आज के स्वेच्छाचारी वक्ता

पण्डित परन्तप प्रेमशंकर

आजकल के आध्यात्म वक्ता वडे स्वच्छन्दी एवं पाखंडी हो गए हैं । इस परिपेक्ष्य मे इनको सत्य दर्शन कराना संतो एवं विद्वानों का परम कर्तव्य है, उपासना है और जनसेवा भी है । अनुकरणशील मनीषावाले जनमानस को भ्रमित होते रोकना भी परमात्मा की सेवोपासना से कम नहीं । उनके प्रभाव को बढनेका प्रधान कारण हैं, विद्वानों की उदासीनता । अब समय आ गया हैं, उन आसुरी व पाखण्डी शक्तियों की मर्यादा नियत करनेकी । यदि संत एवं विद्वद्वर्ग आज भी सुषुप्त हैं तो वे दोषभागी हैं, उनकी कर्तव्यपरायता का पलायनवाद या पौरूषहीनता ही हैं ।
प्रायः शास्त्रों का उपहास करना, ब्राह्मण कर्मकाण्ड का विरोध करना ही एक मात्र उनका ध्येय बचा है । एक द्विधा यह भी है कि अपूज्यायत्र पूज्यन्ते, पूजनीय व्यतिक्रमात् । त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दूर्मिक्षं मरणं भयम् – शि.पु.।। जो अपूज्य है उसका पूजन भी अहितकर होता है । गीताजी भी इसका प्रतिपादन करती है । ज्ञान ध्यान जाने नहीं मनवाँ मूढ अजान, पाप चडावें शीश पै बिन जाने गुरू मान । अतः प्रथम गुरू कैसे नहीं होने चाहिए वह बताते है, क्योंकि प्रायः आज के गुरू तो शिष्यवित्तोपहारक ही होते है । आज तो आध्यात्म की मण्डी में, कई गुरू दुकान लगाकर बैठ गए है, मिडिया भी पैसे लेकर उनकी विज्ञप्ति करती है, क्योंकि वह भी व्यापार ही कर रही है । शास्त्र विरूद्ध आचरण, शास्त्रो का विरोध, ब्राह्मण – कर्मकाण्ड का विरोध आज सर्वसामान्य हो गया है । एक बात बता दे कि, कर्मकाण्ड क्या है, उसके प्रणेता कौन है, कब प्रारम्भ हुआ इत्यादि । पुराणो व वेदों में दृष्टिपात् करे तो वह चारों युगो यज्ञ-याजन रूप में कर्मकाण्ड का अस्तित्व था । कर्मकाण्ड क्या है – यज्ञ-यागादि, यजन ही तो है । क्या राम और कृष्ण यज्ञ नहीं करते थे ? यज्ञ में देवताओंका आवाहन पूजनादि भी करते होंगे । श्राद्धादिक भी करते थे – इसके अतिरिक्त कर्मकाण्ड क्या है ? परम सत्यको आत्मसात् करनेकी पद्धति तो है, जिसको ऋषियोंने जीवन व्यवहार में उतारा । यज्ञ-याग कौन कराते थे, वशिष्ठ-विश्वामित्र, क्या वे भी गलत थे ? एक वास्तविकता और भी है – आज तो प्रायः बहोत डॉक्टर मिल जाते है, फिर भी छोटे छोटे गांवों में आज भी प्रशिक्षित क्वालिफाईड डॉक्टर नहीं मिलते, तो क्या वहां बिमारिया नहीं आती ? यह समस्या अति प्राचीन काल से है । क्या करें, हमारे पूर्वजो नें सोचा, ज्यादा तर बिमारियां तो, केवल मानसिक दृढता से, श्रद्धा से, सकारात्मक विचारों से ही निकल जाती है । गांवों में ऐसे ही सामान्य ज्वरादि को जारनेवाले अपनी प्राण शक्ति से एवं सकारात्मक ऊर्जा से बिमारियों का हल निकालते थे । हाल में प्रचलित रेकी – सकारात्मक मेनेजमेन्ट भी इसका ही श्रेष्ठ उदाहरण है – क्यां इसे आप कर्मकाण्ड या अंधश्रद्धा या वहम कहैगे या विचारपूर्ण विकसित व्यवस्था कहेंगे ।
