वैचारिक अधिष्ठानों को देश से संवाद करनें देवें

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प्रसंग: संघ प्रमुख का भाषण –          

इस विजयादशमी पर दूरदर्शन सहित अन्य प्रसारण चैनलों ने भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शीर्षतम नेता, सर संघ चालक मोहन जी भागवत के प्रतिवर्ष होनें वालें भाषण का अद्यतन और त्वरित प्रसारण किया. सौभाग्य कि ऐसा होना प्रारम्भ हुआ और दुर्भाग्य कि ऐसा पूर्व में नहीं होता था. दूरदर्शन के इस कदम से बहुतों के पेट में मरोड़ और माथें पर बल आनें की संभावना तो थी ही और ऐसा ही हुआ भी. किसी देश के प्रसार माध्यमों से क्या प्रसारित हो और उसकी विषय वस्तू क्या हो इस पर बहस प्रारम्भ होना ही चाहिए किन्तु इतनें निचले स्तर से नहीं होना चाहिए कि मोहन जी भागवत का दूरदर्शन प्रसारण हुआ तो किसी अन्य मौलवी या पादरी का भी होगा क्या? संघ प्रमुख के विजयादशमी भाषण के प्रसारण के विषय में हमें यह तथ्य ध्यान रखना होगा कि यदि सत्ता एक प्रतिष्ठान होती है तो उस प्रतिष्ठान का एक वैचारिक अधिष्ठान आवश्यक होता है. इतिहास में बहुत कम ऐसे दुर्भाग्य पूर्ण अवसर आयें हैं जब किसी सत्ता प्रतिष्ठान का वैचारिक अधिष्ठान नहीं रहा हो या सर्वथा निर्धन और निष्प्रभावी प्रकार का रहा हो. दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत के सतत शासक दल रहे कांग्रेस के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. कांग्रेस एक आन्दोलन के रूप में विकसित हुई और उसका चरित्र स्वाभाविक रूप से स्वतंत्रता आन्दोलन की त्वरित आवश्यकताओं के आस पास केन्द्रित रहा. तदैव ही स्वतंत्र भारत में महात्मा गांधी ने कहा था कि कांग्रेस का विसर्जन कर देना चाहिए! गांधी जी सत्ता प्रतिष्ठान के साथ विशिष्ट और उत्कृष्ट चरित्र के साथ सम्बन्ध रखनें वाली, परस्पर -समानांतर चलती, राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों को जन भावनाओं से अवगत कराते एक शीर्ष वैचारिक अधिष्ठान की कल्पना संजोये हुए थे. गांधी जी के ह्रदय में तत्कालीन वैश्विक अनुभवों से यह बात स्पष्ट हो गई थी की सत्ता के ऊपर एक गैर सरकारी नियंत्रण संस्थान होना ही चाहिए जो जनता और सत्ता के मध्य एक सेतु रूप में भी सक्रिय रहे. पोलित ब्यूरों जैसी संस्थाओं की भूमिका कल्पना उनकें मन में सदैव रही. कांग्रेस के नेताओं ने गांधीजी की कांग्रेस को तिरोहित-विसर्जित करनें और नए राजनैतिक दल के सामाजिक, सांस्कृतिक, वैचारिक अधिष्ठान से संचालित होनें की कल्पना को नष्ट कर दिया. इसके ऊपर तुर्रा यह भी हुआ कि कांग्रेस के पास जो गांधी, तिलक, वल्लभभाई, लालबहादुर की वैचारिक पूँजी थी उसे भी नेहरु की वैचारिक शून्यता और पाश्चात्य मोहित, भौतिकता वादी दृष्टिकोण ने लील लिया. बाद के दशकों में गांधी परिवार की गणेश परिक्रमा करती कांग्रेस दिन प्रतिदिन वैचारिक आधार से दूर होती चली गई. बापू के आशय से विपरीत जाकर और कांग्रेस का यह हाल होना ही था. इस प्रकार कुलपति या वैचारिक अधिष्ठान के अभाव में कांग्रेसी विचारधारा का जो हुआ वह हमारें समक्ष है; कांग्रेस विचार शून्य और चेतना शून्य अवस्था में है!! कांग्रेस अंग्रेजों से जन्म लेकर विभिन्न गौरवमयी अवसरों को अपनें आँचल में समेटें आगे बढ़ भी जाती किन्तु विचार, कुल, कुलपति और अधिष्ठान के अभाव को सत्ता में बनें रहनें के भाव ने कभी ऊपर नहीं आनें दिया. राष्ट्रवाद का भाव तो जैसे कांग्रेस ने विस्मृत ही कर दिया था और सर्वाधिक दुखद यह था कि सत्ताधारी कांग्रेस को राष्ट्रवाद का स्मरण करानें वाला कोई गुरुतर आसनधारी उसके पास नहीं था!! भाजपा नामक प्रतिष्ठान के पास संघ नामक यह गुरुतर आसन या वैचारिक अधिष्ठान है!! और इस आसन ने भी अपनें आपको पवित्र, सदाशयी, अहर्निश राष्ट्र सेवारत होकर गौरान्वित होनें का भाव बना रखा है, तो उसे सुनना ही चाहिए!!

