सत्य पथ की ओर..

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journalismसत्य पथ की व्याख्या कई तरह से हो सकती है। सूर्य की ओर मुंह करके खड़े व्यक्ति के लिए सूर्य सामने होगा, जबकि उधर पीठ करके खड़े व्यक्ति के लिए सूर्य पीछे माना जाएगा। अपनी जगह दोनों ही ठीक हैं। बस, बात इतनी है कि कौन व्यक्ति कहां खड़ा है ? सूर्य कहीं भी हो; पर उसका अस्तित्व तो निरपवाद है ही; पर कुछ लोग आंख होते हुए तथा गर्मी अनुभव करते हुए भी यह नहीं मानते। चाहे वह जवानी का जोश हो या इधर-उधर से प्राप्त अधकचरा किताबी ज्ञान; पर लम्बे समय तक इन खोखली मान्यताओं से चिपके रहने के बाद कई लोग इस छलावे की वास्तविकता समझ जाते हैं और इसे छोड़कर सत्य के पथ चल पड़ते हैं। कुछ लोग साहसपूर्वक अपनी भूल मान लेते हैं, जबकि अधिकांश यह नहीं कर पाते। हां, वे उस असत्य पथ को छोड़ जरूर देते हैं।

भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक श्री सत्यभक्त का जन्म भरतपुर (राजस्थान) में दो अपै्रल, 1897 को हुआ था। उनके पिता श्री कुंदनलाल रियासत द्वारा संचालित मिडिल विद्यालय में प्राचार्य थे। घर पर भारतमित्र, सत्य सनातन धर्म, प्रताप.. आदि समाचार पत्र आते थे। इन्हें पढ़ने से उनके मन में देश और धर्म के प्रति आदर, स्वाधीनता की ललक तथा क्रांतिकारियों के प्रति आकर्षण का भाव जाग्रत हो गया।  1916 में वे हरिद्वार कुंभ में ‘भारत सेवक समिति’ के स्वयंसेवक बन कर गये। वहां उनकी भेंट गांधी जी से हुई। उनसे प्रभावित होकर वे साबरमती आश्रम में आ गये। गांधी जी चाहते थे कि वे स्थायी रूप से वहीं रहें; पर वे गांधी जी की अहिंसा के समर्थक नहीं थे। अतः उन्होंने आश्रम छोड़ दिया। इसके बाद भी वे ‘असहयोग आंदोलन’ में जेल गये; पर शीघ्र ही उनका कांग्रेस और उसकी राजनीति से मोह भंग हो गया। इसके बाद वे ‘राजस्थान सेवा संघ’ में गये। लेखन और सम्पादन में उनकी रुचि थी। स्त्री दर्पण, सरस्वती, मर्यादा, हितकारिणी, ललिता, प्रतिभा.. आदि प्रसिद्ध पत्रिकाओं में उनके लेख छपते थे।

प्रणवीर (नागपुर, मुंबई), चांद (प्रयाग) तथा साम्यवादी (कानपुर) के सम्पादन व प्रकाशन से भी वे सम्बद्ध रहे। उन्होंने ‘बोलेविज्म क्या है’ तथा ‘अगले सात साल’ पुस्तकें भी लिखीं।  इतने वर्ष तक गांधीवाद, कांग्रेस और साम्यवाद के साथ रहने पर भी उन्हें आत्मिक संतोष नहीं मिला। मथुरा में ‘गायत्री तपोभूमि’ के प्रणेता आचार्य श्रीराम शर्मा से प्रभावित होकर वे 1955 से ‘अखंड ज्योति आश्रम’ में रहने लगे। उन्होंने महामानवों के जीवन पर कम मूल्य वाली कई पुस्तकें लिखीं और तीन दिसम्बर, 1985 को वहीं उनका निधन हुआ।

