गिरीश पंकज
छत्तीसगढ़ में पिछले दिनों नक्सलियों ने जो नरसंहार किया वो भयंकर कायराना हरकत थी। इसे देख कर लग रहा है कि अब तो सचमुच एक संकल्प यात्रा की आवश्यकता है, जो नक्सल समस्या के खात्मे के लिए निकले. यात्रा जो सर्वदलीय हो, जिसमे नागरिक भी शामिल हो. यह यात्रा विचार की भी हो और व्यवहार की भी। पूरे छत्तीसगढ़ को बस्तर कूच करना चाहिए और नक्सलियों से मिलकर सवाल करना चाहिए की वो कौन-सी विचारधारा है जो निरंतर खून पी कर भी शांत नहीं हो रही? लोगों की ह्त्या कर के जश्न मानना? ये कैसी क्रान्ति है? सच कहें तो बस्तर में जो कुछ घटित हो रहा है, वो क्रान्ति नहीं भ्रान्ति है. नक्सलियों का लाशों के इर्द-गिर्द नाच करना यह बताता है कि अभी भी हमारे बीच के अनेक लोग पत्थर युग के बाशिंदे बने हुए हैं। और आश्चर्य तब होता है जब हत्याओं के पक्ष में खड़े हो आर अनेक तथाकथित बुद्धिजीवी तर्क देते नजऱ आते हैं। लोगों की हत्याए करना और अपने आपराधिक कृत्य को अन्याय का प्रतिकार करना और आदिवासियों के पक्ष की लडाई निरूपित करना मजाक-सा लगता है अगर पिछले दिनों बस्तर में नक्सलियों ने जो हत्याएं कीं, उसके पीछे उनका तर्क ये है कि मारे गए नेता आदिवासी और सामान्यजन के बड़े शोषक थे। तो प्रश्न यह है की फिर वे आदिवासी भी क्या बहुत बड़े शोषक थे जिनका नक्सलियों ने कभी गला रेत कभी फांसी पर लटका दिया। चार साल के उस बच्चे का क्या कसूर था जिसका नक्सलियों ने गला काट दिया था? इस लिए शोषण के विरिद्ध लडाई की बाते बेकार हैं . अब यह साफ़ हो गया है की नक्सली सामाजिक क्रान्ति के नायक नहीं, खलनायक है, जिनसे अब उनकी ही भाषा में निबटने की ज़रुरत है।
नक्सल समस्या एक राष्ट्रीय समय बनती जा रही है। देश के सामने यक्ष प्रश्न यही है कि यह खूनी सिलसिला कहीं थमेगा या नहीं?देश के बुद्धिजीवियों को भी यह समझ में आ जाना चाहिए कि यह कोई विचारधारा नहीं, व्यभिचारधारा ही है। अब तो सीधे-सीधे एक अंतिम चेतावनी दी जानी चाहिए नक्सलियों को दी जानी चाहिए कि वे मुख्यधारा में शामिल हो और हिंसा का खूनी खेल बंद करें. वरना अब सीधी कार्रवाई हो। कायराना हरकत करने वालों के साथ कायराना तरीके से निबटा नहीं जा सकता . उनके साथ तो शेर जैसा आक्रामक तरीका ही अपनाना होगा. और मिलजुल कर रणनीति बना कर जूझना होगा. भले ही कुछ और शहादते हो जाएँ मगर अब आर-पार के लिए तैयार रहना चाहिये. हो सकता है कुछ और निर्दोषों का खून बहे, मगर बस्तर कूच करने की मानसिकता बनानी चाहिये. जब तक सांय करवाई नहीं होगी, नक्सल समस्या का खात्मा नहीं होगा. ये भेडिये इसी तरह छिप कर वार करते रहेंगे. और हम लोग कागज काले करते रहेंगे तथा आमजन आंसू बहाता रहेगा। यह सिलसिला तभी रुकेगा जब एक ठोस संकल्प लिया जाये. राजनीति से ऊपर उठ कर ‘ऐक्शन’ हो. जो लोग दिमागी तौर पर बर्बर हो चुके हों उनसे शांति-वार्ता संभव नहीं है. एक बार अंतिम कोशिश ज़रूर की जानी चाहिये. अगर वे वार्ता के लिए राजी होते हैं तो स्वागत है, वरना एक ‘डेड लाईन’ के बाद जुझारू अर्ध सैनिक बलों को बस्तर-कूच करना चाहिये. वरना हम लोग केवल लाशें गिनते रह जायेंगे।
पिछले चालीस साल का इतिहास देखें तो नक्सल समस्या बढ़ती गयी। आखिर सब्र की भी एक सीमा होती है। विचारधारा के साथ एक सकारात्मक लडाई कभी शुरू हुयी थी, जिसके हम लोग गवाह भी हैं, मगर आज यह लडाई विचारधारा विहीन माफिया लोगों के हाथों में कैद है. भोले-भले आदिवासियों को शोषणमुक्त करने आये लोग अब उनका ही शोषण कर रहे है. मासूमो का गला रेत रहे है. फांसी पर लटका रहे है.हिंसा का फितूरी खेल खेल रहे हैं। और हिंसा कर के खुश होने वाले लोग सामाजिक जागरण के सिपाही नहीं हो सकते। वे केवल परपीड़क हो सकते हैं। एक गैंग है. नक्सलियों के बारे में लोग अब यह भी जान गए है कि ये रंगदारी वसूलते है. बेवजह हत्याएं करते है। ये विकास विरोधी भी है.बस्तर को पिछड़ा ही रहने देना चाहते है। जहां विकास के काम होते हैं, उन्हें ये बंद करा देते हैं या भवनों को विस्फोट कर के उड़ा देते है इनकी हरकतों से कभी यह जाहिर नहीं होता कि ये लोक कल्याण के लिए काम कर रहे है। इसलिए अब समय आ गया है की जैसे को तैसा हो. वे जिस भाषा को समझाते है, उसी भाषा में उनको ज़वाब दिया जाये, मगर पूरी तैयारी के साथ. वरना हम केवल लाशें गिनाते रहेंगे, मातम मनाते रहेंगे, और नक्सली कबीलाई दौर को चरितार्थ करते हुए वाओं का लाशों के इर्द-गिर्द नाचते रहेंगे और ऐसा करके वे दुनिया को बताते रहेंगे कि देखो, भारत अभी भी कबीलाई मानसिकता से बाहर नहीं निकल सका है.