आज स्थितियां भिन्न है. देश के पिछले तीस वर्षों के इतिहास में पहली बार कोई दल केंद्र में स्पष्ट बहुमत प्राप्त करके सत्तारूढ़ है तो उसे नवाचार करनें के अवसर भी मिलना ही चाहिए. अब राजनीति के ठेकेदार चिंता न करें और नई परम्पराएं स्थापित होनें दें! यदि ये नई परम्पराएं सार्थक और आदर्श होंगी तो देश की संज्ञा, प्रज्ञा उन्हें स्वीकार करेंगी अन्यथा उन्हें बाहर फेंक देगी. स्पष्ट बहुमत से केंद्र में सत्ता प्राप्त करनें वाली भाजपा के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से सम्बन्ध जननी रुपी रहें हैं, देश के लिए यह कोई नया तथ्य नहीं है. संघ ने भी अपनें विचार परिवार को देश के सामनें सदैव प्रस्तुत किया है कभी छिपाया नहीं. संघ के विस्तृत परिवार के एक सदस्य के रूप में भाजपा ने भी आरएसएस को सार्वजनिक रूप से अपनें वैचारिक सूत्रधार के रूप में माना है; यह तथ्य पूरा देश जानता है. अब यदि भाजपा के सत्ता में आनें पर उसके कुलपति के भाषण का दूरदर्शन से प्रसारण होता है तो देखनें योग्य केवल यह रह जाता है कि इस भाषण में कुछ आपत्ति जनक या संविधानेतर तो नहीं है??!! यह भी देखना चाहिए कि इस भाषण में इस देश-समाज के लिए कोई वैचारिक तप-ताप से प्राप्त स्पष्ट दिशा है या नहीं?! यह भी ध्यान देना चाहिए कि भाषण कर्ता को देश के अधिसंख्य समाज से स्वीकार्यता और आदर दोनों प्राप्त है या नहीं? यदि सभी कुछ सकारात्मक है तो फिर सुनिए और सुननें दीजिये! संघ के कुल-परिवार के एक अंश – भाजपा को इस देश की जनता ने सत्ता दी है तो उसे जनता जनार्दन से परस्पर संवाद कर दो-चार हो लेनें दीजिये!! अनावश्यक तीन-तेरह करनें वाले वैचारिक दिवालिये अपनें अपनें कुलपतियों को सामनें लायें. यदि उनकें पास कुलपति नहीं है तो कम से कम भाजपा के कुलपति के भाषण के विषय बहस करते हुए में मुल्ला, मौलवी, पादरी जैसे शब्दों के उपयोग की धृष्टता और मुर्खता नहीं ही करें तो उपयुक्त होगा.

