सोलहवीं लोकसभा के लिए नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को जनादेश मिल गया है। अब तक यही कहा जाता रहा था कि अब एकदलीय सरकार का जमाना गया। देश में अब गठबंधन की सरकारें ही बनेंगी। लेकिन इस बार के चुनाव नतीजों ने इस मिथक को तोड़ दिया है। वर्ष 1984 के बाद यह पहली बार है, जब देश ने किसी एक पार्टी को निर्णायक जनादेश दिया है। इससे पता चलता है कि मौजूदा हालात से उद्विग्न देष की आकांक्षाएं और उम्मीदें इस पार्टी से किस हद तक बढ़ी हुई हैं। यूपीए सरकार के खिलाफ देश की जनता में जो गुस्सा था, वो जनमत में साफ दिख रहा है। जनता ने यह साफ संदेश दे दिया है कि उसका केवल सत्ता के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। लोगों का जो जज्बा था वो जुनून में बदला और जुनून जनमत में। देश ने नरेंद्र मोदी के रूप में एक निर्णायक नेतृत्व को जनादेश दिया है। इस ‘एम‘ फैक्टर के चलते ही भाजपा अपने बलबूते बहुमत पाने में कामयाब रही, देश में पिछले पच्चीस सालों से चले आ रहे गठबंधन राज का अंत हुआ और केंद्र में एक स्थिर सरकार की राह प्रशस्त हुई। अपने मतों के जरिए देश के मतदाताओं ने एक बार फिर यह दिखाया है कि उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता और अब वे पहचान और थैलीशाही की राजनीति को पसंद नहीं करने वाले हैं। मनमोहन कैबिनेट के कई दिग्गज चुनाव हार गए, जिनमें से कुछ तो तीसरे और पांचवें पायदान तक पिछड़ गए। यह न सिर्फ यूपीए सरकार के खिलाफ आक्रोश को दर्शाता है, बल्कि राजनीतिक जवाबदेही के प्रति जनता के आग्रह को भी प्रतिबिंबित करता है।
इस बार देश में हुए भारी मतदान ने भी मोदी की पार्टी भाजपा की बहुत मदद की है। इस बार दो-तिहाई से ज्यादा मतदाताओं ने मतदान किया, जो इससे पूर्व वर्ष 1984 में हुए सर्वाधिक 63.6 फीसद मतदान से भी अधिक है। ऐसा लगता है कि छोटे शहरों में रहने वाले युवाओं ने बड़ी संख्या में भाजपा के पक्ष में वोट दिया है। देश के 81.4 करोड़ मतदाताओं में से दस करोड़ से ज्यादा मतदाता ऐसे थे, जो पहली बार वोट डाल रहे थे। भाजपा के पक्ष में मतदाताओं ने अभूतपूर्व रूझान दिखाया है। 1984 के बाद पहली बार किसी पार्टी को लोकसभा में बहुमत मिला है। तब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति लहर थी। पिछली बार किसी गैर कांग्रेसी पार्टी ने वर्ष 1977 में केंद्र में बहुमत हासिल किया था। तब जनता पार्टी जो केंद्र में कुछ समय ही रही, ने इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपे गए 19 महीनों के आपातकाल के बाद सत्ता हासिल की थी।
कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देने वाले नरेंद्र मोदी ने राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में काफी हद तक इसे प्राप्त भी कर लिया। देश के उत्तर व पूर्व में जबरदस्त जीत हासिल करने के साथ भाजपा ने देश के सभी राज्यों में आमद दर्ज कराई, यहां तक कि पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, ओडिशा, केरल जैसे राज्यों में भी। भाजपा की आंधी में ना सिर्फ कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुआ, बल्कि उत्तरी मैदानों में क्षेत्रीय पार्टियों उत्तर प्रदेश में सपा व बसपा और बिहार में जदयू और राजद की भी चूलें हिल गईं। यह इस बात का संकेत है कि जातिवादी राजनीति के पराभव की शुरूआत हो चुकी है, पिछले पच्चीस वर्षों से उत्तर भारत में हावी है। भाजपा का बढ़ा हुआ वोट प्रतिशत जो वर्ष 2009 में 18 फीसद के मुकाबले तकरीबन दोगुना तक बढ़कर 35 फीसद हो गया, दर्शाता है कि इसे सभी जातियों का समर्थन मिला है। इन चुनावों में आकांक्षाओं से लबरेज देश ने यह संदेश दिया है कि वह अब बुनियादी जरूरतों के मसलों पर ठोस काम की उम्मीद करता है।
मोदी सरकार को कम से कम अगले साल तक राज्यसभा मेें अल्पमत का सामना करना पड़ेगा। इसकी वजह से उच्च सदन में विधेयकों को पारित करवाने के लिए सरकार को या तो क्षेत्रीय पार्टियों से सौदेबाजी करनी पड़ेगी या कार्यकारी निर्णय लेने पड़ेंगे। खासकर आर्थिक और वित्तीय मामलों में, जहां सरकार के विवेकाधीन अधिकार सीमित होते हैं। निष्चित तौर पर मोदी के नजदीक रहने वाले भाजपा नेताओं ने उन उपायों की सूची बनाई होगी, जिन्हें प्रशासनिक तौर पर लागू करना होगा। अपने मंत्रिमंडल में सहयोगी पार्टियों के सदस्यों को शामिल करने की मजबूरी से बच गए नरेंद्र मोदी राजीव गांधी के बाद काम करने की सबसे ज्यादा आजादी रखने वाले प्रधानमंत्री होंगे। अभी तक उन्होंने प्रभुत्ववादी तरीके से प्रचार किया है। उनके सरकार चलाने का तरीका भी संभवतः अध्यक्षीय प्रणाली जैसा ही होगा। कारगर फैसले लेने के मामले में तो यह तरीका सकारात्मक असर डालेगा, लेकिन ‘शक्ति के एकमात्र केंद्र‘ के रूप में उनका यह तरीका नुकसानदायक भी हो सकता है।
देष के भावी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों में इतनी उम्मीदें जगा दी हैं कि उन्हें पूरा करना उनके लिए बहुत मुश्किल चुनौती होगी। अर्थव्यवस्था को उबारना, खाद्य महंगाई दर में कमी लाना और युवाओं के लिए रोजगार का सृजन उनके समक्ष प्रमुख चुनौतियां होंगी। उन्हें देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय मुस्लिमों को भी आश्वस्त करना होगा कि उनकी पार्टी बहुसंख्यकवादी राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा पर नहीं चलेगी। मुस्लिमों का एक बड़ा हिस्सा मोदी को लेकर सशंकित रहा है। युवाओं के साथ-साथ ऊपर उठते मध्य वर्ग जो कुल आबादी का तकरीबन एक चौथाई है, की उम्मीदों पर खरा उतरना आगामी मोदी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।
इन चुनाव के नतीजों का इस लिहाज से भी महत्व है कि अब यह देश कैसे चलेगा। भाजपा को अपने दम पर बहुमत मिल गया है, लिहाजा वह राम मंदिर निर्माण कर सकती है, या अनुच्छेद 370 या समान नागरिक संहिता जैसे कुछ विवादित मसलों की समीक्षा कर सकती है। विदेश नीति के मोर्चे पर भी नई सरकार की कुछ घरेलू नीतियां पड़ोसी देशों और कुछ असंतोष पैदा कर सकती हैं, खासकर बांग्लादेश में। यह देखना बाकी है कि मोदी सरकार अपने इस तरह के कुछ वादों को बाहरी मोर्चे पर प्रतिकूल माहौल के बीच कैसे पूरा करती है।