-डॉ. मधुसूदन-
जावे त्याच्या वंशा तेव्हां कळे।-(मराठी) -सन्त तुकाराम
जन्मोगे उस वंश में तो ही समझ पाओगे।–सन्त तुकाराम
सुना होगा आपने, कि, भगवान हर व्यक्ति के जीवन में प्रकट होना चाहता था, पर, जब नहीं पहुंच पाया, तो प्रत्येक के जीवन में उसने एक एक माँ को भेज दिया।
माँ की करुणा और प्रेम की कोई तुलना नहीं हो सकती।
अमरीका के एक विशाल नॅशनल पार्क के, जंगल में लगी, भयंकर आग-का शमन करने के उपरांत, वन-रक्षक अधिकारी, पहाड़ी पर, जाँच करते करते बढ़ रहे थे; इसी उद्देश्य से कि, हानि का कुछ सही अनुमान भी हो जाये।
आगे बढ़ते बढ़ते, एक अधिकारी, अकस्मात कुछ चौंक कर, रुक सा गया। उस ने देखा कि, राख में हलका सा लिपटा हुआ एक पंछी बिलकुल शांत जैसे ध्यान में हो, खडा था।
मलिन से दिखते, राख से लिपटे, और मूर्ति जैसे खडे, उस पंछी को, देखकर; सोचकर कि, शायद पंछी सोया सोया, पेड़ के नीचे विश्राम कर रहा है; कुछ भय मिश्रित कुतूहल से ही उसने पंछी को, डण्डे से हलका स्पर्श-सा किया, तो वह पंछी लुढक सा गया, और सुखद आश्चर्य! तीन नन्हें नन्हें बच्चे अपनी माँ के पंखों तले से डोलते डोलते बाहर निकल आये।
आग लगने पर, माँ अपने प्राण बचाने, शिशुओं को त्यजकर, उड़कर कहीं दूर जा सकती थी। पर लगता है, सोचकर कि, बच्चे उड़ नहीं सकते;जो अब भी उड़ नहीं सकते थे; माँ ने निर्णय किया होगा, और बच्चों को अपने पंख तले सुरक्षा देना ही उचित समझा होगा।
फिर आग की लपटें, फैलते फैलते आयी होंगी। और गरमी सहते सहते, माँ के छोटे से देह को, त्याग कर प्राण चले गये होंगे। अब उस छोटे निर्जीव कलेवर के पंख तले से,अबोध शिशु-पंछी जब डोलते डोलते बाहर आये तो जंगल रक्षक अधिकारी भी भावुक हुए बिना रह न सका।
यह मातृ-प्रेम जो सभी प्राणियों में प्रकट होता है, एक दृष्टि से अद्वैत का ही संचार प्रमाणित करता है। ऐसी घटनाओं से, हम-आप सभी करुणा से भर जाते हैं, क्यों कि, उस पंछी की चेतना से ही हम संवेदित होते हैं। सहानुभूति सह-अनुभूति है। जो अनुभूति उस पंछी माँ को हुयी होगी, उसी अनुभूति का कुछ अंश जब हमें भी होता है, तो उसे सहानुभूति ही कहा जायेगा। संवेदना का अर्थ भी ऐसा ही होता है। एक अलग अर्थ में यही है, ”अणोरणीयान महतो महीयान।” अणु से भी सूक्ष्म, प्रत्यक्ष ठोस वस्तु के रूप में, न दिखाई देने वाला यह मातृप्रेम समस्त ब्रह्माण्ड की अपेक्षा गुणवत्ता में बड़ा ही प्रमाणित होगा।
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मौसी-माँ
एक बहन विवाहोपरांत एक बच्ची को, जन्म देकर, रोगग्रस्त अवस्था में चल बसी।
तो जाते जाते, अपनी अनब्याही छोटी बहन से अपनी बच्ची को पालने का वचन लेकर ही प्राण छोड पायी। बच्ची भी अपनी मौसी को ही माँ समझती रही; माँ माँ ही पुकारती रहीं।
अब हुआ ऐसा कि, इस घटना के, कुछ छः मास उपरांत, उस छोटी बहन का भी विवाह हुआ, तो उस बच्ची की समस्या खड़ी हो गयी, कि, अब क्या किया जाये?
