तिब्बती स्वतंत्रता संग्राम का नया अध्याय -डा कुलदीप चंद अग्निहोत्री

tibbet1दो दिन पहले एक और तिब्बती भिक्षु ने देश की स्वतंत्रता के लिये स्वयं को होम दिया । उसने अपने शरीर पर पेट्रोल छिड़क कर आत्मदाह कर लिया । इस प्रकार आत्मदाह करने बाले तिब्बतियों की संख्या सौ हो गई है । तिब्बत के भीतर आज़ादी के लिये लड़ रहे तिब्बतियों ने संघर्ष के इस अध्याय की शुरुआत २००९ में शुरु की थी ।अब तक स्वतंत्रता की बलिवेदी पर प्राणोत्सर्ग करने वाले इस प्रकार के स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या सौ हो गई है । तिब्बत पर क़ब्ज़ा करने की शुरुआत , चीन पर माओ के क़ब्ज़ा करने के साथ ही १९४९ में शुरु हो गई थी । उस वक़्त तिब्बत को आशा थी कि संकट की इस घड़ी मे भारत सरकार तिब्बत के साथ खड़ी होगी । लेकिन उसकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई । नेहरु उस समय चीन को अपना स्वभाविक साथी मानते थे । अलबत्ता भारत की जनता ज़रुर इस मौक़े पर तिब्बत के साथ खड़ी दिखाई दे रही थी । उसके बाद १९५९ में तो चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह क़ब्ज़ा ही कर लिया और दलाई लामा को भाग कर भारत आना पड़ा ।

तब से तिब्बत के लोग चीन से आज़ादी प्राप्त करने के लिये संघर्ष रत हैं । चीन तिब्बत की संस्कृति , धर्म और भाषा को समाप्त कर उसका अस्तित्व मिटाने के प्रयास में लगा हुआ है । सांस्कृतिक क्रान्ति के दिनों में चीनी सेना ने वहाँ के सभी मंदिर मठ ध्वस्त कर दिये थे और ल्हासा के तीनों विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को धराशायी कर दिया । लेकिन तिब्बतियों के भीतर के आज़ादी के जज़्बे को चीन की सेना समाप्त नहीं कर पाई । तिब्बत के भीतर आज़ादी का आन्दोलन कभी समाप्त नहीं हुआ । कभी प्रत्यक्ष और कभी प्रछन्न उसकी तपश बीजिंग तक पहुँचती ही रही ।

२००९ में स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करने वालों ने संघर्ष के एक नये तरीक़े को जन्म दिया जिसकी मिसाल दुनिया भर में हुये स्वतंत्रता संघर्षों में शायद ही कहीं मिलती हो । वह था स्वयं को अग्निदेव के हवाले कर स्वतंत्रता की देवी की आराधना करना । इन आराधकों में ज़्यादातर युवा पीढ़ी के लोग ही हैं । पन्द्रह वर्ष के एक बालक तक ने इस यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी । सबसे बड़ी बात यह कि यह सारा संघर्ष अहिंसात्मक तरीक़े से हो रहा है । जो व्यक्ति अपने प्राण न्योछावर करने के लिये ही तत्पर हो जाता है , वह एक प्रकार से सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है । भय तब तक ही रहता है , जब तक आदमी अपने प्राणों को बचाने की फ़िराक़ मे रहता है । लेकिन जिसे अपने ही प्राणों का मोह नहीं वह भला किसी से क्यों डरेगा । मानव बम बनने के पीछे यही मनोविज्ञान काम करता है । लेकिन आत्मदाह करने वाले किसी एक भी तिब्बती स्वतंत्रता सेनानी ने किसी चीनी को नुक़सान पहुँचाने या मारने का यत्न नहीं किया । जबकि ऐसा करना उनके लिये बहुत सहज और आसान था । इससे पता चलता है कि तिब्बती स्वतंत्रता संग्राम कितना अहिंसात्मक तरीक़े से चल रहा है । चीन के इन आरोपों में कोई दम नहीं है कि तिब्बत की आज़ादी के लिये लड़ने वाले हिंसा का प्रयोग कर रहे हैं और वे आतंकवादी है । दरअसल चीन तो तिब्बतियों को उत्तेजित कर रहा है कि वे हिंसा का प्रयोग करें । क्योंकि चीन जानता है कि केवल मात्र साठ लाख की आबादी वाले तिब्बतियों को शासकीय हिंसा से कुचलना कितना आसान है । लेकिन तिब्बती स्वतंत्रता सेनानी उचित ही चीन के इस जाल में न फँस कर त्याग और बलिदान का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं

लेकिन यहाँ एक और महत्वपूर्ण प्रश्न है कि सारी दुनिया में , कहीं भी तथाकथित मानवाधिकारों के प्रश्न को लेकर आँसू बहाने वाली भारत सरकार तिब्बत में चीन सरकार द्वारा किये जा रहे इस अमानवीय कृत्य पर चुप क्यों है ? मध्य पूर्व में पिछले दिनों हुये जनान्दोलनों में मानवाधिकारों को लेकर भारत सरकार की चिन्ता समझी जा सकती है , लेकिन पड़ोसी देश तिब्बत में जो हो रहा है , उसकी निन्दा करते हुये सरकार के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा । कम से कम मानवीय आधार पर ही भारत सरकार इस पर अपनी चिन्ता तो प्रकट कर ही सकती थी । जबकि तिब्बत के साथ भारत के सदियों पुराने सांस्कृतिक व सामाजिक सम्बध हैं । चीन के साथ चल रही द्विपक्षीय वार्ताओं में तिब्बत में हो रहे इस नरमेध का विषय सरकार को ज़रुर उठाना चाहिये । अफ़ज़ल गुरु की फाँसी को लेकर जंतर मंतर पर रुदाली का अभिनय करने वालों की विवशता तो समझ में आ सकती है , क्योंकि उनका रोना धोना दिल से नहीं बल्कि एक रणनीति से संचालित होता है , लेकिन भारत सरकार तो मानवीय आधारों को तरजीह देती है , ऐसी घोषणा बराबर की जाती है । गुरू गोलवलकर ने कहा था तिब्बत चीन के क़ब्ज़े में हमारी कमज़ोरी से ही गया है , इसका प्रायश्चित्त भी हमें ही करना होगा । प्रायश्चित्त करने का इससे उपयुक्त अवसर भला और क्या हो सकता है ?

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