तिब्बतवासियों को चाहिए अपनी मातृभूमिः सेंग्ये

एमसीयू की संगोष्ठी में पहुंचे तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री

भोपाल,28 दिसंबर। तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री लाबसेंग सेंग्ये का कहना है कि तिब्बत एक कठिन लड़ाई लड़ रहा है, जिसके लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सहयोग जरूरी है। तिब्बत के संघर्ष में तमाम लोगों ने अपनी जान दी है, किंतु यह बलिदानों से रूकने वाला नहीं है।

वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन समारोह में मुख्यवक्ता की आसंदी से बोल रहे थे। संगोष्ठी का विषय है मीडिया में विविधता एवं अनेकताः समाज का प्रतिबिंब। उन्होंने कहा चीन न तो हमें आजादी दे रहा है न ही हमें चीनी मानता है। ऐसे में तिब्बत के लोगों की अस्मिता और उनकी आजादी दोनों का दमन किया जा रहा है। उनका कहना था तिब्बत के लोग एक बार अपनी जमीन पर पर लौटे थे और वे फिर अपनी मातृभूमि पर जरूर लौटेंगे। अपनी मातृभूमि पर वापसी तिब्बत के लोगों का हक है और इसे हम लेकर रहेंगें। तिब्बत के नौजवान आगे आकर इस जिम्मेदारी संभाल रहे हैं, बावजूद इसके हमारे आंदोलन में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। भारत के सहयोगी संबंधों और तिब्बत द्वारा चलाए जा रहे स्वतंत्रता संघर्ष की विस्तार से चर्चा की। उनका कहना था तिब्बत के लोगों की बदहाली के लिए चीन जिम्मेदार है जबकि भारत ने हमेशा इस सवाल पर सहयोगी रवैया अपनाया है। भारत ही एक ऐसा देश है, जिसमें वास्तव में विविधता में एकता के दर्शन होते हैं। इसकी खूबसूरती लोकतंत्र, स्वतंत्र चुनाव और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से बढ़ जाती है। सैकड़ो भाषाएं और बोलियां भारत को सशक्त बनाती है। सही मायने में देखा जाए तो भारत में विविधता ही राज करती है। उनका कहना था कि चीन को लगता है दलाई लामा की मौजूदगी तक ही तिब्बत का आंदोलन मौजूद है किंतु यह सोच गलत है, क्योंकि तिब्बती लोगों को अपना वतन चाहिए।

कार्यक्रम के मुख्यअतिथि मप्र के वित्तमंत्री राघवजी ने कहा कि पत्रकारिता की सार्थकता इसी में है जब वह समाज का उचित मार्गदर्शन करे। स्वतंत्रता पूर्व की पत्रकारिता क्योंकि सामाजिक सरोकारों से जुड़ी थी इसलिए हमें आजादी पाने में सहूलियत हुयी। आजादी के आंदोलन के तमाम नायक पत्रकार थे और उन्होंने समाज का मानस इस तरह बनाया जिससे बदलाव आया। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि जनसंपर्क विभाग में अपर सचिव लाजपत आहूजा ने कहा कि मीडिया में सभी पक्ष आने चाहिए किंतु इसमें किसी खास विचारधारा का आधिपत्य नहीं होना चाहिए। मीडिया में जब बहुपक्ष और विविधता आएगी तभी वह सफल होगी। भारतीय समाज जीवन की बहुलता मीडिया में भी व्यक्त होनी चाहिए।

कार्यक्रम के अध्यक्ष कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने कहा प्रकृति में विविघता एवं बहुलता अनिवार्य है, तो मीडिया में यह क्यों नहीं दिखनी चाहिए। समान संस्कृति की बात ही अप्राकृतिक और प्रकृतिविरोधी है। मीडिया को समाज का वास्तविक अर्थों में प्रतिबिंब बनना है तो उसे जनसंघर्षों को जगह देनी होगी। उन्होंने कहा कि भारत तिब्बत की आजादी का सर्मथक है, क्योंकि भारत की संस्कृति राजनीति की नहीं प्रकृति के धर्म की संस्कृति है और प्रकृति का धर्म सहअस्तित्व पर केंद्रित है। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया एवं आभार प्रदर्शन निदेशक, संबद्ध संस्थाएं दीपक शर्मा ने किया।

