…तो चालु है सालाना ‘हिन्दी-महिना’ ….और हिन्दी का ‘हिंग्रेजी’ होते जाना !

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                    मनोज ज्वाला
    चालु औपनिवेशिक वर्ष अर्थात ब्रिटिश क्राउन से सत्ता हस्तान्तरण को
ही स्वतंत्रता मान लिये जाने के ७२वें वर्ष का सितम्बर माह शुरु होतेर ही
भारत भर में देश की ‘राजभाषा’ बनाम ‘राष्ट्रभाषा’ की दशा-दुर्दशा पर आंसू
बहाने की औपचारिकता निभाने के निमित्त ‘हिन्दी-महिना’ नामक समारोह का
कर्मकाण्ड जगह-जगह दिखने लगा है । मालूम हो कि १४ सितम्बर , १९४९ को
भारतीय संविधान-सभा ने भारत की राष्ट्रभाषा- हिन्दी को देश की ‘राजभाषा’
के रुप में अपनाने का निर्णय लिया था । इस महत्वपूर्ण निर्णय के आधार
समस्त भारत गणराज्य के राजकाज में सर्वत्र हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के
उद्देश्य से ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा’ के आह्वान पर सन १९५३ से
हर साल १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है । इस ‘हिन्दी-दिवस’ को
केन्द्र में रख कर तमाम सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों में इस हेतु ‘हिन्दी
पखवारा’  और ‘हिन्दी सप्ताह’ का भी आयोजन होता है । बीतते समय के साथ
हिन्दी के प्रति निष्ठा-भक्ति को मापने का पैमाना तीन-तीन आकारों का यह
आयोजन ही है, जिसके दौरान ऐसे कार्यक्रमों में सहभागी बने लोग भारतीय
राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में हिन्दी के योगदान पर तालियां बजाने तथा
राज-काज में इसके अपमान पर आंसू बहाने की औपचारिकता पूरी कर देते हैं ।
किन्तु ऐसे हास्यास्पद  आयोजनों से हिन्दी का कुछ भी भला होने वाला नहीं
है । अंग्रेजी शासन से भारत की स्वतंत्रता के आन्दोलन को राष्टव्यापी
उभार-विस्तार प्रदान करने एवं राष्ट्रीय भावनाओं को व्यापक अभिव्यक्ति का
स्वर प्रदान करने के कारण हिन्दी राष्ट्रभाषा तो स्वयं के बूते ही बहुत
पहले , कदाचित, संविधान सभा गठित होने से पहले ही बन चुकी है , किन्तु
संविधान के द्वारा इसे जब राजभाषा का दर्जा प्रदान कर दिया गया, तब अब
इसकी दुर्दशा देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि एक प्रकार का ‘राजरोग’  इसे
ग्रसता जा रहा है । अंग्रेजी को हटाये बिना राजकाज की भाषा के नाम पर
अंग्रेजी की चेरी बना दी गई हिन्दी के शब्द-कोश में भी अंग्रेजी फैलती जा
रही है । हिन्दी की लिपि और अंग्रेजी के शब्दों के घाल-मेल से
‘हिंग्रेजी’ का दुष्प्रचलन बढता जा रहा है । सबसे बुरा हाल तो महानगरों
में है, जहां आवासों-दुकानों-संस्थानों के नाम तक अब अंग्रेजी में ही
देखे जा रहे हैं बवजूद इसके, लोकशक्ति  से सम्पन्न हिन्दी अपनी स्वाभाविक
गति तो प्ताप्त कर ही लेगी, किन्तु भारत का जो अंग्रेजीकरण व
हिंग्रेजीकरण होता जा रहा सो दुर्भाग्यपूर्ण है । इससे तो भारतीय प्रजा
के समक्ष भविष्य में भाषायी पहचान का संकट खडा हो सकता है ।   ।
         बोल-चाल और कार्य-व्यापार में अधिक से अधिक अंग्रेजी व
अंग्रेजियत का व्यवहार ही आज अपने देश में सुशिक्षित व विकसित होने का
पैमाना बन गया है । जो जितनी ज्यादा अंग्रेजी अपनाता है , वो उतना ज्यादा