कर्मकाण्ड की विधिया प्रणाली है, इसमें बताए नियम पूर्णतया तर्क एवं विज्ञानाधारित है, जो न समझ सके वे लोग उसे वहम या अंधश्रद्धा का नाम देते है । विधि व प्रणालीयों में निषिद्ध है – उसी का आचरण करते है और बोलते है कि वहम – अंधश्रद्धा को छोडो । अब पूरे ब्रह्माण्ड में अग्नि की व्याप्ति है, लेकिन उनके स्वरूप भिन्न है, कहां कौनसा अग्नि श्रेष्ठ है उसका वर्णन धर्मशास्त्रमें कहा है । वास्तु सिमंतादि शान्तिकर्म, विवाह संस्कार कर्म, यज्ञादि अनुष्ठान कर्म, अन्त्येष्ठी में अग्नि का स्वरूप भिन्न रहता है । नचिकेता को यम नें तीन अग्नि का उपदेश किया था । श्रुति में निर्द्दिष्ट पंचाग्नि में पूरे ब्रह्माण्ड में जो अविरत यज्ञ चलता है, उसका विवरण है (यह बात मेरी पूर्व पुस्तिका यज्ञ परिचय में सविस्तार वर्णित है) । सरल भाषा में समझे तो, अपने शरीर में प्राणाग्नि, जठराग्नि है, ब्रह्माण्ड में वैश्वानर है, समुद्र में वडवानल है, रसायनों मे तेजाब एसिड है, यंत्रों में ईन्धन का रूप पेट्रोल-डिझल है, रसोई घर में गैस है, लकडी में भी अग्नि है, विद्युत में भी अग्नि है । अब मंदाग्नि हो तो तेजाब तो नहीं पी सकते । कारमें लकडी तो नहीं जला सकतें । शरीर में श्वसन में प्राणाग्नि की कमी हो तो पेट्रोल तो नहीं पी सकते । प्रधानतया अग्नि की तीन शक्तियां है, दाहक, पाचक एवं प्रकाशक जिनका उपयोग विवेकपूर्ण करना चाहिए – इसलिए धर्मशास्त्र प्रेरित पद्धतियां जिसे विधि-विधान कहते है वहीं तो विज्ञान है । आज भले श्मशान में विवाह करके स्वयं को महान् सिद्ध करें, किन्तु हमारे धर्मशास्त्र में तो, यज्ञ में जो शिवाग्नि करते है, वह स्वयं शिवशक्ति का स्वरूप है, तथापि इसमें से क्रव्यादंशा नैऋत्यांदिशि परित्यज्य – जिसमें जीवहिंसा का श्पर्श है ऐसा श्मशानाग्नि का परित्याग करना होता है । संत अपने व्यक्तिगत विचारधारा को जनसामान्य पर न ठोपे ।
रामायण की कथा करनेवाले को पता ही नहीं राम मर्यादा पुरूषोत्तम थे, उनका आचरण अनुसरणीय हैं, वे वनवासमें भी श्राद्ध करते थे । स्वयं भगवति सीताने अपने पितृओंका श्राद्ध दरम्यान दर्शन किया हैं । उनके वहां अग्नि संस्कार न होने का अर्थ ये तो नहीं कि किसीकी अन्त्येष्ठी न हो । ऋषियों की वाणी, वेद, धर्मशास्त्र पढीए । आप उनसे उपर नहीं हैं, आपकी मति भ्रष्ट हो रही है । वास्तुशास्त्र की रचना वेदकालीन हैं, भवननिर्ममाण, यज्ञशाळा – कुण्डपरिमाण, मंदिर मे द्वार-गर्भादि, मूर्ति स्वरूप आदि का मान ये सब तो शास्त्राधीन हैं । आप तो विश्वकर्माजी से भी बडे बन गए । क्या आप इतने महान हो गए कि, सनातन वैदिक परम्पराओं की बीना जाने उपेक्षा करें, विद्वानों को जनसामान्य के सामने आवाहित करके आपके मत को सिद्ध करें, किसका डर है आपको, क्यों आप विरोध करनेवालो को शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित नहीं करते ? आप प्रथम राम को तो जानिए, यदि हिंमत है तो, कह दो कि राम श्राद्ध नहीं करते थे । आप समझ सके तो कुछ प्रमाण यहां प्रसिद्ध है जो आपके परदादा से कई वर्ष प्राचीन हैं । श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है) मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है, आप मत्स्यावतार को अब गलत नही कहना । त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं । अष्टकापितृदेवत्यमित्ययं प्रसृतो जनः। अन्नस्योपद्रवं पश्य मृतो हि किमशिष्यति ।।