ‘शोकतंत्र’ है

-राकेश कुमार आर्य-

democracy

लोकतंत्र को सभी शासन प्रणालियों में सर्वोत्तम शासन प्रणाली के रूप में दर्शित किया जाता है। वैसे लोकतंत्र का अर्थ लोक की लोक के द्वारा लोक के लिए अपनायी गयी शासन व्यवस्था है। जिसमें हमें अपने सर्वांगीण विकास के सभी अवसर उपलब्ध होते हैं। वेद ने ऐसी व्यवस्था को ‘स्वराज्यम्’ कहा है। अत: विश्व में वेद एकमात्र ऐसा धर्मग्रंथ है जो ‘स्वराज्यम्’ को लोकतंत्र के रूप में मान्यता देता है, और इस बात की परिकल्पना प्रस्तुत करता है कि ‘स्वराज्यम्’ के माध्यम से लोक के प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा लगना चाहिए कि वह अपने ‘स्वराज्य’ का एक अंग है, और अपने स्वराज्य के निर्माण में उसका जितना योगदान है, उतने ही व्यापक उसके अधिकार भी हैं, पर वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न रहकर अपने कर्तव्यों के प्रति सजग भी है, क्योंकि कर्तव्यों के प्रति सजगता की भावना से ही अधिकारों की गरिमा का जन्म होता है।

भारतवर्ष का लोकतंत्र यद्यपि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, पर यह ‘सबसे बड़ा लोकतंत्र’ केवल मतदाताओं की संख्या की अधिकता के कारण है। इसके द्वारा विश्व के अन्य लोकतांत्रिक देशों की अपेक्षा भारत में कोई अधिक आदर्श स्थापित किये गये हों, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। इसके बीते 68 वर्षों पर दृष्टिपात कीजिए कि इसने हमें कितना छला है, और हम भी हम ही हैं- विश्व में अनुपम और अद्वितीय, कि हम बार-बार छले जाते रहे हैं और हर बार छले जाने के लिए स्वयं को यूं प्रस्तुत कर देते हैं, जैसे हमें कोई विवेक ही नहीं है।

इस लोकतंत्र ने 1952 में हमें पहला चुनाव दिया। यह स्वतंत्र भारत के संविधान के संरक्षण में पहला चुनाव था, बड़ा उत्साह था तब देश में। क्या देहात और क्या शहर लोगों ने लोकतंत्र के ‘बूथों’ को उतना ही पवित्र माना जितना कांग्रेसियों ने गांधी की अहिंसा को यह कहकर पवित्र बनाया था कि ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल… दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल।’ हमारे लोगों को भी लगा कि इन ‘बूथों’ के माध्यम से जो डिब्बे खुलेंगे वह हमारे भाग्य के लिए परिवर्तन कारी सिद्घ होंगे। पर इन लोगों को जितना गांधी की अहिंसा ने भ्रमित किया था उससे अधिक इन बूथों ने भ्रमित किया।

वास्तव में ये बूथ नहीं ‘भूत’ थे, जिनसे बड़े बड़े ‘भूतों’ का निर्माण हुआ, और जब ये ‘भूत’ सत्ता की कुर्सी पर जाकर बैठे गये, तो जिन लोगों ने इनका हाथ पकडक़र इन्हें वहां तक चढ़ाया था, ये उन्हें ही डराने लग गये। भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में पूर्णत: शमशान की सी शांति व्याप्त हो गयी, लोगों को कभी-कभी अदृश्य भूतों की डरावनी आवाजें तो सुनने को मिलती थीं, पर कोई मनोरम संगीत इन्हें सुनने को नहीं मिला।

एक रात मैं सपना देख रहा था कि कैसे इन ‘बूथों’ के ‘भूतों’ ने पहले चुनाव से लेकर 2014  के आम चुनावों तक प्रत्येक बार हमें ‘गरीबी हटाने’ का झूठा आश्वासन दिया। पर गरीबी बढ़ती ही गयी, अब कभी-कभी जब शमशानों से कुछ ‘भूत’ गरीबी दूर करने की आवाज लगाते हैं तो गरीबी के कंकालों की ओर से जोरदार हंसी का ठहाका सुनने को मिलता है। मानो उनकी हंसी कहती है कि क्यों मूर्ख बना रहे हो? तुमसे तो क्या तुम्हारी सात पीढिय़ां भी यदि प्रयास करेंगी तो ये गरीबी दूर नहीं हो पाएगी।

कंकालों के दुस्साहस को देखकर श्मशानों के कुछ ‘कुत्तों’ ने भोंकना आरंभ कर दिया, मानो कह रहे थे कि तुम्हें बड़ों से बातें करने का शिष्टाचार नहीं आता है, इतने बड़े भूत’ बनने के पीछे इनकी साधना को तुम इस प्रकार अपमानित कर रहे हो?