शिक्षित जाना-माना जाता है । ऐसी स्थिति अपने देश में प्रचलित
अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति के कारण है , जो भारतीय
भाषा-संस्कार-ज्ञान- परम्परा के प्रति नकार और अंग्रेजी व अंग्रेजियत के
प्रति स्वीकार की धारणा पर ही आधारित है । आज किसी भी शिक्षित आदमी को आप
यह बताइए कि संस्कृत भाषा दुनिया की सबसे पुरानी और सर्वाधिक वैज्ञानिक
भाषा है अथवा यह कि वेदों में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के सारे सूत्र भरे
पडे हैं , तो इन बातों को वह तब तक सत्य नहीं मानेगा , जब तक अंग्रेजी
भाषा में युरोप-अमेरिका के किसी विद्वान के तत्सम्बन्धी कथनों का उद्धरण
उसे देखने-पढने को न मिले । अपने ‘स्वत्व’ के प्रति ऐसी अविश्वासपूर्ण
हीनता और अपनी ‘अस्मिता’ के प्रति विश्वास के लिए अंग्रेजी पर ऐसी
निर्भरता हमारी वर्तमान मैकाले शिक्षा-पद्धति की ही देन है । इस पद्धति
से भारतीय भाषाओं, विशेषकर राष्ट्रभाषा-हिन्दी को सर्वाधिक नुकसान हुआ है
। अंग्रेजी से कई-गुणी ज्यादा समृद्ध हिन्दी में बेवजह अंग्रेजी शब्दों
के इस्तेमाल से हिन्दी अब ‘हिंगरेजी’ बन गई है , जबकि देवनागरी परिवार की
अन्य भारतीय भाषायें भी ऐसी ही दुर्गति की शिकार होती जा रही हैं ।
         गौरतलब है कि अंग्रेजी में शब्दों की संख्या भारतीय भाषाओं की
अपेक्षा बहुत ही कम है । शब्द-सृजन की क्षमता तो और भी कम है । अंग्रेजी
के एक विद्वान के अनुसार-  कुल पन्द्रह हजार शब्दों में पूरी अंग्रेजी और
उसका सारा साहित्य समाया हुआ है ; जबकि संस्कृत की तो छोडिए , संस्कृत से
निकली हुई हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में शब्दों की संख्या लाख से
भी अधिक है । संस्कृत में तो कोई सीमा ही नहीं है , क्योंकि उसमें
शब्द-निर्माण की क्षमता असीम है । शब्दों की ऐसी दरिद्रता के कारण
अंग्रेजी में एक ही शब्द का कई भिन्न-भिन्न अर्थों में उपयोग होता है ।
फलतः भावनाओं और विचारों की सटीक अभिव्यक्ति सम्भव ही नहीं है इस भाषा
में ।
         दरअसल , हुआ यह कि ब्रिटिश शासकों ने भारत को लम्बे समय तक अपने
औपनिवेशिक साम्राज्यवाद का गुलाम बनाये रखने के लिए थॉमस मैकाले की
तत्सम्बन्धी षड्यंत्रकारी अंग्रेजी शिक्षण पद्धति को हमारे ऊपर थोप कर
इसके पक्ष में ऐसी मान्यता  कायम कर दी कि  मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा,
रोजी-रोजगार , ज्ञान-विज्ञान और प्रगति-उन्नत्ति व समृद्धि हासिल करने की
भाषा अंग्रेजी ही मानी जाने लगी । तब हमारे देश का लालची और एक हद तक
लाचार जन-मानस अंग्रेजी पढने-लिखने-सीखने का ही नहीं , बल्कि अंग्रेज ही
बन जाने का प्रयत्न करने लगा । अंग्रेजों के चले जाने के बाद देश की
राज-सत्ता उन्हीं के सरपरस्तों द्वारा उन्हीं की रीति-नीति से संचालित
होती रही, जिसके कारण देशवासियों की वह प्रयत्नशीलता उसी दिशा में जारी
रही ।
            इस प्रयत्नशीलता में लाचारी कम , लालच ही अधिक दिखती है ।
सिर्फ लाचारी होती , तो लोग अंग्रेजी पढते-लिखते-सिखते भर , अंग्रेज बनने
को उतावला नहीं होते और कम से कम अपनी भाषा का तिरस्कार तो कतई नहीं करते
। किन्तु लोगों में अंग्रेज बनने और अंग्रेजियत के माध्यम से दौलत और