नक्सलियों की कारगुजारियों के कारण उनके दलम में शामिल अनेक युवाओं का मोह भंग भी होता रहा है? पिछले महीनों में छत्तीसगढ़ में आत्मसमर्पण की सकारात्मक घटनाएँ भी हुई हैं। अनेक नक्सलियों ने हथियारों के साथ थाने पहुँच कर आत्मसमर्पण किया और मीडिया के सामने इस बात का खुलासा किया कि वे जिन सपनों को ले कर जंगल गए थे, वे सपने तार-तार हो गए। विचारधारा के साथ बहने के रूमानी सपने उस समय टूट गए जब पता चला कि नक्सली भयादोहन करके केवल लाखों रुपयों की वसूली कर रहे हैं। बेवजह निर्दोषों का खून बहाना उनकी फितरत बन चुकी है। व्यभिचार की अनेक कहानियाँ भी सामने आती रही हैं। कुल मिला कर नक्सलवाद की आड़ भर है बाकी तो वहीं सब हो रहा है, जो कभी चंबल के दस्यु किया करते थे। दस्यु तो अमीरों को लूटकर उनका धन गरीबों में बाँट दिया करते थे। लेकिन नक्सलियों ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया। न उन्होंने शाला भवन बनाए, न सड़कें बनाईं। हाँ, भवनों और सड़कों को नष्ट करने का काम जरूर किया। ऐसा भी नहीं कि इन्होंने आदिवासियों की खुशहाली के लिए उनके घर बनाए या उनकी खेती-बाड़ी में कोई मदद की। आदिवासियों के नाम पर केवल पोस्टर-बैनर जरूर लगाएँ और जिस किसी भी आदिवासी पर शक हुआ कि इसने पुलिस को कोई सूचना दी है, तो उसकी निर्मम तरीके से हत्या जरूर कर दी। दशत फैलाने का काम करके अगर उन्होंने अआदिवासियों की सेवा की तो यह काम जरूर किया। नक्सलियों की खौफ के कारण आदिवासी उनका साथ देते रहे हैं। उनके इस साथ को नक्सली अगर यह मानते हैं कि आदिवासी उनके पक्ष में है तो यह भूल है। नक्सलियों के भय से वहाँ के सेठ-साहूकार, उद्योगपति, नेता, और अफसर आदि भी गुपचुप तरीके रंगदारी देते रहे हैं।
दरअसल यह साफ हो गया है कि नक्सली बस्तर में अपनी समानांतर सरकार चलाना चाहते हैं। सरकार भी ऐसी जो विकास कार्य नहीं करती, सिर्फ दहशत फैलाती है। खून-खराबा करती है। महेंद्र कर्मा, जिनकी निर्मम तरीके से हत्या की गई, उन्हें नक्सलियों ने शोषक बताया,जबकि कर्मा की छवि शुरू से ही समाज सुधारक की रही । वे कई बार विधायक रह चुके हैं और निर्दलीय चुनाव लड़ कर सांसद भी बने। बस्तर के आदिवासियों के बीच कर्मा किरतने लोकप्रिय रहे होंगे उसका अंदाजा केवल इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें लोगों ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में भी पसंद किया और दिल्ली भेजा। संसद में महेंद्र कर्मा ने केवल बस्तर वरन अन्य राष्ट्रीय मुद्दों पर दहाड़ते रहे। अगर वे शोषक होते तो निर्दलीय चुनाव जीत ही नहीं सकते थे। ऐसा नहीं था कि उनका नक्सलियों जैसा कोई आतंक फैला था कि लोगों ने दहशत में उन्हें वोट दे दिया। किसी भी व्यक्ति की कितनी लोकप्रियता है यह आँकने के लिए इतना पर्याप्त है कि वह लोकसभा का चुनाव निर्दलीय प्रत्याशके रूप में जीत जाए। इसलिए आदिवासी महेंद्र कर्मा की हत्या की वजह उनका आदिवासीविरोधी रवैया बताना बेबुनियाद है। उनकी हत्या सिर्फ इसलिए की गई कि वे आदिवासियों द्वारा चलाए गए सलवाजुडूम (शंाति अभियान)के पक्ष में थे। सन् 2005 में शुरू हुआ यह आंदोलन स्वत:स्फूर्त था, लेकिन नक्सलियों