१४।। यदि भुक्तमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति । दद्यात् प्रवसतां श्राद्धं तत्पथ्यमशनं भवेत् ।।१५।। (बाल्मीकि विरचित रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग १०८)।
हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरित में भी श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र विधान का उल्लेख भरत कीन्हि दशगात्र विधाना तुलसी रामायण में हुआ है। विवाद पर सीताजीने फल्गुनदी को शाप भी दिया है, वहां सीताकुण्ड आज भी हैं ।
आप अपने घर में क्या खाते है, कहां सोते है यह सत्संग में बतानेकी कोई आवश्यकता नहीं है, आपके पुत्र-पुत्रीयों का विवाह कैसे हुआ है, उसकी जरूरत नहीं ।
व्यर्थाडम्बर से उपर उठकर, विवेकपूर्ण सम्भाषण करें । आपको स्वच्छन्दता की शास्त्राज्ञा नहीं हैं, यह पतन के मार्गपर आप भले ही जाए, जनसामान्य को प्रेरित न करें । संभव है कल तो, रामचरित भी प्रायः गलत साबित करेंगे । धर्मशास्त्र समझनेमें जिनको स्वल्प प्रज्ञा है, वे ही ऐसा आचरण कर सकते है । कर्मकाण्ड, गणपति पूजन, पुण्याहवाचनादि का जो वक्ता विरोध करते है, उनकी कथा सूनना पाप है । इस लेख के माध्यम से विद्वानों एवं संत समाजको ऐसे विद्रोहीओंका मूळ स्वरूप प्रकाशित करनेकी प्रार्थना करता हुं ।
इस वसुंधरा पर अनेक प्रकार के लोग है, कुछ तामस प्रधान है, कुछ राजस है, तो कुछ सत्वगुण सम्पन्न है । सभी क्षेत्रों में ऐसे लोग मिलेंगे, तो क्या पूरी जाति या क्षेत्र को बुरा बोलेंगे …? राम के समय में भी विद्वान एवं समर्थ होने के साथ रावण में कुछ दूषण थे, तो क्या रामने सभी ब्राह्मणो की निंदा करी, उन्होंने तो, रावण को भी प्रणाम किया है, जिसने उनकी पत्नी का बलात् अपहरण किया था । कृष्ण के समय में भी कालयवन मानवभक्षी हो गया था, द्रोण एवं कृपाचार्य भी अधर्म के साथ थे । क्या कृष्णने पूरी ब्राह्मण जाति के लिए अपवचन कहे है ? नहीं, उन्होंने तो कहा है कि, ब्राह्मणो की चरणरेणु का मैं भक्त हुं । मनक्रमवचन विप्रपद पूजा – अनेक प्रमाण है, किन्तु यहां इसकी आवश्यकता नहीं, जब आवश्यकता होगी तब सेंकडो प्रमाण देंगे और वह उनके पसंद किए हुए ग्रंथसे । रामने कहा है कि, मैं स्वयं ब्राह्मणों का सेवक हुं, जो ब्राह्मण का द्रोह नहीं करता, वही मेरा भक्त और प्रेमास्पद है ।
कर्मकाण्ड की विधयों के गुढार्थ में छिपे वेदान्त एवं विज्ञान को न जाननेवाले उसे वहम का नाम दे देते है । राम और कृष्ण की कथा करनेवाले, यदि इतना सत्य नहीं जानते तो, निश्चय कर लो, वे मूर्ख एवं पाखण्डी ही है, चाहे कितने हि बहुश्रुत क्यों न हो, अच्छा बोलते हो, तब भी सब वे वाक्व्यभिचारी है, उनसे कथा श्रवण पाप है ।
