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आज अद्भुत स्वप्न समझा ! - प्रवक्‍ता.कॉम - Pravakta.Com
आज अद्भुत स्वप्न समझा, जगत की जादूगरी का; नहीं कोई रहा अपना, पात्र था हर कोई उसी का ! स्वार्थ लिपटे व्यर्थ चिपटे, चिकने चुपड़े रहे चेहरे; बने मुहरे बिना ठहरे, घूमते निज लाभ हेरे ! अल्प बुद्धि अर्थ सिद्धि, पिपासा ना आत्म शुद्धि; पहन सेहरे रहे सिहरे, परम…