को लगा कि यह महेंद्र कर्मा द्वारा प्रायोजित है। नक्सली तभी से महेंद्र कर्मा के दुश्मन नंबर वन बन गए थे। इसके पहले भी नक्सली उन पर हमले करते रहे हैं। उनको मार नहीं पाए तो उनके परिजनों की हत्याएँ करते रहे। महेंद्र कर्मा कांग्रेसी होने के बावजूद सलवाजुडूम के पक्ष में रहे । इसलिए कांग्रेसी भी उनसे नाराज रहते थे। चूँकि भाजपा सलवाजुडूम को बाद में प्रोत्साहित करने लगी तो लोगों को लगा कि भाजपा और कर्मा में कोई साँठगाँठ है। जबकि ऐसी बात नहीं थी। इन पंक्तियों के लेखक से अनेक बार कर्मा की बातें हुईं और हर बार उन्होंने भाजपा की आलोचना की मगर सलवाजुडूम की तारीफ की। वे हमेशा अपने साथ रिवाल्वर ले कर चलते थे। उन्हें अपनी जान का खतरा तो था लेकिन इस कारण वे कभी पीछे नहीं हटे। इसीलिए लोक उन्हें बस्तर का शेर कहने लगे थे। नक्सली इसी ताक में रहते थे कि कब कर्मा की जान ली जाए। अआखिर कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के दौरान उन्हें मौका मिल गया और दरभा घाटी में कांग्रेसियों को घेर कर कत्लेआम मचा दिया। कर्मा से उनकी नफरत को अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके सीने में साठ से अधिक गोलियाँ दागी गईं। जब वे मर गए तब भी उन पर गोलियाँ चलाईं फिर उनकी लाश के आसपास झुंड बना कर नाचने का काम भी किया। नक्सलियों की हरकतों से मानवता शर्मसार हुई, लेकिन नक्सली नहीं हुए। यह पहली बार तो हुआ नहीं था, इसके पहले भी वे लोगों की हत्याएँ करते रहे हैं। कभी आम लोगों की तो कभी सुरक्षा बलों की। हत्या उनका काम है, उनका शौक है। उनका मिशन है। और वे हत्याएँ इसलिए करते हैं कि सामाजिक परिवर्तन लाएँगे।
पिछले चालीस साल से नक्सली निरंतर हत्याएँ कर रहे हैं, मगर परिवर्तन का प भी बस्तर या अन्य राज्यों में नजर नहीं आ रहा। उल्टे वे आतंक के पर्याय बन चुके हैं। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने इस हमले के पहले भी कहा ता कि वे नक्सलियों से वार्ता के लिए तैयार हैं। सर्वोदयी कार्यकर्ता बी वातावरण बनाने की कोशिश करते रहे हैं, मगर इस निर्मम हत्याकांड ने पानी फेर दिया। इस हादसे के बावजूद मुख्यमंत्री और केंद्र ने भी साफ-साफ कहा है कि बस्तर में सेना बुलाने की जरूरत नहीं। हम अपने स्तर पर इस समस्या से निबटेंगे। लेकिन क्या बिना सेना के नक्सलियों से मुकाबला किया जा सकता है? यह एक ऐसा सवाल है जो देश के सामने है। नक्सलियों ने निबटने के लिए अर्धसैनिक बलों की और अधिक तैनाती के साथ यह भी देखना जरूरी है कि ये बल हिम्मत के साथ जंगल के भीतर तक जाए और भेडिय़ों को उनकी मांद में चुनौती दी जाए। एक प्रबल इच्छाशक्ति चाहिए। ये इच्छा शक्ति सरकार में हो, हमारे जवानों में हो और आम लोगों में भी हो। नक्सल मामले में कांग्रेस को भी उदारता के साथ सोचना होगा और राजनीति से ऊपर उठ कर खड़ा होना होगा। वरना आज भाजपा की सरकार के लिए नक्सल सर दर्द हैं, तो कल कांग्रेस के लिए सरदर्द साबित होंगे ही। नक्सलियों के निशाने पर दोनों दल हैं। सच्चाई तो यह है कि उनके निशाने पर इस समय मानवता है, करुणा है, भाईचारा है। शांति है। यह समय इन सबको बचाने का समय है।
गिरीश पंकज