‘राजतंत्र’ को खुली चुनौती से कम नहीं 26 की ट्रैक्टर रैली….

पिछले दो माह से कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पर किसान लगातार आंदोलित हैं। दांत किटकिटाने वाली ठंड का इन पर कोई असर नहीं है। जिद है खाली हाथ नहीं जाएंगे। जनसमूह और राजतंत्र के बीच जारी बातचीतों में कोई हल अब तक निकल नहीं पाया है। शांतिपूर्वक चल रहा आंदोलन अब भरे घड़े से छलकते पानी की तरह आवेशित होने को है। 26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टर रैली निकालने की घोषणा सीधे-सीधे ‘राजतंत्र’ 

को खुली चुनौती से कम नहीं है। इसका परिणाम क्या होगा, यह तो अभी वक्त ही बता पायेगा।

कृषि कानूनों को कृषि विरोधी बता किसान जब पंजाब से दिल्ली की और चले थे तो मामला इतना गम्भीर होने की उम्मीद नहीं थी। 

हरियाणा में प्रवेश के दौरान उन्हें रोकने की भरपूर कोशिशें भी की गई। पर उन्हें रोकना सम्भव नहीं हो पाया। संयमित रूप से किसान दिल्ली में सीधे प्रवेश करना रद्द कर बॉर्डर पर डेरा जमाकर बैठ गए। पूर्ण रूप से मैनेज आंदोलन में किसानों का दिल्ली बॉर्डर पर रुकना भी बेहतरीन रणनीति का उदाहरण है। सरकार को अपने निर्णय पर सोच विचारने का समय देने के साथ-साथ खुद को भी किसानों ने अपने आपको और मजबूत करने का कार्य किया। इसी सोच का यह परिणाम है कि पंजाब की तरफ से शुरू विरोध की चिंगारी हरियाणा, राजस्थान,यूपी तक जा पहुंची है। हरियाणा खुलकर समर्थन कर रहा है। पंजाब के किसानों की आवभगत में दिल्ली के साथ लगते जिलों के किसानों द्वारा कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जा रही है।

इतिहास में बहुत से आंदोलन हुए हैं। आंदोलन की असफलता का कारण व्यवस्था प्रबन्धन की खामियां ही रही है। यहां मामला पूरा उलट है। न रसद की कमी है ना भीड़ की। एक यदि लौट रहा है तो दो और जुड़ रहे हैं। खाने-पीने से लेकर, रहने-सोने तक व्यवस्था की कोई कमी नहीं। यही वजह है कि आंदोलन एक टूरिस्ट स्पॉट की तरह बना हुआ है जहां हजारों लोग तो दिन में घूमफिर कर लौट रहे हैं। 

शांतिपूर्वक चल रहा आंदोलन अब निर्णायक दौर में आ पहुंचा है। अभी तक ‘राजतंत्र’ से किसी भी तरह की कोई टकराव की स्थिति नहीं बन पाई थी। सरकार भी हर कदम सोच-विचार कर ही रख रही है। शुरुआत में यही लग रहा था कि दस-पांच दिन नारेबाजी के दौर के बाद ये वापस लौट जाएंगे। पर जिस तरह से ये मजबूती को प्राप्त करते गए, चिंता की लकीरें भी और ज्यादा खींचतीं चली गई। ऊपर से 26 जनवरी को ट्रैक्टरों के साथ दिल्ली मार्च की घोषणा ने तो राजतंत्र को बुरी तरह हिलाया हुआ है। सुप्रीम कोर्ट तक से इसे रोकने की मनुहार काम नहीं आई है। 26 जनवरी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का गणतंत्र दिवस है। उस दिन किसी भी तरह के विरोधाभास के हालात बनना बड़े अनिष्ठ की संभावना पैदा कर रहा है। किसान अपनी बात पर अड़े रहे और ‘राजतंत्र’ ने इसे रोकने को कठोर कदम उठा लिया तो परिणाम क्या होगा। यह सब जानते हैं। शांति की मशाल धधकती ज्वाला का रूप न ले ले, इसके लिए दोनों तरफ से ही इस पर विवेकपूर्ण विचार जरूरी है। 

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

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