भगवद् कथा केवल नृत्य एवं संगीत के आश्रित हो गई है । कर्मकाण्ड व कथा में, लोकरंजन-मनोरंजन ने सुदृढ स्थान बना लिया है । शास्त्रमर्यादोओं का उल्लङ्गन व स्वच्छन्द विचारधारा से कथा का स्तर अति निम्न हो गया है । शास्त्रज्ञोsपि स्वातंत्रेण ब्रह्मज्ञानान्वेषणं न कुर्यात्(मु.उप)। न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् । जोषयेत्सर्व कर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् –गीता ३.२६ । शास्त्रं तु अन्त्य प्रमाणम् । तत्रोच्छास्त्रमनर्थाय परमार्थाय च शास्त्रितम् – यो.वाशिश्ठ, अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः । दंभाहंकार संयुक्ताः कामराग समन्विता – (तामस कहा है)-गीता, वेदागमः पुराणज्ञः परमार्थं न वेत्तियः, विडम्बनं तु तस्यैव तत्सर्वं काकभाषितम् – यो शास्त्रविधिमुत्सृज्य….तस्मा च्छास्त्र प्रमाण ते कार्यकार्य व्यवस्थितौ गीता १६.२४। बुद्धिमान होते हुए भी, शास्त्रोपदेश में स्वच्छन्दता निंदनीय है ।
आप अभी ये भी कह दो की श्रीमद्भागवत, देवीभागवत्, पद्मपुराण, रामचरित मानस, मनुस्मृति, अन्य स्मृतिया एवं पुराण, महाभारतादि इतिहास, गृह्यसूत्रों में से श्राद्ध, कर्मकाण्ड, ज्योतिष, वास्तु के अध्यायों को निकाल दे । अत्रि, अंगिरा, विश्वामित्र, वशिष्ठ, परशुराम, श्रीकृष्ण, श्रीराम, कपिलादि सिद्धोनें जो श्राद्ध की बाते कही वे गलत हैं । परशुराम-राम ने श्राद्ध आपको बीना पूछे ही किया था । सिद्धपुर, गया, ब्रह्मकपाली जैसे तीर्थ का तो माहात्म्य भी गलत हैं ।
शास्त्र अन्त्य प्रणाण है, सभी विद्याओं, विधिविधान का पूर्ण ज्ञान शास्त्रों में है । कृषि या औषध, शस्त्र या अस्त्र(औजार), स्वास्थ्य या आहार सबके निर्माण-परिशीलन की व्यवस्था शास्त्रों मे बताइ है । शस्त्रास्त्र बनाना एवं चलाना, औषध एवं अन्न बनाना, यंत्र या मकान बनाना या चलाना सबका विवेचन शास्त्रमें है । अर्थशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, रसायणशास्त्र, नागरिक शास्त्र, भौतिकशास्त्र, गणितशास्त्र, नाट्यशास्त्र, संगीतशास्त्र, नृत्यशास्त्र इत्यादि, सब का मूल स्रोत शास्त्र ही तो हैं, शास्त्र ही सत्यासत्य विवेक का आधार है ।
हमारा दुर्भाग्य है कि आज प्रसिद्ध कथाकार(कलाकार) ही उसका विरोध कर रहे है और संतसमाज एवं शिक्षित विद्वद्वर्ग उदासीन हैं । शास्त्रीय विधिविधान को त्यागना या उसकी उपेक्षा कदापि नहीं करनी चाहिए, जितनी उंचाई पर वक्ता है, उतने विवेक की आवश्यकता हैं । स्वच्छन्दता नीन्दनीय है । गीता भी इसका समर्थन करती है ।
अनुकरणशील मनीषावाले जन सामान्य को पथच्युत और भ्रम में डालनेवाले, रोज एक गुरू टीवी स्र्किन पर आ टपकते है । भगवति श्रुति एवं गीता मे भगवान, ऐसे मठ मण्डीवाले शिष्यवित्तोपहारक (केवल धन बटोरनेवाले) वक्ताओं से सावधान करते है, नई परम्परा की शरूआत कहां ले जाएगी पता नहीं, स्वयं को उन महान ऋषियों से भी उपर की कक्षा के सिद्ध करके, शास्त्र व वैदिक वाङमय का उपहास-ह्रास करते है । श्रीमद् भागवत एवं अन्य पुराण, रामायण, महाभारतादि तथा बालकाण्ड में आचार्य तुलसी का वर्णन बिलकुल सही दिखता है ।