विशेष सत्रः

28 दिसंबर सुबह ‘एकात्म मानवदर्शन के संदर्भ में मीडिया के कार्य व भूमिका का पुनरावलोकन’ विषय पर आयोजित सत्र में मुख्यअतिथि की आसंदी से अपने विचार व्यक्त करते हुए कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर के कुलपति डा. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि भारतीय परंपरा में कुटुंब एक बड़ी विरासत है। कुटुंब ही संस्कारों का स्रोत है। इसलिए हमारी समाज रचना व्यक्ति, कुंटुंब और समाज से मिलकर बनती है। जो बात हमने वसुधैव कुटुम्बकम् के माध्यम से बहुत पहले कही वही बात आज दुनिया के देश ग्लोबल सिविक्स के नाते कह रहे हैं। सही मायने में स्वामी विवेकानंद पहले ग्लोबल सिटिजन थे और उन्होंने शिकागो सम्मेलन में अपने संबोधन से इसे साबित किया।

प्रो. जोशी ने कहा कि आज का सबसे बड़ा सवाल यह है कि मीडिया, मनुष्य को किस नजर से देख रहा है। क्या उसकी नजर में आदमी की अहमियत एक पाठक या दर्शक की है या फिर वह सिर्फ एक उपभोक्ता है। हम देखें तो इस समय में आदमी सिर्फ एक उपभोक्ता है। मीडिया अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से दूर जा रहा है। इसका परिणाम यह है कि सामाजिक सवालों की जगह हल्के मुद्दे जगह घेर रहे हैं। भारतीय समाज की विविधता के कवर करते समय मीडिया में असंतुलन साफ दिखाई देता है। मीडिया की भीड़ व विस्तार के बावजूद उसका पाठक और दर्शक बहुत अलग व अकेला दिखता है।

सत्र के मुख्यवक्ता स्वदेश समाचार पत्र समूह के संपादक राजेंद्र शर्मा ने कहा कि आज की राजनीति पांच सालों का ही विचार करती है जबकि भारतीय मनीषा युगों का विचार करती है। भारतीय संस्कृति नर को नारायण बनाने का काम करती है यही कारण है कि लंबी गुलामी के बावजूद भारत का चिंतन जीवित रहा। उनका कहना था कि दूसरों के अधिकारों के अतिक्रमण से विषमता का जन्म होता है और तमाम तरह की समस्याएं पैदा होती हैं। इससे लोकतंत्र अपनी राह भटक जाता है और लोगों के प्रश्नों का समाधान नहीं होता। सामाजिक एकता के लिए मीडिया को विभाजनकारी वृत्ति से बचना होगा। धर्म इसलिए जीवन जीने की कला है व विकृतियों से दूर करने का मार्ग है। पुणे विश्वविद्यालय के प्रो. किरण ठाकुर ने कहा कि आध्यात्मिक एवं धार्मिक संचार की शक्ति का उपयोग सामाजिक संदेश देने और लोकजागरण के लिए किया जा सकता है।

सत्र की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला सवाल खड़ा किया कि क्या मीडिया में नकारात्मकता अनिर्वाय है? क्या मीडियाकर्मी पहले मनुष्य है, नागरिक है या पत्रकार? श्री कुठियाला ने कहा कि यह कहना बहुत पीड़ाजनक है कि हम यह मानने के लिए मजबूर हैं कि मीडिया एक व्यवसाय है जबकि पहले मीडिया व्यापार में सहायक मात्र था। आज की त्रासदी यह है कि यह एक लाभदायक व्यापार में तब्दील हो गया है। फिर भी इसकी सीमा क्या हो इस पर विचार करने का समय आ गया है। सत्र का संचालन प्रो. आशीष जोशी तथा आभार प्रदर्शन डा. श्रीकांत सिंह ने किया।

इसके पश्चात हुए दस अलग-अलग समानांतर सत्रों की अध्यक्षता प्रो.एमआर दुआ, प्रो. राधेश्याम शर्मा, प्रो. देवेश किशोर, डा.उज्जवला बर्वे, प्रो.दीपक शर्मा, प्रो.रामजी त्रिपाठी, प्रो. सीपी अग्रवाल, प्रो. जेड् यू हक, प्रो. एचपीएस वालिया, डा.मानसिंह परमार ने की। इन समानांतर सत्रों में देश और दुनिया से आए विद्वानों और शोधार्थियों ने अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए।

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