सत्यभक्त जी से पूर्व भी अनेक विद्वान, समाजसेवी तथा नेताओं का, जीवन के संध्याकाल में वामपंथ और कांग्रेस की छद्म राजनीति से मोहभंग हुआ है। ऐसे में वे स्वाभाविक रूप से अध्यात्म, हिन्दुत्व और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर आकर्षित हुए हैं।  जयप्रकाश नारायण की जीवन यात्रा भी साम्यवाद, समाजवाद, कांग्रेस और गांधीवाद से होकर सर्वोदय तक पहुंची। गांधी जी की हत्या के झूठे आरोप में जब संघ पर प्रतिबंध लगा, तो उन्होंने संघ कार्यालयों पर हमले किये और करवाये। नेहरू परिवार से भी उन्हें बहुत प्रेम था। इंदिरा जी उन्हें ‘चाचा’ कहती थीं; पर धीरे-धीरे कांग्रेस और इंदिरा जी से उनका मोह भंग हो गया। एक बार बिहार में भीषण बाढ़ के समय कई संस्थाओं ने सेवा कार्य किये। इस दौरान जयप्रकाश जी ने देखा कि कांग्रेसियों की रुचि काम की बजाय प्रचार में अधिक है। उनका काम सदा अधूरा रहता था। इसके लिए मिले धन का वे हिसाब भी नहीं देते थे। दूसरी ओर संघ वाले काम पूरा करते थे तथा हिसाब भी देते थे। 1974-75 में इंदिरा गांधी के तानाशाह बनने पर सर्वोदयी विनोबा भावे ने मौनव्रत ले लिया। कांग्रेस वाले खुलकर नंगई पर उतर आये। पटना की रैली में जयप्रकाश जी पर पुलिस ने भीषण लाठी चलायी। ऐसे में नानाजी देशमुख उनके ऊपर लेट गये। इससे उनका हाथ टूट गया; पर जयप्रकाश जी बच गये। आपातकाल के विरोध में पूरा आंदोलन संघ ने ही चलाया। इससे जयप्रकाश जी की आंखें खुलीं और वे संघ के समर्थक बन गये।  पटना में संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह (7.10.1977) में उन्होंने कहा,

‘‘मुझे ऐसे क्रान्तिकारी संगठन से बहुत आशाएं हैं, जिसने नये भारत के निर्माण का संकल्प लिया है। मैंने आपके इस साहसिक कार्य का हृदय से स्वागत किया है। किसी समय मैंने अपने सुझाव आपको दिये थे और आपकी आलोचना भी की थी; पर वह मात्र मित्रवत था। यह इसलिए कि मैं अपनी ताकत और आपकी क्षमता को समझता था। इस देश में कोई दूसरा संगठन नहीं है, जिससे आपकी तुलना की जा सके। आज नवयुवकों में चरित्र-निर्माण का कार्य बहुत जरूरी है।’’

मुरादाबाद (उ.प्र.) निवासी श्री दाऊदयाल खन्ना कई बार विधायक और कांग्रेस की प्रदेश सरकार में मंत्री रहे। उन्होंने कांग्रेस के बड़े नेताओं से कई बार कहा कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच स्थायी शांति के लिए अयोध्या, मथुरा और काशी के धर्मस्थान सम्मान सहित हिन्दुओं को सौंप देने चाहिए; पर मुस्लिम वोटों की लालची कांग्रेस तैयार नहीं हुई। फिर वे संघ के पास गये। संघ नेतृत्व ने उनकी बात सुनी और छह मार्च, 1983 को मुजफ्फरनगर में ‘हिन्दू जागरण मंच’ के बैनर पर हुए ‘विराट हिन्दू सम्मेलन’ में पहली बार यह विषय उन्होंने ही रखा। अपै्रल 1984 में उन्होंने बरेली के गुलाबराय इंटर कॉलिज में हुए संघ के एक कार्यक्रम की अध्यक्षता भी की, जिसमें सरकार्यवाह प्रो. राजेन्द्र सिंह का भाषण हुआ था।