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी॥
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा॥
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥
सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
जौ कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥
वैसे तो मेरा एक स्वतंत्र लेख इस विषयपर हैं, यद्यपि कुछ आवश्यकतार्थ यहां केवल अनुकरणशील मनीषायुक्त (जो शास्त्राभ्यासवंचित से है) के हित मे प्रस्तुति की गई हैं ।
सबदूसाखीदोहरा कहिकिहनी उपहान, भगति निरूपहीं भगतकलि निन्दहिं बेदपुरान ।। तत्रोच्छास्त्रमनर्थाय परमार्थाय च शास्त्रितम् (यो.वा.) वेदागमःपुराणाज्ञः परमार्थं न वेत्तियः। विडम्बनं तु तस्यैव तत्सर्वं काकभाषितम् ।। परमार्थाय शास्त्रीतम् ।। शास्त्र परमार्थ के लिए है, जो शास्त्र का उपहास करते हैं उनकी कथा व्यथावाणी (काकभाषा) हैं । शिष्यवित्तोपहारक: । यस्यागमः केवलजीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति । शिष्योकी संम्पत्तिसे मठ-आश्रम चलानेवाले, ए.सी. कारवाले सन्त (मठरूपी दुकान चलानेवाले) ही ज्यादा मिलते है । आज प्रायः सभी कथाकार या संत तपोमय जीवन से दूर है । अपना विमान, डिलक्स गाडियां, बडे-बडे महल जैसे आश्रम, अद्यतन सुवाधायुक्त रहन-सहन, आहार विहार । प्रायः पांच हजार करोड से उपर की संपत्तिवाले ही संत है । शिष्यो की लंबी कतार, यदि ऐसा ही है तो, गृहस्थ जीवन में क्या हानी थी ? विचार करे, क्या यही संत जीवन है । कथाकारों को भी अपना सामियाना, अपना साउण्ड, अपने ही वी.आई.पी. की अलग व्यवस्था, मिडीया प्रस्तुति एवं उच्चतम विज्ञापन क्या आवश्यक है ? ये लोग तो अपना कल्याण ही नहीं कर सकते, आपका क्या कर पाएंगे । सच्चे गुरू या संत तो ऐसे सामने भी नहीं आते, उनको विज्ञापन की कोई आवश्यकता नहीं । क्या पुष्प को अपनी सुंदरता या सुगन्ध की विज्ञप्ति करनी पडती है ? क्या सूर्य की शक्ति, चन्द्र की शितलता, गंगा की पवित्रता विज्ञापनाधीन है ? आज के गुरू प्रायः व्यापारि है ।
आज तो प्रधानतया संगीत-नृत्या आश्रित कथा- प्रायः जनरंजन के लिए ही करते है । बीना संगीत पू. डोंगरेजी महाराज, पू.शंभुमहाराज, पू. अद्वैतानन्दजी, पू. कृष्णानन्दजी, पू. अखण्डानन्दजी भगवद्कथा के माध्यम से शास्त्र की अनुपम चर्चा सहजतासे करते थे । आज वक्ताओंका उद्देश्य तो भगवद् संगति नहीं, किन्तु जनसंख्या की गिनती ही होता है, प्रतिष्ठा व सम्पत्ति के पीछे भागते है – प्रतिष्ठा सुकरी विष्टा – प्रतिष्ठा का सुअरी विष्टा कहा है – जो स्वयं विष्टा के पीछे भागते है, वह समाज को अमृत कहां से पीलाएंगे, हमे अनुसरण करना है उनका, जिनके पीछे प्रतिष्ठा भागती है – मिडियावाले बाबा लोग नहीं ।
उन्हे स्वयं का ही विचार केन्द्र में रहता है । पानी पीजे छानकर, गुरू कीजे जानकर – गुरू बनाने में बहोत सावधानी बरतनी चाहिए, जो समर्थ व सिद्ध होते है, उनको विज्ञापन की आवश्यकता नही होती, वे तो स्वयं सन्निष्ठ शिष्य की तपास करते रहते है ।