किसी और के साथ वह बच्ची घुल मिल भी तो गयी न थी। नयी-नयी ब्याही बहू ने अपने साथ किसी बालिका को ससुराल ले जाने का क्या अर्थ, समाज कर सकता है, यह कहने की भी कोई आवश्यकता नहीं। सौभाग्य से वर-पक्ष वाले भी संस्कारी ही थे। पूछने पर, वर ने हर्षपूर्वक अनुमति दे दी, और उस शिशु बालिका को लेकर छोटी बहन भी ससुराल गयी। साथ में बच्ची की बुआ भी गयीं। धीरे धीरे जब बच्ची बुआ के साथ घुल मिल गयी, तो फिर वह बुआ उस बिटीया को वापस ले आयी। अब बच्ची उस बुआ को भी माँ-माँ ही पुकारती थी। पर बात यूँ थी, कि उसको दोनों के प्रति मातृवत स्नेह हो गया था।
यह भी घटी हुयी सत्य घटना है। क्यों कि छोटी बहन जिसको सौंप कर, बड़ी बहन चल बसी थी; वह छोटी बहन को मैं बहुत भली भाँति जानता हूँ; वह मेरी अपनी माँ है।
बहुत वर्ष तक, मैं भी यही समझता था, कि मेरी एक बड़़ी बहन भी है। कालोपरांत पता चला कि, वह मेरी मौसेरी बहन है, पर इस से संबंधों में, कोई दुराव कभी नहीं आया। बहुत बड़़ा होने तक, मेरी इस मौसेरी बहन को मैं अपनी सगी बहन ही समझता था। उसने भी मुझे अगाध स्नेह ही दिया। बहुत वर्षों तक, किसी ने मुझे वह मेरी मौसेरी बहन है, ऐसा बताया नहीं था। उसी प्रकार का स्नेह मुझे, मेरे मौसेरे बड़़े भाई के प्रति भी अनुभव हुआ करता था। गत वर्ष ही, माँ जब, मुझे मिलने, मेरे यहाँ आयी थी, तो, उसी ने, सुनाई हुयी यह भी सच्ची घटना है। गुजराती में मौसी को, मौसी-माँ (मासी-बा) ही, बुलाया करते हैं। माँ-सी = मासी ऐसे भी सोच सकते हैं।
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साक्षी-गोपाल
मेरा एक मित्र परदेश आया। कुछ वर्ष बाद उसका छोटा भाई भी आया। दोनों भाई एक ही पिता के पर दो अलग माताओं के पुत्र थे। बड़़े भाई जो मेरे घनिष्ठ मित्र हैं, उन्होंने ही सुनाई हुयी यह भी सत्य घटना है। बड़ा भाई जानता था, कि छोटा भाई सौतेला है। पर सौतेली माँ के साथ रहने का मेरे मित्र को, विशेष अवसर मिला न था; न उन का स्वभाव जाना था।
उसके मन में भी कुछ पूर्वाग्रह सादृश्य, सर्व-सामान्य विचार, जैसे सौतेली माँ के प्रति हुआ करते हैं, शायद थे। पर जब छोटे भाई से उसकी बातचीत होती, तो उसे कुछ अनुमान से जान पडता कि, वह छोटा भाई तो उसे सगा भाई ही समझता है। उस के अचरज का पार न रहा, जब उसने जाना कि छोटे भाई को विमाता नें कभी सौतेले रिश्ते की बात ही नहीं की थी। इस लिए वह उसे बिलकुल सगा भाई ही समझता था। बड़े भाई ने ही सुनाई हुयी, यह सौतेली माँ की सच्चाई है। सोचा तो था, कि, Mothers Day पर इन तीनों सत्य कथाओं को, प्रकाशित करुं, पर आप मुझ से सहमत ही होंगे, कि हम सब के लिए वर्ष में ३६५ दिन भी मातृदिन से कम नहीं होते।
रामकृष्ण कहा करते थे, कि अगले जनम वे स्त्री हो कर जन्मना चाहते थे।उनका दूसरा जन्म तो हुआ ही न होगा, पर उनके कहने का अर्थ कुछ, आज समझ में आ रहा है।
टिप्पणी लिखने और भेजने में देर हुई – एक शारीरिक समस्या दूसरी यहाँ भारत में बिजली आँख मिचौली खेलती है और इंटरनेट का सर्वर अपना खेल खेलता है – दो दिन से सर्वर डाउन – कोई संपर्क नहीं था ।
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लेख में तीनों ही प्रसंग अत्यंत मार्मिक हैं।
तैत्तिरीयोपनिषद की शिक्षावल्ली के ग्यारहवें अनुवाक में गुरु अपने शिष्य को सद आचरण पर चलने की प्रेरणा देते हैं। गुरु जी शिष्य को दीक्षांत के समय आशीष वचन के रूप में कहते हैं – सत्यं वद, धर्मं चर ……. । अर्थात सच बोलो और धर्म का आचरण करो । ….. इस के बाद गुरु कहते हैं – मातृ देवो भव । पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अंत में कहते हैं अतिथि देवो भव। ये चारों ही भारतीय संस्कृति में देव तुल्य हैं, पूजनीय हैं और चारों का स्थान निश्चित कर दिया गया है। इस में माता का स्थान सर्वोपरि है। माता ९ महीने बच्चे को गर्भ में रखती है, पालती पोसती है और जन्म देती हैं। पिता का दूसरा स्थान कहा गया है। वह सृजक है, जनक है, सृष्टि को संतान देकर उसे अक्षुण बनाता है। संतानोत्पत्ति उस का धर्म है। उसका कर्तव्य है। इसी तरह से संतान का भी माता पिता के प्रति कर्त्तव्य है। पश्चिमी देशों में माता और पिता के अलग अलग दिन मना ने की परंपरा बन गई हैं लेकिन भारत में दोनों एक साथ ही महत्वपूर्ण हैं। एक परिवार के रूप में ।