स्थिति इतनी मूर्खता पूर्ण है कि कांग्रेस, वामपंथी, समाजवादी आदि सभी नें संघ प्रमुख के प्रसारण की आलोचना की किन्तु उन्होंने क्या कहा इस विषय में वे मौन रहे. भाषण की विषय वस्तु पर कोई कुछ नहीं बोला. भाषण और उसकी विषयवस्तु पर आक्षेप नहीं करनें की उनकी मजबूरी को देश भी समझ रहा है और वे स्वयं भी.

सर संघचालक जी का उद्बोधन मंगल यान, एशियाड के पदक विजेताओं को बधाई, भारतीय मूल के लोगों के भारत प्रेम को उत्साहित करते, मध्य-पूर्व के देशों में बढ़ रही अशांति और उसमें भारत के हितों और भूमिका, घुसपैठियों और गौवंश की चर्चा पर केन्द्रित रहा. इस भाषण में पश्चिमी देशों के सतत भोगवाद से उपज रहे नए-नए संकट, कश्मीर की बाढ़, परिवार के वातावरण की चिंता, टेलीविजन पर क्या आये क्या न आये, इस मुक्त वातावरण में टीवी पर क्या देखें क्या न देखें आदि के सहज संवाद चर्चा से इस भाषण में संघ प्रमुख ने इस देश की जनता और सरकार दोनों के बीच एक सेतु की भूमिका को जीवंत किया है. इस देश की सदा से यह आशा रही है कि कोई एक माध्यम रहें जहां से जनता की आशाएं और भावनाएं केन्द्रीय सत्ता के समक्ष व्यवस्थित और समुचित रूप से एक प्रस्ताव रूप में रखी जाएँ. यद्दपि सर संघचालक जी ने ऐसा नहीं किया है किन्तु देश की जनता इस नए वातावरण में कुछ ऐसा ही सन्देश दे रही है.

अब जब मोहन जी भागवत के भाषण प्रसारण की आलोचना हो रही है तब देश को चाहिए कि वह सर संघ चालक के भाषण के अंशों को नहीं वरन सम्पूर्ण को शब्दशः मन-ध्यान से पढ़े. फिर आलोचना का मन हो या पालना का? यह वह स्वयं निर्धारित करें!! किन्तु जो करना है वह जनता जनार्दन को स्वयं करनें देवें क्योंकि देश की जनता देश की सत्ता से अभी सीधे संवाद के मूड में है उसे दुभाषियों और दलालों की आवश्यकता नहीं है.

 

3 COMMENTS

  1. मात्र निन्दा अलोचना के लिये ही — और हर बात की निन्दा आलोचन करना, बौद्धिक वैचारिक प्रौढता परिपक्वता का द्योतक नहीं होता, हुआ करता। क्या देशभक्तों राष्ट्रवादियों देश्प्रेमियों का दूरदर्शन पर बोलना/ सन्देश देना दूरदर्शन के नियमों के विरुद्ध है? देश राष्ट्र के लिये हानिकारक है? वे बोलें तो क्यों नहीं बोलें – और कैसे नहीं बोल सकते हैं – तथा च, जो उन्हों ने बोला, वह कैसे आपत्तिजनक तथा देश एवं राष्ट्र के अनहित में था; यह क्यों नहीं बतलाया?

    डा० रणजीत सिंह (यू०के०)

  2. मात्र निन्दा अलोचना के लिये ही — और हर बात की — निन्दा आलोचन करना, कोई बौद्धिक वैचारिक प्रौढता परिपक्वता का द्योतक नहीं होता।

    क्या देशभक्तों राष्ट्रवादियों देश्प्रेमियों का दूरदर्शन पर बोलना/ सन्देश देना दूरदर्शन के नियमों के विरुद्ध है? देश राष्ट्र के लिये हानिकारक है?

    वे बोलें तो क्यों नहीं बोलें – और कैसे नहीं बोल सकते – तथा च, जो उन्हों ने बोला, वह कैसे आपत्तिजनक तथा देश एवं राष्ट्र के अनहित में था; यह क्यों नहीं बतलाया?

    डा० रणजीत सिंह (यू०के०)

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