वक्त के साथ सिनेमा में बदलती गई देशभक्ति

फिल्में समाज का आईना होती हैं और काफी हद तक वह सब दिखाती हैं जो सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं पारिवारिक स्तर पर घटित होता है। हालांकि हिन्दुस्थान में अब सिनेमा की परिभाषा बदल गई है और अब जो बिकता है, उसी को आकर्षक पैकेजिंग के द्वारा दर्शकों के समक्ष परोस दिया जाता है। फिल्में आज़ादी के पहले भी बनती थीं, अभी भी बन रही हैं और आगे भी बदस्तूर बनती रहेंगी मगर एक क्षेत्र ऐसा है जिसका जिक्र आज करना प्रासंगिक है। देशभक्ति की धारा को हिंदी सिनेमा ने हमेशा आकर्षित किया है। ‘राजा हरीशचंद्र’ जैसी धार्मिक फिल्मों से शुरू हुआ इसका संसार देशभक्ति तक आते-आते इतना परिपक्व हो चुका था कि इसका जब-जब परदे पर चित्रण हुआ, दर्शकों की नसों में खून का उबाल मार गया। आजादी के पूर्व की कई फिल्मों को देशभक्ति दिखाने की कीमत चुकानी पड़ी और उनपर प्रतिबंधात्मक कार्रवाई भी हुई। निर्देशक ज्ञान मुखर्जी की 1940 में प्रदर्शित फिल्म ‘बंधन’ संभवत: पहली फिल्म थी, जिसमें देश प्रेम की भावना को रुपहले परदे पर दिखाया गया था। उस दौर में सोहराब मोदी, रमेश सैगल, वी. शांताराम, फणी मजूमदार जैसे प्रोड्यूसर्स ने देशभक्ति को जमकर उभारा। 1943 में अशोक कुमार अभिनीत ‘किस्मत’ ऐसी ही एक फिल्म थी जिसका कवि प्रदीप द्वारा लिखा गीत ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालो, हिन्दुस्थान हमारा है’ बड़ा लोकप्रिय हुआ था। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बनी इस फिल्म ने अंग्रेजी हुकूमत को भी डरा दिया था। आंदोलन के दौरान इसका गीत गली-कूचों में जमकर सुनाई देता था। 1947 के बाद तो जैसे देशभक्ति सिनेमाई परदे की जरुरत सी बन गई। 1940 से 1960 के दशक के बीच देशभक्ति आधारित कई फिल्में बनीं। भारत छोड़ो आंदोलन के संदर्भ में 1940 में ‘शहीद’ आई। समकालीन विषय पर बनी इस फिल्म के गीत ‘वतन की राह पे वतन के नौजवां शहीद हों’ को मोहम्मद रफी और खान मस्ताना के स्वर ने अमर बना दिया। नेताजी सुभाषचंद्र बोस और इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) पर 1950 में अशोक कुमार अभिनीत ‘समाधि’ बनी। वहीं वर्ष 1951 में बनी ‘आंदोलन’ में बापू का सत्याग्रह, साइमन कमीशन, वल्लभभाई पटेल का बारदोली आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन दिखाया गया था। 1952 में ‘आनंदमठ’ आई जिसमें लता मंगेशकर का गाया ‘वन्दे मातरम’ शहीदों की इस पावन भूमि को जैसे नमन करता है। वर्ष 1953 में सोहराब मोदी ने ‘झांसी की रानी’ बनाई। 1961 में प्रेम धवन की एक सुपरहिट फिल्म ‘हम हिंदुस्तानी’ प्रदर्शित हुई जिसके गीत ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी’ ने जनमानस की सोच को नया ध्येय दिखाया। भारत-चीन युद्ध पर 1965 में चेतन आंनद ने ‘हकीकत’ बनाई जो देशभक्ति से परिपूर्ण फिल्म थी। मोहम्मद रफी की आवाज में कैफी आजमी का लिखा गीत ‘कर चले हम फिदा जानों तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ आज भी श्रोताओं में देशभक्ति के जज्बे को बुलंद करता है। मनोज कुमार तो मानो देशभक्ति को परदे पर उतारने के पर्याय बन गए। उनकी ‘शहीद’, ‘पूरब और पश्चिम’, ‘रोटी, कपड़ा और मकान’, ‘क्रांति’, ‘जय हिन्द’ ने दर्शकों को देश के प्रति प्रेम करना सिखाया।