तब एक कंकाल ने शांत और गंभीर मुद्रा में कुछ बोलना आरंभ किया। वह कहने लगा कि हमारा ही मांस नोंच-नोंच कर हमें उपदेश करने वाले श्वान बंधुओं, तनिक सुनो! इस कंकाल की आवाज की गंभीरता और नेत्रों में अनुभव की ज्योति को स्पष्टत: पढ़ा जा सकता था। उसने कहा-‘तुम्हारे भूतों ने अपनी लक्ष्मी की पूजा की हमारा नाम लेकर कि हे लक्ष्मी जी! आप हम पर प्रसन्न रहें, हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम आपके अमृतपुत्रों का अवश्य ध्यान रखेंगे।’ लक्ष्मीजी इनके झांसे में आ गयीं और इन्होंने उसके अमृत पुत्रों के स्थान पर (जिनकी आत्मा की नहीं रही जो भ्रष्टाचार में डूब मरे थे ऐसे) ‘मृत पुत्रों’ को इन्हें सौंप दिया। फलस्वरूप देश में कुछ लोगों की अट्टालिकाएं खड़ी होने लगीं तो अधिकतर लोगों की झोपड़ी का फूस भी उड़ गया। तुम्हारा समाजवाद मर गया और रातों रात पूंजीवादी लोकतंत्र ने राजनीति के शमशानों में हम जैसे करोड़ों कंकालों को ला लाकर डालना आरंभ कर दिया। तुम तो यह सोचते रहे कि गरीबी दूर की जा रही है, पर ये ‘पूंजीवादी लोकतंत्र’ में आस्था रखने वाले भूत गरीब को ही मिटा-मिटा कर यहां ला-लाकर डालते रहे और यहां रातों-रात कंकालों का ढेर लगता गया। मानवों की बस्तियों से लोगों को उठाया जाता और उनसे कहा जाता कि हम इनकी गरीबी दूर करने ले जा रहे हैं, पर यह तो हमें ही पता था कि गरीबी दूर न होकर गरीब को ही दूर किया जा रहा था। एक मतिभ्रम पाल दिया और जादू के माध्यम से लोगों को दृष्टिबद्घ कर दिया। जिससे लोकतंत्र शोकतंत्र में परिवर्तित होता गया। यह लोकतंत्र तो तुम्हारे लिए है, हमारे लिए तो यह शोकतंत्र है। जिसमें सर्वत्र शोक ही शोक है।

कंकाल की भौहें तनती जा रही थीं और कुत्ते शांत होकर नीची देकर सुनते जा रहे थे। इनकी भाव भंगिमा को देखकर लग रहा था जैसे चुनाव निकट हों और कोई नेताजी अपने लोगों के मध्य खड़े होकर बड़ी सत्यनिष्ठा से मर्यादित होकर लोगों की शिकायतें सुन रहे हों, और अपने आपको अपराधी मानकर अपराध बोध से ग्रसित हो रहे हों।

कंकाल रूकने का नाम नहीं ले रहा था। कहने लगा- ‘तुम कहते थे समाजवाद में श्रम पूंजी पर शासन करेगा, पर तुमने कर दिखाया वही जिसे शेष विश्व के लुटेरे अब तक करते आये हैं कि पूंजी को श्रम पर शासन करने का अधिकार दे दिया है। एक गरीब पूंजी नहीं लगा सकता पर मस्तिष्क और बौद्घिक क्षमताएं उसके पास हैं, तो एक पूंजीपति सामने आता है और एक कंपनी का ढांचा खड़ा कर लेता है, जिसमें इन बौद्घिक क्षमताओं से संपन्न मस्तिष्कों का सौदा किया जाता है। उन्हें यह अनुभव कराया जाता है कि देखिए, हम आपके मालिक हैं आप हमारे नौकर रहेंगे, हम आपको इतना वेतन देंगे और आप शांत रहकर हमारा उपकार मानेंगे। गरीब प्रतिभावान ने कहा कि-हां हमें आपकी शर्त स्वीकार है। बौद्घिक क्षमताओं का मूल्य मापा गया 5 से से दस लाख का वार्षिक पैकेज। बौद्घिक क्षमताएं सबसे मूल्यवान होती हैं, उनका कोई मूल्य नहीं होता। प्राचीन भारत में ऐसी ही मान्यता थी, पर ‘नेहरू मार्का’ भारत में बौद्घिक क्षमताओं का मूल्य भी आंक लिया गया और साथ ही उसका स्थान भी निर्धारित कर दिया गया कि बुद्घिबल से जीविकोपार्जन करने वाले व्यक्ति का स्थान धनबल में संपन्न व्यक्ति के पांवों तले होगा। यह तुम्हारे लोकतंत्र की अनुपम शोध है। इसी अनुपम शोध के कारण यह लोकतंत्र शोकतंत्र बन गया है। ‘आधुनिक भारत के निर्माता नेहरू’ ने जिस भारत का निर्माण किया है उसमें मेरे जैसे करोड़ों कंकाल हैं, जिनके मांस को तुमने नोंच-नोंच कर खा लिया है। देश की दिशा और दशा उल्टी हो गयी है। ‘भूत नगरी’ में रात के अंधेरे में कुछ उल्लू ठोस निर्णय लेते हैं जिन्हें चमगादड़ रातों रात जनता की दीवारों पर चस्पा कर देते हैं, जिनमें कुछ गरीबों को उठाकर लाने के लिए चिन्हित किया जाता है और दिन निकलते ही तुम (श्वान बंधु) उन्हें उठाकर यहां ले आते हो।’

पाठको! मैंने आपका यूं ही समय ले लिया। यह सारा संवाद कुछ भी नहीं था मात्र एक  सपना था। मेरा सपना टूट गया और मुझे भी ज्ञात हो गया कि सपने तो सपने ही होते हैं। पर मैं जो सपने में देख रहा था उसमें एक बात ने मुझे अवश्य प्रसन्न किया कि कुत्तों को कंकालों के उपदेशों के सामने  मौन धारण किये मैंने पहली बार देखा था। सच सबके हृदय को छूता है। पर भूतों की नगरी की ओर जब मैंने देखा तो वहां तो उल्लू व चमगादड़ अपने अपने कामों को बड़ी तल्लीनता से पूर्ण कर रहे थे-अर्थात लोकतंत्र को शोकतंत्र में परिवर्तित कर महान भारत के निर्माण का पुरूषार्थ।

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