शोहरत सब कुछ हासिल कर लेने की लालच इस कदर भडक उठी कि लोग अपने बच्चों
को अंग्रेजी पद्धति से ही नहीं , बल्कि अंग्रेजी माध्यम से ही
पढाने-पढवाने लगे , ताकि बच्चे की अंग्रेजी ऐसी हो जाए जैसे उसकी
मातृभाषा ही हो । इसी उद्देश्य से प्रेरित हो कर माता-पिता अपने
दूधमुंहें बच्चों को भाषा-ज्ञान का श्रीगणेश ‘क से कन्हैया’ के बजाय ‘ए
से ‘एपल’ का रट्टा पिलाते हुए करने लगे । मातभाषा, दैशिक-भाषा व
राष्ट्रभाषा की उपेक्षा वहीं से शुरू हो गई । फिर तो व्यक्ति-व्यक्ति की
ओर से यही प्रयत्न होने लगा कि बोलचाल में अधिक से अधिक अंग्रेजी शब्दों
का इस्तेमाल किया जाय , तभी अंग्रेजी में पारंगत हुआ जा सकता है ।   तो
इस तरह से हमारी राज-सत्ता की अंग्रेज-परस्त रीति-नीति के कारण देश में
कायम अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति से न केवल राष्ट्र-भाषा हिन्दी की
दुर्गति हो रही है , बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं की भी ऐसी-तैसी हो रही है

              ऐसे में समाज को ही आगे आना होगा , क्योंकि भारतीय परम्परा
में शिक्षा तो समाज का ही विषय रही है ,  राज्य का नहीं ।  गुजरात के
अहमदाबाद शहर में वहां के जैन-समाज ने यह पहल की है, जो उल्लेखनीय है ।
वहां हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला नाम से एक ऐसा गुरुकुल  संचालित
किया जा रहा है, जो अंग्रेजी-मैकाले शिक्षण-पद्धति को कडी चुनौती दे रहा
है । वहां शिक्षा का माध्यम गुजराती, संस्कृत और हिन्दी है । बारह वर्ष
की उम्र तक वहां बच्चों को अंग्रेजी पढायी ही नहीं जाती है , जबकि भारतीय
ज्ञान-विज्ञान की ७२ कलाओं-विद्याओं की पढाई होती है ।
‘मैकाले-स्कूलों’ की ‘डिग्रियों’ का भी बहिष्कार करने वाले उस गुरुकुल के
संचालक उत्तम भाई का मानना है कि उनके बच्चे दुनिया के किसी भी
सर्वश्रेष्ठ शिक्षण-संस्थान के बच्चों का मुकाबला कर सकते हैं । यहां का
एक बच्चा पिछले दिनों इण्डोनेशिया में हुई गणित की एक अंतर्राष्ट्रीय
प्रतियोगिता को जीत कर यह सिद्ध भी कर दिया है , जिसे तत्कालीन केन्द्रीय
मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावेडकर ने सम्मानित भी किया हुआ है ।
भारतीय भाषाओं की दुर्गति की संवाहक मैकाले शिक्षा-पद्धति व शिक्षा के
अंग्रेजी माधयम की व्याप्ति को हटाने और उसके स्थान पर भारतीय
शिक्षा-पद्धति को स्थापित करने के साथ-साथ भारतीय भाषाओं को शिक्षा का
माध्यम बनाने की दिशा में भाजपा की नरेन्द्र मोदी-सरकार से अपेक्षा की जा
सकती है, क्योंकि यह उस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा से निकली
हुई है, जिसकी  प्राथमिकताओं में  शामिल है- भारतीय व संस्कृति का
उन्नयन-संवर्द्धन । अतएव सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा-पद्धति चाहे जब भी
बदले, किन्तु हिन्दी के घटते प्रचलन और इसके बढते ‘हिंग्रेजीकरण’ को
रोकने के लिए शीघ्र कोई कानूनी कदम अवश्य उठाये । राजभाषा-संवर्द्धन के
नाम पर हिन्दी-महिना-पखवाडा-सप्ताह-दिवस आयोजित करने से कुछ भी हासिल
होने वाला नहीं है । हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी के अकारण बढते प्रयोग
को रोकना होगा ।

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