 

हालांकि अंतिम समय तक देशभक्ति को सम्मान देते आए मनोज कुमार के दौर के बाद देशभक्ति परदे से गायब होने लगी थी। 1980-90 का दशक हिंदी सिनेमा ने नई किस्म की विचारधारा का था और यह विचारधारा अर्थ आधारित थी। यानि फिल्मकार वही बनाते जिसमें उन्हें जोखिम कम लगता था। फिर अंग्रेजी हुकूमत की खलनायकी को लेकर इतनी फिल्में बन चुकी थीं कि दर्शक भी अब कुछ नया देखना चाहते थे। दर्शकों की इसी भावना को ध्यान में रखते हुए फिल्मकार जेपी दत्ता ने 1971 के पाकिस्तान युद्ध की पृष्ठभूमि पर 1997 में ‘बॉर्डर’ बनाई जिसने देशभक्ति ने एक नए आयाम को दिखाया। ‘बॉर्डर’ बेहद सफल रही और इसकी सफलता ने फिल्मकारों को एक बार फिर देशभक्ति की धारा की ओर मोड़ दिया। फर्क सिर्फ इतना था कि इस बार देशभक्ति अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नहीं बल्कि पाकिस्तान के खिलाफ थी। जेपी दत्ता ने ही ‘एलओसी कारगिल’ बनाकर 1999 के कारगिल युद्ध के शहीदों को श्रद्धांजलि दी। किन्तु पाकिस्तान विरोधी फिल्मों ने भी लोगों को ज़्यादा आकर्षित नहीं किया क्योंकि फिल्मकारों ने देशभक्ति के जरिए बेसिर पैर की कहानी दिखाना शुरू कर दिया। हालांकि इस दौरान तिरंगा, लक्ष्य, लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह, लगान, ग़दर, ‘रोज़ा’, ‘मंगल पांडेय’, ‘कोहराम’, ‘स्वदेश’, ‘पुकार’ जैसी फिल्मों ने दर्शकों को लुभाया मगर इनकी संख्या कम ही थी। 2006 में राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने ‘रंग दे बसंती’ बनाकर देशभक्ति की परिभाषा बदल दी। उनकी देशभक्ति किसी विदेशी हुकूमत के खिलाफ नहीं वरन व्यवस्था के खिलाफ थी। उनका नायक अपने ही देश में भ्रष्ट एवं दोगली व्यवस्था से लड़ रहा था और उसकी हार कर भी जीत जाने की कोशिश ने युवाओं को लुभाया। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की लीक पर कई फिल्मकार चलते गए और ‘चक दे इंडिया’, ‘लगे रहो मुन्नाभाई’, ‘ए वेडनसडे’, ‘हॉलिडे’, ‘बेबी’ जैसी नायब फिल्में दर्शकों को देखने को मिलीं जिन्होंने देशभक्ति के साथ जीने की सीख भी दी। देशभक्ति अब पहले से ज़्यादा विस्तृत और बदले रूप में दर्शकों के सामने आ रही है गोयाकि आर्थिक उदारीकरण ने देशभक्ति के रूप-रंग को बदल दिया है। फिर भी मानना होगा कि हिंदुस्थानी सिनेमा ने देशभक्ति के जरिए युवा वर्ग को देश के प्रति उसके कर्तव्यों का भान कराने के साथ ही बीते हुए अतीत के पन्नों को पलटने का काम किया जिसके लिए इसकी प्रशंसा करना होगी। स्वतंत्रता के 69 वर्षों में सिनेमा तो बदल गया मगर देशभक्ति की मूल भावना वही है जिसे देखते हुए आज भी युवाओं की नसों में खून फड़फड़ाने लगता है।

 

सिद्धार्थ शंकर गौतम

Previous articleकलयुग के यह स्वयंभू भगवान
Next articleसियासी भंवर में फंसी जीएसटी
सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here