युवा पीढ़ी के प्रति —
परिवर्तन
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फूल बन सुरभित करो , उपवन ये सारा,
तुम सदा आगे बढ़ो, बनकर परस्पर तुम सहारा।
चकित सा रह जाए जग ये,देख दृढ़-निश्चय तुम्हारा,
सफलता तव चरण चूमे, बढ़े नित गौरव हमारा ।।
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ज़िंदगी हम जी चुके हैं, उम्र भी अब ढल गयी है ,
हो गये अनुभव पुराने, बुद्धि भी तो खो गयी है ।
हम किसी का मार्गदर्शन , कर नहीं सकते यहाँ,
है ज़माना तीव्र गति से, बढ़ गया जाने कहाँ ?
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पीढ़ियों के बीच में हैं, दूरियाँ कितनी बनीं ,
मानसिकता भिन्न है और विवशताएँ भी घनी।
नये युग की मान्यताओं में , सभी बँध से गये हैं,
हम लिये संस्कृति पुरानी, मूक-दृष्टा रह गये हैं।।
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उभरती सी नयी पीढ़ी , बहुत आगे जाएगी ,
ढल रही पीढ़ी पुरानी, देखती रह जाएगी ।
जर्जरित सी डाल है वह, टूटकर गिर जाएगी,
शाम है ये ज़िंदगी की , रात में सो जाएगी।।
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पीढ़ियों का द्वन्द्व तो ये , सदा से चलता रहा है ,
बिखरते से वृद्ध मन को , समय ये छलता रहा है।
सृष्टि का ये क्रम सुनिश्चित,आदि से चलता रहा है,
और हर युग में यही जग, इसी में ढलता रहा है ।।
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— शकुन्तला बहादुर