आजके कथाकारों – संतो को, शिष्यका कल्याण हो या न हो, कंठी बंधवाना, युनिफोर्म पहनाना, अपना तिलक करना संप्रदायने नियत किया हुआ ट्रेडमार्क, उसीसे ही सभीका अभिवादन करना (कोडवर्ड), इत्यादि । आजके संप्रदाय कट्टरतावादी होते जा रहे है । कल के भारतके लिए आतंकवाद से भी यदि ज्यादा भय है तो, यह बढते कट्टरतावादी छोटे-छोटे परिवार, समाज, योगसंस्था एवं संप्रदयों से है । भगवान श्रीकृष्णने गीतामें अढारह योगोका ज्ञान, अपने शिष्य अर्जून को दिया किन्तु अपना अलग सम्पदाय नहीं बनाया । गीता में कहीं भी कृष्ण उवाच नहीं है, भगवानुवाच ही है यह सूचक है कि यह गीतोपदेश अपने अवतार विग्रह से भी उपर की अवस्था (ब्रह्मरूप) का है । अर्जून को सांख्ययोग, कर्मयोग, सन्यासयोग, पुरूषोत्तम योग, ब्रह्मयोग सब कुछ आत्मसात् हो गया था, क्योंकि उपदेष्टा स्वयं श्रीकृष्ण थे । उन्हे कुछ भी करनेकी आवश्यता नहीं थी । तथापि भगवानने कहां कि क्षत्रिय है, क्षात्र स्वभाव तुझे सहज है, मेरे हिसाब से अधर्म के सामने गांडीव उठाना ही तेरा धर्म है । आज के गुरूओंकी भांति नहीं की सब के लिए एक ही बात – सब के लिए एक ही योग्यता, गीता का संदर्भ देते है – चातुर्वण्यं मयास्रृष्टं गुणकर्म विभागशः गुण को छोडकर, केवल कर्म विभागशः का अपूर्ण अर्थ करते है, प्रारम्भ मे ही लिखा है मयासृष्टं-मेने बनाए – सर्जन किए है – वेद भी कहते है पद्भ्यां शूद्रो अजायत । यह तथ्य मेरे अन्य लेख ब्राह्मण एवं वर्ण व्यवस्था में पूर्ण शास्त्रमत से सुस्पष्ट करनेका प्रसास किया है । अनेक प्रमाण है, यहां अनावश्यक है ।
एक और बात है कि, भगवान ने तो अढारह योगों की चर्चा करके भी, कोई संप्रदाय या शाखा नहीं बनाई, कोई परिवार, समाज, मण्डल नहीं बनाया । आज तो मिडिया, रोज एक नए बाबा का सर्जन करती है । सद्गुरूतो कतकरेणु के (एलम) पुष्प की तरह होते है । शिष्यों के संशयरूपी मल को लेकर पानी में नीचे बैठ जाते है – पानी निर्मल हो जाता है, पर कहीं भी अपना नाम व अस्तित्व का आभास नहीं होने देते ।
भगवाननें सृष्टि बनाकर – सूर्य-चन्द्र बनाकर – पर्वत, नदिया, सागर बनाकर, कहीं भी अपना नाम नहीं लिखा । सूर्य के प्रकाश एवं वर्षा के जलके साथ कभी बिल नहीं आता । आजके गुरूओं की शिबिरमें दक्षिणा देनी पडती है। किसी साधारण या जन सामान्यके वहां ये गुरू जाते नहीं – आर्थिक दक्षताके आधारपर ही उनका व्यवहार चलता है । हजार रूपये लेकर बीस रूपये लोक हितार्थ खर्च करते है, बाकी, मठ-मंडीका फायदा अपने भोग के लिए । ऐसे अनेक छोटे-छोटे संप्रदायों के विकासमें, मिडिया, विद्वद्वर्ग की सुषुप्ति एवं जनजागृतिका अभाव ही कारणभूत है । शिष्यों की दक्षता तो एक तरफ, विज्ञापन द्वारा शिष्य संख्या बढानेकी स्पर्धा चल रही है । भक्तों के पास, मन चाहे मन्त्र लोगों से रटाते है, जिसके ऋषि, छन्द, बीज, देवता, कीलक, शक्ति, अर्थ या विनियोग स्वयं भी नहीं जानते । गुरू जब मन्त्रोपदेश करता है तो, शास्त्रानुसार उपरोक्त विषयमें अवश्य पूछे, उनकी योग्यता प्रकाशित हो जाएगी ।

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