श्री रूसी करंजिया कभी पत्रकारिता के शिखर पुरुष थे। उनका घोर वामपंथी साप्ताहिक पत्र ‘ब्लिट्ज’ लाल रंग से छपता था। संघ और हिन्दुत्व को गाली देने में वे सदा आगे रहते थे। कांग्रेस शासन ने उन्हें चीन से सम्बन्ध सुधारने में लगाया था। अटल जी की सरकार आने पर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया, जिसे अटल जी ने अस्वीकार कर दिया। इससे श्री करंजिया पर घड़ों पानी पड़ गया। जिन संघ वालों को वे कोसते रहते थे, उनके हृदय की विशालता देखकर उनका वामपंथी अहंकार गल गया। धीरे-धीरे वे हिन्दुत्व के समर्थक बने। फिर वे योग और अध्यात्म की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने कुंडलिनी साधना के अपने अनुभवों पर एक पुस्तक भी लिखी। गांधीवाद के प्रति धर्मपाल जी की निष्ठा भी अटूट थी। इंग्लैंड के अभिलेखागारों में वर्षों बैठकर उन्होंने निष्कर्ष निकाले कि अंग्रेजों ने अपने शासन की स्थिरता के लिए अंग्रेजी भाषा को जबरन लादा और क्रमशः भारतीय शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और समाज व्यवस्था को नष्ट किया। उन्हें लगता था कि स्वाधीनता के बाद ये व्यवस्थाएं ठीक की जाएंगी; पर कुछ नहीं हुआ। अतः उनका मन खिन्न हो गया। वे क्रमशः कांग्रेस से दूर और संघ के निकट आने लगे। उन्होंने नागपुर में संघ के एक कार्यक्रम की अध्यक्षता भी की। उनके शोध ग्रन्थों को भी संघ ने ही प्रकाशित किया।

‘हिन्दू अर्थशास्त्र’ के लेखक प्रो. एम.जी. बोकारे भी पक्के कम्युनिस्ट थे; पर संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी के सम्पर्क ने उनका मन बदल दिया और वे सार्वजनिक रूप से संघ के कार्यक्रमों में आने लगे। आज भी लेखन और पत्रकारिता में कई ऐसे प्रतिष्ठित नाम हैं, जो कभी स्वयं को गर्व से ‘कामरेड’ कहते थे; पर फिर वे भी हिन्दू हो गये। केरल में संघ और वामपंथियों के बीच हिंसक संघर्ष का कारण भी यही है। वहां बड़ी संख्या में युवक कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर शाखा में आ रहे हैं। इससे बौखलाए वामपंथी उन पर हमले करते हैं। इस संघर्ष में दोनों ओर हानि होती है। फिर भी वामपंथ छोड़ने वालों का क्रम जारी है। वामपंथ से मोहभंग के भारत में सैकड़ों उदाहरण हैं।

जवानी में व्यक्ति स्वभावतः विद्रोही होता है। उचित-अनुचित का विवेक उसमें नहीं होता। ऐसे में उसे उग्रभाषी, अनुशासनहीन और विध्वंसप्रिय वामपंथी अच्छे लगते हैं; पर क्रमशः उसके जीवन में स्थिरता आती है। उसे जीवन की वास्तविकताएं पता लगती हैं। इससे उसकी बुद्धि संतुलित होती है और वह वामपंथ के धोखे से दूर हो जाता है। यद्यपि कुछ लोग मृत बच्चे को सीने से लगाये रखने वाली बंदरिया की तरह वामपंथ से चिपके रहते हैं; पर जिन्हें किसी अच्छी हिन्दू संस्था का साथ मिल जाता है, उनकी दुनिया बदल जाती है। उनमें से कई तो खूब सक्रिय होकर वह पाप धो डालते हैं, जो जाने-अनजाने उनके हाथ से हो चुका है।   पर जिन्हें बचपन में ही देशभक्त संस्थाओं का साथ मिल जाता है, उनके सौभाग्य का क्या कहना। समय की मांग है कि सभी देशभक्त लोग अपने आसपास की नयी पीढ़ी को इन संस्थाओं से जोड़कर सत्यपथ पर चलने के लिए प्रेरित करें।

 

1 COMMENT

  1. youhave propageted the right concept.one of my friend who is no more,was a stranch communist ,but in his retiered life he was a believer of god.Not only this being MUSLIM he was having the photo frame of SHRI SHIRDI SAIBABA AND MEERA DATAR.Second one is my relative.HE was a true COMRADE of labour unions. But today he is a member of BJP.

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